बुधवार, 12 फ़रवरी 2020

आध्यात्मिक चर्चा - १२

आध्यात्मिक चर्चा -१२ 
                   आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

        पिछली चर्चा में हमने समझा कि हमारे जन्म, मृत्यु, जीवन और सुख-दुःख का आधार कर्म है । इसीलिए वेद और वैदिक साहित्य कर्म करने का उपदेश करता है। 
        योगेश्वर श्री कृष्ण महाराज कर्म के सन्दर्भ में उपदेश करते हैं -

कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन । 
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।। 
( कर्मणि ) कर्म में ( एव ) ही ( अधिकारः ) अधिकार ( ते ) तेरा ( मा ) न कि ( फलेषु ) फलों में ( कदाचन ) कभी भी या कतई ( मा ) मत/नहीं ( कर्मफलहेतुः )  कर्म के फलों का कारण ( भूः ) होवो ( मा ) मत/नहीं ( ते ) तेरा ( सङ्गः ) संग/साथ ( अस्तु ) हो ( अकर्मणि ) अकर्म में।
      अर्थात् तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसीलिए तू फल की दृष्टि से कर्म मत कर और न ही ऐसा सोच फल की आशा के बिना कर्म क्यों करूं।
     ध्यान दीजिए - यहां कहा गया है कि कर्म में अधिकार है फल में नहीं । क्योंकि फल तो परमेश्वर प्रदान करेगा। भावार्थ में हम यह भी समझ सकते हैं कि फल तो निश्चित मिलेगा ही इसीलिए कर्म कीये जा। यहां यह भी स्पष्ट किया है कि कहीं इसका अर्थ यह न लेना कि जब फल में अधिकार नहीं तो ( अकर्म ) कर्म भी ना करें । अर्थात् अकर्म से तेरा काम नही चलेगा कर्म ही एक कल्याण का पथ है।

कर्मणा जायते सर्वं कर्मैव गति साधनम्।
तस्मात् सर्व प्रयत्नेन साधु कर्म समाचरेत।। (वि०पु०)
        कर्म द्वारा ही सब कुछ उत्पन्न होता है और कर्म ही आगे बढ़ने का साधन है। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह यथाशक्ति अच्छा कर्म ही करे।

गोस्वामी तुलसीदास जी अनेक स्थानों पर कर्म को ही जीवन का आधार लिखते है लेकिन कहीं कहीं पर कुछ विरोधी भी लिखते हैं। इस तरह की विरोधी विचारधारा से समाज पर बुरा प्रभाव पड़ता है लोगों में अकर्मण्यता आती है। 

कर्म प्रधान विश्व रचि राखा । 
जो जस करहि सो तस फल चाखा ॥ 

सकल पदारथ हैं जग मांही।
कर्म हीन नर पावत नाहीं।।

उपरोक्त विचारों में कर्म का वैदिक सिद्धान्त है । संसार में कर्म ही प्रधान है , कर्मों का फल सबको भोगना पड़ता है। संसार में सब कुछ कर्मों से ही प्राप्त होता है अकर्मण्य को कुछ भी प्राप्त नहीं होता है। 
  ध्यान दीजिए - निम्नलिखित चौपाई से उपरोक्त सिद्धान्त का विरोध होता है -

होइहि सोइ जो राम रचि राखा। 
को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
       जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे। 
    इस प्रकार के विरोधी विचारों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करना चाहिए। जिनसे अकर्मण्यता बढ़ती है।
आइये ऐसे ही कुछ विचारों को आपके सम्मुख रखते हैं। आप स्वयं यह विचार कीजिए कि इन विचारों से समाज कर्मशील बनेगा या अकर्मण्य बनेगा।

तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए।
अनहोनी होनी नही, होनी हो सो होए॥
        तुलसीदास जी कहते हैं, भगवान राम पर विश्वास करके आराम करो, इस संसार में कुछ भी अनहोनी नहीं होगी और जो होना उसे कोई रोक नहीं सकता। 
क्या संसार में चोरी, व्यभिचार और अत्याचार होना ही था ? 
और क्या इन अपराधों को रोका जा सकता है ? 
     यदि हम तुलसीदास जी की बात मानें तो अत्याचार और बढ़ेगा और वैदिक कर्म दर्शन को समझ लें तो अत्याचार को रोकने का पुरुषार्थ किया जायेगा।

 अजगर करे ना चाकरी पंछी करे ना काम,
दास मलूका कह गए सब के दाता राम
        अजगर को किसी की नौकरी नहीं करनी होती और पक्षी को भी कोई काम नहीं करना होता, ईश्वर ही सबका पालनहार है, इसलिए कोई भी काम मत करो ईश्वर स्वयं देगा। आलसी लोगों के लिए श्री मलूकदास जी का ये कथन बहुत ही उचित है।
    उपरोक्त विचारों को अच्छे से अध्ययन करने के बाद सारांश में यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि कर्म ही जीवनों का आधार है। अवैदिक प्रदूषित विचारों से व्यक्ति का अकर्मण्य और अत्याचारी होना निश्चित है। वैचारिक क्रान्ति के लिए वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार होना आवश्यक है।
      आगे के लेख में हम विस्तार से लिखेंगे -
कर्म क्या है ?
कर्म कौन करता है ?
कर्म के साधन ?
कर्म कैसे होता है ?
कर्म के प्रकार ?
कर्म के परिणाम-प्रभाव-फल ?

