बुधवार, 25 दिसंबर 2019

आध्यात्मिक चर्चा - ६

आध्यात्मिक चर्चा - ६

आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

       पिछली चर्चा में हमने समझा कि आत्मा को कर्म करने के लिए साधन के रूप में शरीर प्राप्त होता है। आत्मा रथी है, शरीर रथ है, बुद्धि सारथी है, मन लगाम है, दश इन्द्रियाँ घोड़े हैं।
यहां अभी हम केवल इस प्रसंग को विस्तार देते है कि शरीर प्रकृति से बनता है और इसको समझने के लिए रथ के स्थान पर (आज के समय में) गाड़ी को लेते हैं ( रथ = गाड़ी ) ।
       हम गाड़ी खरीद कर लाते हैं, चलाते रहते हैं, खराव हो जाने पर मैकेनिक से ठीक करा लेते हैं और फिर चलाते रहते हैं। लेकिन एक दिन ऐसा भी आता है कि जब मैकेनिक कहता है कि अब आपकी गाड़ी ठीक नहीं होगी बहुत पुरानी हो गयी है या ठीक होने लाइक नही है अब इसे  बेचकर नयी ले लीजिए। पुरानी गाड़ी कबाडे़ वाले को देदेते हैं और नयी गाड़ी खरीद लेते हैं । अभी हम नयी गाड़ी के बारे में बात नही करेंगे , अभी देखते हैं पुरानी गाड़ी का क्या होगा। कबाड़े वाला गाड़ी को खोलकर उसके सभी हिस्सों को धातुओं के अनुसार अलग अलग इकट्ठा करता है। लोहा एक तरफ, प्लास्टिक एक तरफ, एल्मोनियम आदि धातुओं को अलग अलग रखता है। फिर कोई तो उन धातुओं को भट्टियों में डालकर शुद्ध करता है और उस उस शुद्ध धातुओं से नया सामन या गाड़ियों के पुर्जे बनाये जाते हैं । अर्थात् गाड़ी की सभी धातुएँ पुनर्चक्रण में काम आती हैं। 
      अब हम शरीर को देखेंगे कि यह शरीर भी गाड़ी की तरह से है क्या? तो हम पायेंगे कि बिल्कुल गाड़ी की तरह ही है। 
        यह शरीर भी खरीदा जाता है इसे खरीदने के लिए कर्म रूपी धन देना पड़ता है। अर्थात् हमारे कर्मों के आधार पर ही हमें शरीर प्राप्त होता है ।(इसकी चर्चा विस्तार से आगे लिखेंगे।) इस शरीर को चलाते रहते हैं तथा खराब होने पर इसे भी गाड़ी की तरह मैकेनिक (डाक्टर) से ठीक कराते रहते हैं । एक दिन इसका मैकेनिक - डाक्टर भी हाथ खड़े कर देता है, और कहता है कि इसे ले जाओ अब यह ठीक नही होगा/होंगे ( वो कोई भी हो सकते हैं हमारे सम्बन्धी) तब हम उन्हें अपने घर ले आते हैं । 
      यहां एक बात बताना बहुत ही आवश्यक है = वृद्धावस्था में उपरोक्त स्थिति बनने पर - जिनकी सन्तान संस्कारित होती है तो अपने वृद्धों की सेवा करती है तथा जिनकी सन्तान संस्कारित नही होती है उनको इस स्थिति से गुजरने पर बहुत कष्ट होता है। इसीलिए वक्त रहते सन्तान को संस्कारित अवश्य करना चाहिए। अपनी बात को और स्पष्ट करने के लिए यहाँ हम दो उदाहरण रखते हैं -

