शुक्रवार, 12 जुलाई 2019

सैद्धान्तिक चर्चा २१

सैद्धान्तिक चर्चा २१.                  "ईश्वर सिद्धि"

आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री ( वैदिक प्रवक्ता)

        सर्व प्रथम प्रश्न यह है कि ईश्वर नाम की कोई सत्ता है भी या नहीं। यद्यपि संसार के अधिकतम लोग ईश्वर में विश्वास रखते हैं। ( यद्यपि इन में ईश्वर के स्वरूप व कर्तव्य को लेकर अतीव मत भिन्नता है) पर ऐसा प्रतीत होता है कि वे केवल परम्परावश ऐसा मानते हैं । यही कारण है कि विभिन्न उपासना पद्धति का अवलम्बन करने वाली नई पीढ़ी से ईश्वर सम्बन्धी प्रश्न किए जाते हैं तो शीघ्र ही यह सामने आ जाता है कि ईश्वर की सत्ता में इनका दृढ़ विश्वास नहीं है और जब दृढ़ विश्वास ही नहीं है तो ईश्वर उपासना एवं ईश्वर प्राणिधान के कोई मायने नहीं रह जाते अत एव ईश्वर की सत्ता में अटूट विश्वास होना अत्यन्त आवश्यक है यह अटूट विश्वास ही परहित हेतु स्वयं का सर्वस्व निछावर कर देने की उदात्त भावना का आधार है।
        ईश्वर का प्रत्यक्ष कैसे हो ?
       कुछ लोग ईश्वर का अस्तित्व इसीलिए नहीं मानते क्योंकि वह आंखों से दिखाई नहीं देता है। अर्थात्‌ जो पदार्थ आंखों से दिखाई देता है उसी का अस्तित्व माना जा सकता है। पर क्या यह अभिकथन सही है? तनिक भी गम्भीरता पूर्वक विचार करते हैं तो इस दावे की पोल खुल जाती है संसार में अनेकानेक ऐसे पदार्थ हैं जो दिखाई नहीं देते परन्तु उनका अस्तित्व निर्विवाद है।
        विचार करें निम्न परिस्थितियों में हमें वस्तुएं दिखाई नहीं देती हैं परन्तु क्या हम उनके अस्तित्व से इन्कार कर सकते हैं ? कदापि नहीं।
       इसी प्रकार का प्रसङ्ग साङ्ख्य दर्शन में आया है - "विषयोऽविषयोऽप्यतिदूरादेर्हानोपादानाभ्यामिन्द्रियस्य" (१/६३)
(विषयःअपि) विषय भी (इन्द्रियस्य) इन्द्रिय का ( अविषयः) अविषय है (अतिदूरादेः) अतिदूर आदि (कारण) से (हानोपादानाभ्यां)हान और उपादान से(इन्द्रिय के)।
       किसी वस्तु के अभाव को केवल इतने से निर्धारित नहीं किया जा सकता कि वह इन्द्रियों से नहीं जानी जा रही। यदि यह विचार ठीक होता की जो वस्तु इन्द्रिय द्वारा नहीं जानी जाती, उसका अभाव स्वीकार करना चाहिए तो अतीन्द्रिय प्रकृति आदि पदार्थों का अनुपलब्धि के कारण अभाव स्वीकार किया जा सकता था। परन्तु अनेक बार ऐसा होता है विद्यमान पदार्थ भी कुछ दोषों के कारण इन्द्रिय का अविषय रहता है, अर्थात् इन्द्रिय गोचर नहीं हो पाता।
   वे दोष इस प्रकार हैं =अतिदूर- कोई भी पदार्थ अति दूर होने के कारण दृष्टिगोचर नहीं होता। जैसे आकाश में दूर उड़ता हुआ पक्षी चक्षु से नहीं दीख पाता यदि वही पदार्थ ठीक दूरी पर हो तो दिख जाता है। सूत्र का आदि पद 'अतिदूर' के विरोधी 'अतिसमीप' का परामर्शक है। इसप्रकार दूसरा दोष है =अतिसमीप- अतिसमीप होने पर भी कोई वस्तु दृष्टिगोचर नहीं होती। जैसे आंख में लगाया हुआ अंजन उस आंख से नहीं दिखता। वही ठीक दूरी से अन्य आंख के द्वारा देखा जाता है। तीसरा दोष है=हान- इन्द्रिय शक्ति की हानि होना, अर्थात् इन्द्रिय की दुर्बलता, जैसे अन्धे और