क्रमशः ...


शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2020

आध्यात्मिक चर्चा - ११

आध्यात्मिक चर्चा - ११
                    आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

हमारे जन्म, मृत्यु, जीवन और सुख-दुःख का आधार कर्म है । 
इसीलिए वेद कर्म करने का उपदेश करता है - 

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा:।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।। ( यजुर्वेद )

       मनुष्य (इह) इस संसार में (कर्माणि) धर्मयुक्त वेदोक्त निष्काम कर्मों को (कुर्वन्) करता हुआ (एव) ही ( शतम्) सौ (समाः) वर्ष (जिजीविषेत्) जीवन की इच्छा करे (एवम्) इस प्रकार धर्मयुक्त कर्म में प्रवर्तमान (त्वयि) तुझ (नरे) व्यवहारों को चलानेहारे जीवन के इच्छुक होते हुए (कर्म) अधर्मयुक्त अवैदिक काम्य कर्म (न) नहीं ( लिप्यते) लिप्त होता (इतः) इस से जो ( अन्यथा) और प्रकार से (न, अस्ति) कर्म लगाने का अभाव नहीं होता है।
       अर्थात् मनुष्य आलस्य को छोड़कर सब देखनेहारे न्यायाधीश परमात्मा और करने योग्य उसकी आज्ञा को मानकर शुभ कर्मों को करते हुए अशुभ कर्मों को छोड़ते हुए ब्रह्मचर्य के सेवन से विद्या और अच्छी शिक्षा को पाकर उपस्थ इन्द्रिय के रोकने से पराक्रम को बढ़ाकर अल्पमृत्यु को हटावे, युक्त आहार विहार से सौ वर्ष की आयु को प्राप्त होवें। जैसे जैसे मनुष्य सुकर्मों में चेष्टा करते हैं वैसे ही पाप कर्म से बुद्धि की निवृत्ति होती है और विद्या, अवस्था और सुशीलता बढ़ती है। 

शुभाशुभफलं कर्म मनोवाग्देहसंभवम्। 
कर्मजा गतयो नॄणामुत्तमाधममध्यमाः।। ( मनु० ) 

( मनः वाक्-देह संभवम् कर्म ) मन, वचन और शरीर से किये जाने वाले कर्म ( शुभ-अशुभ-फलम् ) शभ-अशुभ फल को देने वाले होते हैं ( कर्मजा-नॄणाम् ) और उन कर्मों के अनुसार मनुष्यों की ( उत्तम-अधम-मध्यमाः गतयः ) उत्तम, मध्यम और अधम ये तीन गतियां=जन्मवस्थायें होती हैं। 

   सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः । ( योगदर्शन )

 (मूले) मूलकारण के (सति) विद्यमान होने पर ही (तद्विपाक:) पुण्य-पाप रूप कर्माशय का फल (जात्यायुर्भोगा:) जन्म, आयु तथा भोग होता है।।
जन्म का नाम “जाति” 
जीवनकाल का नाम “आयु” 
और सुख दुःख के हेतु शब्दादि विषयों की प्राप्ति का नाम “भोग” है, 
यह तीनों पुण्य-पाप रूप कर्माशय का फल होने से “कर्मविपाक” कहलाते हैं।। 

       उपरोक्त प्रमाणों से आप समझ ही गये होंगे कि सम्पूर्ण जीवनों का आधार कर्म ही है। इसीलिए वेद कर्म करने का आदेश देता है, लेकिन यहां ऐसे बहुत लोग हुए हैं जिन्होंने संसार को निकम्मा बनने का उपदेश किया है ,जिसकी चर्चा आगामी लेख में करेंगे।

क्रमशः ...


रोग प्रतिरोधक क्षमता वर्धक काढ़ा ( चूर्ण )

रोग_प्रतिरोधक_क्षमता_वर्धक_काढ़ा ( चूर्ण ) ( भारत सरकार / आयुष मन्त्रालय द्वारा निर्दिष्ट ) घटक - गिलोय, मुलहटी, तुलसी, दालचीनी, हल्दी, सौंठ...