१. एक वृद्ध व्यक्ति ऐसी स्थिति में आगये जिनके लिए डाक्टर ने कह दिया कि अब हम इनका उपचार नही कर सकते, इनको घर ले जाइए और इनकी सेवा कीजिए ये ऐसी स्थिति में हैं कि कुछ दिन के ही हैं। उनके पुत्र उनको घर पर ले गये और सेवा तो पहले से ही कर रहे थे लेकिन अब उन्होंने अपने पिता की सेवा में कुछ ऐसा किया कि उदाहरण बन गया और सभी देखने वालों ने कहा कि हे परमेश्वर ! ऐसी सन्तान सभी को देना। उन्होंने अपने पिता जी की सेवा में घर पर ही वे सारे साधन एकत्रित कर लिए जो एक अच्छी गुणवत्ता वाले चिकित्सालय के आई०सी०यू० में होते हैं, दो डाक्टर लगाये जो एक एक करके दिन रात आवश्यक सेवा देते रहे, इसके साथ साथ पुत्र, पुत्रवधू तथा पुत्रियाँ बारी-बारी से हर समय पिता की सेवा में लगे रहे। परिवारी जनों का बस एक ही उद्देश्य था कि पिता जब तक रहें सुख से रहें। इस उदाहरण को बताने में मुझे भी बहुत अच्छा लगता है क्योंकि यह परिवार मेरे भी निकट है , मेरा यजमान परिवार है उनका नाम है श्री रविन्द्र सिंह चौहान। इनके लिए परमेश्वर से प्रार्थना है कि सदा सुखी रहें, हमेशा वेद मार्ग के अनुगामी रहें।

२. दूसरा उदाहरण नेपाल का है - इस उदाहरण को पढ़कर आप कहेंगे कि हे प्रभो ऐसी सन्तान किसी को नही देना। नेपाल के एक चिकित्सालय में एक फोन आता है कि नौकर के साथ के एक वृद्ध व्यक्ति आरहे हैं उनकी चिकित्सा कीजिए । चिकित्सक वृद्ध व्यक्ति का उपचार आरम्भ कर देते हैं अवस्था कुछ ऐसी थी उनकी दो दिन बाद मृत्यु हो गयी । ध्यान देने की बात यह है जिसने चिकित्सालय में वृद्ध का उपचार कराने के लिए फोन किया था वह उन वृद्ध का बेटा ही है लेकिन देखने तक नहीं आता है और अपने पिता की मृत्यु के बाद भी डाक्टर को फोन पर कहता है कि इनकी अन्त्येष्टि भी करा देना हम आपको उसका भी पैसा देदेंगे।
समाज में संस्कार हीनता बढ़ती जा रही है इसके बढ़ते अभी और अधिक भयानक परिमाण सामने आयेंगे। समाज में नैतिकता का वातावरण तैयार करने के लिए केवल संस्कार की साधन हैं।
        आइये फिर हम अपने प्रसंग पर आते हैं - एक दिन शरीर को छोडकर आत्मा जब चला जाता है तब दो प्रश्न उपस्थित होते हैं कि आत्मा कहां गया? और इस मृत शरीर का क्या करें? ( आत्मा अपने कर्मों के आधार पर परमेश्वर की न्याय व्यवस्था में आगे गति करता है या तो नये शरीर को प्राप्त करता है या मुक्ति में चला जाता है। जिसकी चर्चा आगे करेंगे ।) मृत शरीर के लिए वेद में आदेश है - भस्मान्तं शरीरं (यजु०) मृत शरीर का अन्त्येष्टि कर्म करना होता है इसे ही नरमेध, पुरुषमेध, नरयाग, पुरुषयाग तथा दाह कर्म कहते हैं। मृत शरीर को अग्नि में रख दिया जाता है और अग्नि इस शरीर के सभी पांचों तत्वों (अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश)  को अलग अलग कर देती है । अग्नि अपना भाग ले लेती है, जल वाष्प बनाकर अलग कर देती है , वायु का भाग वायु में मिल जाता है, आकाश का भाग आकाश में मिल जाता है तथा जो पड़ा रह जाता है वह भूमि का भाग है इसीलिए प्राचीन काल में अस्थियों को भूमि में गाड़ा जाता था । अस्थियों को नदियों में विसर्जित करना कुप्रथाहै। इसीलिए एक बात समाज में प्रचलित है कि अमुख व्यक्ति पंच तत्व में विलीन हो गया ।
         अस्थियों से आत्मा का अब कोई सम्बन्ध नहीं रहा जाता है। अस्थियों के नदी में विसर्जित करने से आत्मा की गति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। आत्मा तो अपने कर्मों के आधार पर आगे की गति करता है । यदि ऐसा हो कि केवल अस्थियों के नदियों में विसर्जित करने से ही मुक्ति मिल जाय तो किये गये कर्मों का क्या औचित्य रह जायेगा।

क्रमशः ...