बधिर - रूप और शब्द का ग्रहण नहीं कर पाते। उन्हीं रूप और शब्द को वे ग्रहण कर लेते हैं जिनके चक्षु और श्रोत्र इन्द्रिय ठीक होते हैं। यह दोष इन्द्रियगत है अन्य दोष विषतगत हैं। चौथा दोष =उपादान- इन्द्रिय और विषय के मध्य में किसी अन्य वस्तु का उपस्थित हो जाना अर्थात् किसी भी मूर्तिमान वस्तु का व्यवधान। जैसे दीवार आदि के परे की विद्यमान वस्तु भी दृष्टिगोचर नहीं होती। वही वस्तु मध्य में दीवार न होने पर दिख जाती है। यह सब दोष ऐसे विषयों में लागू होते हैं जो किसी समय इन्द्रिय गोचर होते हों। इसीलिए यह नहीं कहा जा सकता कि जो पदार्थ एक समय नहीं दिख रहा उसका तो अस्तित्व नहीं है।
      सर्वथा अतीन्द्रिय प्रकृति आदि पदार्थों की अनुपलब्धि में इन दोषों को बाधक नहीं कहा जा सकता क्योंकि प्रकृति आदि पदार्थ कभी दृष्टिगोचर नहीं होते तब उनकी अनुपलब्धि उनके अभाव की ही साधक समझी जानी चाहिए।
सूत्रकार कहता है -
सौक्ष्म्यात्तदनुपलब्धिः।।(सांख्य१/७४)
सौक्ष्म्यात् तदनुपलब्धिः = (तदनुपलब्धिः) प्रकृति आदि की अनुपलब्धि (सौक्ष्म्यात्) सूक्ष्मता से है।
     प्रकृति की अनुपलब्धि सौक्ष्म्य के कारण होती है जगत के मूल कारण सत्व-रजस्-तमस् अतिशय अणुरूप होने के कारण अति सूक्ष्म होते हैं उनका ग्रहण करना इन्द्रियों की शक्ति से परे है। जब इन्द्रियां उन्हें ग्रहण ही नहीं कर सकती तब इन्द्रियों के द्वारा उनकी अनुपलब्धि उनके अभाव का साधक नहीं कही जा सकती।
  सूक्ष्म होने के कारण यदि इन्द्रियों से प्रकृति की अनुपलब्धि उसके अभाव की साधक नहीं, तो प्रकृति का ज्ञान किसी उपाय से होना चाहिए।
सूत्रकार कहता है -
कार्यदर्शनात्तदुपलब्धेः।।(सांख्य१/७५)
(कार्यदर्शनात्) कार्य ज्ञान से अथवा कार्य देखे जाने से ( तदुपलब्धेः) प्रकृति का ज्ञान हो जाने के कारण उसका अभाव नहीं ।
      प्रकृति की उपलब्धि, कार्य देखने से हो जाती है। यद्यपि प्रकृति अतीन्द्रिय पदार्थ है पर यह समस्त जड़ जगत उसका कार्य है। हम देखते हैं यहां प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक व्यवहार, प्रत्येक विचार सुख-दुख-मोहात्मक है, इस प्रकार जगत त्रिगुणात्मक सिद्ध होता है। इसमें लगातार होने वाले परिणाम को देखकर हम यह जान लेते हैं कि इसका कोई त्रिगुणात्मक मूल उपादान अवश्य होना चाहिए क्योंकि कोई परिणामी तत्व अपने मूल उपादान के बिना नहीं हो सकता, यह नियम है। इसी प्रकार त्रिगुणात्मक कार्य जगत से उसके मूल उपादान त्रिगुणात्मक प्रकृति का अनुमान हो जाता है। फलतः केवल दृष्टिगोचर न होने से प्रकृति का अभाव नहीं माना जा सकता।
अनेक आशंकावादी मूल उपादान के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की कल्पना कर सकते हैं। उस अवस्था में त्रिगुणात्मक प्रकृति के अस्तित्व का सिद्धान्त स्थिर नहीं रहता। इसी आशंका को सूत्रकार कहता है -
वादिविप्रतिपत्तेस्तदसिद्धिरिति चेत्।।(सांख्य१/७६)
(वादिविप्रतिपत्तेः) वादियों के विरुद्ध कथन से ( तदसिद्धिः इति चेत्) (मूल उपादान ) प्रकृति की असिद्धि कहो यदि।