बुधवार, 18 दिसंबर 2019

आध्यात्मिक चर्चा - ५

अध्यात्मिक चर्चा - ५
आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री


पिछली चर्चा में हमने समझा कि आत्मा (जीव) एक अविनाशी और अनादि तत्व है इसका जन्म-मृत्यु नहीं होता है । आत्मा परमात्मा से पृथक सत्ता है। शरीर और आत्मा के संयोग का नाम जन्म कहलाता है और शरीर और आत्मा के साथ साथ चलने का नाम जीवन है तथा शरीर और आत्मा के वियोग का नाम मृत्यु है । शरीर छोड़ने पर आत्मा की क्या गति होती है इस पर आगे चर्चा करेंगे । इस चर्चा में अभी हम शरीर को समझेंगे।
     शरीर के बारे में सामान्यतः एक बात प्रचलित है कि शरीर तो पांच तत्वों - अग्नि, जल , वायु, पृथ्वी और आकाश से बना हुआ है। 
शरीर को ठीक से समझने के लिए आइये कुछ चिन्तन करते हैं। शरीर विज्ञान के ज्ञाता प्राचीन आयुर्वेदाचार्य महर्षि चरक ने अपने शिष्यों को शरीर के विषय में समझाने के लिए एक इतिहास में हुई शरीर विज्ञान की चर्चा सुनाई । एक बार हिमालय के पास हुई परिषद में अनेक महर्षि सम्मिलित हुये। परिषद का विषय - "शरीर और शरीर के रोगों का कारण क्या है?"  था। तथा परिषद के अध्यक्ष भगवान आत्रेय बनाये गये। सर्व प्रथम काशीपति वामक ने उपरोक्त प्रश्न को सभा में रखा जिसपर विभिन्न विद्वानों ने अपने विचार दिये। जिसमें ऋषि कांकायन ने कहा कि शरीर और शरीर के रोगों का कारण परमात्मा है। परमात्मा ही शरीर देता है तथा वही स्वास्थ्य और रोग देता है। इस पर महर्षि भरद्वाज ने इसका कारण स्वाभाविक होना बताया। भद्रकाप्य ने कर्म को, ऋषि हिरण्याक्ष ने धातुओं को तथा ऋषि कौशिक ने माता-पिता को शरीर और शरीर के रोगों का कारण कहा। सभी के विचारों को सुनने के बाद सभाध्यक्ष महर्षि भगवान आत्रेय ने काशिपति के उक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि केवल आहार ही शरीर का कारण होता है और अहितकर आहार का उपयोग ही रोग और रोगों की वृद्धि का कारण होता है। 
       यह बात अधिक ध्यान देने योग्य है कि शरीर आहार (भोजन) से बना है । इस बात पर पुनः शिष्यों ने आचार्य चरक से पूछा कि शरीर आहार से कैसे बना है तो उत्तर में आचार्य चरक कहते हैं कि शरीर का निर्माण माता के गर्भ में होता है और बहुत ही छोटा होता है (लगभग सरसों के दाने के समान छोटा) यह छोटा सा शरीर माता और पिता के रज और शुक्र से मिलकर बनता है तथा रज और शुक्र आहार (भोजन) से बनता है। 
शरीर का विज्ञान समझाते हुए आचार्य कहते हैं कि आहार( जो भी भोजन के रूप में ग्रहण किया जाता है ) से रस बनता है, रस से रक्त बनता है, रक्त से मांस बनता है, मांस से मेद बनता है, मेद से अस्थि (हड्डी) बनती है, अस्थि से मज्जा तथा मज्जा से रज और वीर्य बनता है जिससे सन्तान का शरीर बनता है।
      माता के गर्भ में सन्तान के शरीर का विकास माता के किये भोजन से होता है। परमेश्वर की व्यवस्था में गर्भस्थ शिशु की नाभि माता की नाभि से जुड़ जाती है और उसी से उसका पोषण होता है। माता के किये भोजन का एक हिस्सा रस बनकर गर्भस्थ शिशु का निर्माण करता है।
      जन्म के बाद कुछ समय तक शिशु का पोषण माता का दुग्ध पान करके होता है और वह दुग्ध माता के आहार से बनता है। हमारा शरीर भोजन से ही बनता है और भोजन से ही चलता है।
   अभी तक हमने समझा कि शरीर का निर्माण भोजन से हुआ है और अब समझेंगे कि भोजन का निर्माण पांच तत्वों से ही होता है। भोजन में ठोस पदार्थ पृथ्वी का हिस्सा है, तरल पदार्थ जल का है, उर्जा अग्नि का, गैसीय पदार्थ वायु का व खाली स्थान आकाश का हिस्सा है। यदि हम दर्शन की बात करें तो कहा जा सकता है कि भोजन में जो गन्ध है वह पृथ्वी से आती है क्योंकि "गन्धवती पृथ्वी " अर्थात् पृथ्वी का गुण है गन्ध, और रस जल से आया है, रंग अग्नि का गुण है । अर्थात् शरीर भोजन से बना है और भोजन प्राकृतिक तत्वों से बना है।
          लेकिन यहां एक बात और ध्यान देने योग्य है कि पांचों तत्व तो मिट्टी और लकड़ी आदि में भी हैं तो क्या हम मिट्टी या लकड़ी आदि खा सकते है शरीर बनाने या चलाने के लिए? तो इसका उत्तर होगा कि नहीं। जबकि कुछ जीव परमेश्वर ने ऐसे भी बनाये है जो मिट्टी या लकड़ी आदि खाकर जीवन चलाते हैं। इस विषय में यहां तो बस इतना ही कहेंगे कि मनुष्य को बहुत अच्छे से यह जानकर कि क्या खाना चाहिए और क्या नही खाना चाहिए हितकारी भोजन ही करना चाहिए । जिससे हमें हानि हो वह पादार्थ सेवन नहीं करना चाहिए (इस विषय पर विस्तार से कभी चर्चा करेंगे)‌।
   अभी हमने आयुर्वेद के आधार पर यह जाना कि हमारा शरीर भोजन से बना है और भोजन पांच तत्वों - अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश से मिलकर बना है।
     यमाचार्य शरीर के विषय में नचिकेता को समझाते हैं - 

आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।

इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी, समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, रथ हांकने वाला, और मन को लगाम समझो ।

इंद्रियाणि ह्यानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।।

मनीषियों, विवेकी पुरुषों, ने इंद्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इंद्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं, इन्द्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने भोग करने वाला बताया है ।
प्राचीन भारतीय विचारकों का चिंतन प्रमुखतया आध्यात्मिक प्रकृति का रहा है । ऐहिक सुखों के आकर्षण का ज्ञान उन्हें भी रहा ही होगा । किंतु उनके प्रयास रहे थे कि वे उस आकर्षण पर विजय पायें । उनकी जीवन-पद्धति आधुनिक काल की पद्धति के विपरीत रही । स्वाभाविक भौतिक आकर्षण से लोग स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करें ऐसा वे सोचते रहे होंगे और उपनिषद् आदि ग्रंथ उनकी इसी सोच को प्रदर्शित करते हैं ।
उनके दर्शन के अनुसार अमरणशील आत्मा शरीर के द्वारा इस भौतिक संसार से जुड़ी रहती है और यहां के सुख-दुःखों का अनुभव मन के द्वारा करती हैं । मन का सम्बन्ध बाह्य जगत् से इन्द्रियों के माध्यम से होता है । दर्शन शास्त्र में दस इन्द्रियों की व्याख्या की जाती हैः पाँच ज्ञानेन्द्रियां (आंख, कान, नाक, जीभ तथा त्वचा) और पाँच कर्मेन्द्रियां (हाथ, पांव, मुख, मलद्वार तथा उपस्थ यानी जननेद्रिय, पुरुषों में लिंग एवं स्त्रियों में योनि)।  उक्त श्लोकों के अनुसार क्या कर्तव्य है और क्या नहीं का निर्धारण बुद्धि करती है और मन तदनुसार इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है । इन श्लोकों का सार यह है: भौतिक भोग्य विषयों रूपी मार्गों में विचरण करने वाले इंद्रिय रूपी घोड़ों पर मन रूपी लगाम के द्वारा बुद्धि रूपी सारथी नियंत्रण रखता है ।
यमाचार्य ने शरीर को रथ कहा है इससे अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं जैसे - 
आत्मा को रथ प्राप्त कैसे होता है? 
रथ बनता कैसे है? 
रथ चलता कैसे है? 
रथ से जाना कहां हैं? 
इन प्रश्नों के उत्तर में अभी तो बस इतना ही कहना होगा (विस्तार से आगे चर्चा होगी)- 
आत्मा को रथ (शरीर) कर्मों के आधार पर प्राप्त होता है।
रथ (शरीर) प्राकृतिक पदार्थों से बनता है।
रथ (शरीर) को आत्मा चलाती है। आत्मा बुद्धि पूर्वक मन को इन्द्रिय के साथ जोड़कर कर्म करती है। शरीर साधन है।
रथ (शरीर) रूपी साधन से आत्मा को परमेश्वर के आनन्द को प्राप्त करना है । 
शरीर के सन्दर्भ में उपरोक्त विषयों पर आगे विस्तार से चर्चा करेंगे।
क्रमशः ...

शनिवार, 7 दिसंबर 2019

आध्यात्मिक चर्चा - ४

आध्यात्मिक चर्चा - ४
आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

आज हम नचिकेता के प्रश्न (शरीर के मरने के बाद आत्मा की क्या गति होती है?) पर यमाचार्य के उत्तर का विश्लेषण करेंगे। यमाचार्य नचिकेता को आत्मज्ञान के सन्दर्भ में उपदेश करते है -

न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥

यमाचार्य नचिकेता के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि (न हन्यते हन्यमाने शरीरे ) शरीर के मरने के बाद आत्मा नहीं मरता है । वैसे तो संक्षेप में यह उत्तर हो गया लेकिन इतने उत्तर से काम नहीं चलेगा इसीलिए आगे कहते हैं कि (न जायते न म्रियते ) आत्मा न जन्म लेता है और न ही मरता है । ऐसा कहने पर पुनः नया प्रश्न उपस्थित होता है कि संसार में तो जन्म और मृत्यु देखने में आता है और यमाचार्य कह रहे हैं कि आत्मा का जन्म - मृत्यु नही होता है। इस प्रसंग को इस प्रकार समझेंगे कि संसार में ऐसी बहुत सी घटनायें होती है जो होती तो कुछ हैं और कही कुछ जाती हैं । जैसे रेलगाड़ी में यात्रा करने वाला एक दूसरे से कहता है कि देखना भाई कौन सा स्टेशन आगया और उत्तर देने वाला भी कह देता है कि अमुख स्टेशन आगया जबकि प्रश्न भी गलत है और उत्तर भी गलत है क्योंकि स्टेशन नही आता है यात्री स्टेशन पहुंचते हैं इसीलिए यह कहना चाहिए कि हम कौन से स्टेशन पहुंच गये या गाड़ी कौन से स्टेशन पहुंच गयी और उत्तर देने वाला कहना चाहिए कि हम या गाड़ी अमुख स्टेशन पहुंच गये।
     एक और उदाहरण लेते हैं - हम यदि यह प्रश्न करें कि क्या सूर्य - उदय अस्त होता है तो कुछ लोग कहेंगे कि सूर्य उदय - अस्त होता है और कुछ लोग कहेंगे कि सूर्य उदय अस्त नहीं होता है और कुछ तो कहेंगे कि उदय अस्त होते दिखाई नहीं देता है क्या। लेकिन यथार्थ तो यही है सूर्य का उदय और अस्त कभी नहीं होता है लेकिन पृथ्वी के घूमने के कारण सूर्य का उदय अस्त दिखाई देता है वैसे ही जैसे गाड़ी में चलने वाले व्यक्ति को वृक्ष पीछे की ओर दौड़ते दिखते हैं। इसी प्रकार आत्मा का जन्म मृत्यु नही होता आत्मा शरीर में आजाती है तो जन्म सा दिखाई देता है और आत्मा शरीर को छोड़कर चली जाती है तो मृत्यु सी दिखाई देती है। अर्थात् आत्मा और शरीर के संयोग का जन्म है तथा आत्मा और शरीर के वियोग का नाम मृत्यु है। अभी हम आत्मा के विषय में समझ रहे हैं आगे हम शरीर के बारे में विस्तार से जानेंगे।
आत्मा की अमरता के विषय में योगेश्वर श्री कृष्ण जी महाराज अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं -

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।

     आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, जल गला नहीं सकता और वायु सूखा नहीं सकता । अर्थात् आत्मा को किसी भी साधन से नष्ट नहीं किया जा सकता है। आत्मा एक अविनाशी और अनादि तत्व है।
आत्मा के बारे में एक बात अधिक जानने योग्य है ( जो ऐसा मानते हैं कि आत्मा तो परमात्मा में से बनती है, उनको यह बात अधिक ध्यान देकर समझनी चाहिए) यमाचार्य कहते हैं आत्मा किसी कारण से उत्पन्न नहीं हुआ है अर्थात् इसका कोई उपादान कारण नही है‌। आत्मा किसी में से बना नही है और ना ही इसमें से कुछ बनेगा। 
इस विषय पर योगेश्वर श्री कृष्ण महाराज की बात बहुत प्रासंगिक लगती है वे कहते हैं कि -

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्‌ ॥ 

  ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं किसी भी समय में नहीं था, या तू नहीं था अथवा ये समस्त राजा नहीं थे और न ऐसा ही होगा कि भविष्य में हम सब नहीं रहेंगे। अर्थात् हम पहले भी हमेशा थे और आगे भी हमेशा रहेंगे।
ऋग्वेद में अविनाशी व अनादि तत्वों के बिषय इस प्रकार कहा है -

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते |
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति || 

( द्वा ) जो ब्रह्म और जीव दोनों ( सुपर्णा ) चेतनता और पालनादि गुणों से सदृश ( सयुजा ) व्याप्य - व्यापक भाव से संयुक्त ( सखाया ) परस्पर मित्रतायुक्त , सनातन अनादि हैं ; और ( समानम् ) वैसा ही ( वृक्षम् ) अनादि मूलरूप कारण और शाखारूप कार्ययुक्त वृक्ष अर्थात जो स्थूल होकर प्रलय में छिन्न - भिन्न हो जाता है , वह तीसरा अनादि पदार्थ ; इन तीनों के गुण , कर्म और स्वभाव भी अनादि हैं । ( तयोरन्यः ) इन जीव और ब्रह्म में से एक जो जीव है , वह इस वृक्षरूप संसार में पाप पुण्य रूप फलों को ( स्वाद्वत्ति ) अच्छे प्रकार भोगता है , और दूसरा परमात्मा कर्मों के फलों को ( अनश्नन् ) न भोगता हुआ चारों ओर अर्थात् भीतर-बाहर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है । जीव से ईश्वर , ईश्वर से जीव और दोनों से प्रकृति भिन्न-स्वरूप तीनों अनादि हैं ।

यमाचार्य आत्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं - (न) नहीं (जायते)उत्पन्न होता है (न) नहीं (म्रियते) मरता है (वा) या (विपश्चित) चेतनरूप, मेधावी  (अयम्) यह (कुतश्चित्) कहीं से किसी उपादान कारण से (न, बभूव) उत्पन्न नहीं हुआ (कश्चित्) कोई (इससे भी उत्पन्न नहीं हुआ)  (अजः) जन्म नहीं लेता (नित्यः) नित्य (शाश्वत:) अनादि हमेशा रहनेवाला (अयम्) यह (पुराणः) सनातन है (शरीरे) शरीर के (हन्यमाने) नाश होने पर (न, हन्यते)नष्ट नहीं होता ॥
अभी तक हमने समझा कि आत्मा (जीव) एक अविनाशी और अनादि तत्व है इसका जन्म-मृत्यु नही होता है । शरीर और आत्मा के संयोग का नाम जन्म कहलाता है और शरीर और आत्मा के साथ साथ चलने का नाम जीवन है तथा शरीर और आत्मा के वियोग का नाम मृत्यु है । आगे हम शरीर को समझेंगे।
क्रमशः ...

रोग प्रतिरोधक क्षमता वर्धक काढ़ा ( चूर्ण )

रोग_प्रतिरोधक_क्षमता_वर्धक_काढ़ा ( चूर्ण ) ( भारत सरकार / आयुष मन्त्रालय द्वारा निर्दिष्ट ) घटक - गिलोय, मुलहटी, तुलसी, दालचीनी, हल्दी, सौंठ...