मूल उपादान के सम्बन्ध में वादी अनेक प्रकार के कथन उपस्थित कर सकते हैं। जैसे कोई चेतन ईश्वर से जगत की उत्पत्ति कहने लगे अथवा जगत का उपादान पुरुष को बताए । इसी प्रकार कोई स्वभाव को उपादान कहे। अन्य कोई अकारण ही जगत को उत्पन्न हुआ मान ले। कोई सूक्ष्म भूतों को समस्त जगत का उपादान बतलाए। इन सब मान्यताओं के रहने पर केवल प्रकृति को उपादान कैसे माना जा सकेगा ? इसी प्रकार वादियों के द्वारा मूल उपादान के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के कल्पित बाद उपस्थित कर देने से प्रकृति की निर्भ्रान्त सिद्धि नहीं हो सकती। ऐसी आशंका होने पर सूत्रकार कहता है-
तथाप्येकतरदृष्टया एकतरसिद्धेर्नापलादः (सांख्य१/७७)
(तथापि) तो भी ( एकतरदृष्टया) कार्य ज्ञान द्वारा (एकतर सिद्धेः) कारण की सिद्धि से ( अपलापः न) 'प्रकृति का' अपलाप नही।
इन सब  कथित कल्पनाओं के होने पर भी समस्त वादियों ने कार्य कारण भाव को स्वीकार किया ही है। तब यह सिद्धान्त तो स्थिर माना जाएगा - कि एकतर कार्य के देखने से एकतर कारण की सिद्धि होती है। इस प्रकार कार्य के देखे जाने से कारण के अस्तित्व का अपलाप नहीं किया जा सकता। प्रत्येक वादी ने इस बात को निर्भ्रान्त रूप से स्वीकार किया है। कि कार्य मात्र का कोई मूल कारण अवश्य होता है।
   वह मूल कारण प्रकृति ही क्यों हो सकता है अन्य नहीं? 
सूत्र कार कहता है -
त्रिविधविरोधापत्तेश्च।।(सांख्य १/७८)
(त्रिविधविरोधापत्तेः) त्रिविधता के विरोध की आपत्ति से (च) तथा परिणामिता अचेतनता आदि के (विरोध की आपत्ति से)।
  यदि त्रिगुणात्मक प्रकृति के अतिरिक्त, अन्य ईश्वर आदि को जगत का मूल उपादान माना जाए, तो संसार में अनुभूयमान त्रिविधता के विरोध की प्राप्ति होगी। जगत के प्रत्येक पदार्थ, व्यवहार तथा भावना में त्रिगुणात्मकता देखी जाती है इससे त्रिगुणात्मक मूल कारण का अनुमान किया जा सकता है। ईश्वर आदि को मूल उपादान मानने पर जगत की दृष्टत्रिगुणात्मकता  का विरोध होगा क्योंकि ईश्वर आदि तत्व त्रिगुणात्मक नहीं हैं यदि उनको भी त्रिगुणात्मक मान लिया जाए तो शब्द मात्र का भेद होगा, मूल कारण तो त्रिगुणात्मक ही रहा। सूत्र का 'च' पद प्रकृति के परिणामी और चेतन आदि स्वरूप का संग्रह करता है। ईश्वर आदि को जगत का मूल उपादान मानने पर यथासंभव इसके परिणाम अचेतनत्व आदि का भी विरोध प्राप्त होगा।उस अवस्था में संसार परिणामी व अचेतन भी न हो सकेगा, जो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों के विरुद्ध है। इन सब कारणों से त्रिगुणात्मक प्रकृति को ही जगत का मूल उपादान स्वीकार किया जा सकता है।
इसी प्रसंग को "सांख्य कारिका" में ईश्वर कृष्ण ने इस प्रकार लिखा है -
अतिदूरात् समीप्यादिन्द्रियघातान्मेनोऽनवस्थानात्।
सौक्ष्म्याद् व्यवधानादभिभवात् समानाभिहाराच्च।। (सांख्यकारिका)
अतिदूरात् = अत्यन्त दूर होने पर - आकाश में उड़ता पक्षी।
समीप्यात् = अत्यन्त समीप होने से - आंख का काजल।
इन्द्रियघातात् = इन्द्रिय शक्ति की हानि - मोतियाबिन्द, रतौधी।
मनोऽनवस्थानात् = मन के विचलित होने पर - ध्यान कहीं अन्यत्र।
सौक्ष्म्यात् = अत्यन्त सूक्ष्म होने पर - अणु आदि।
व्यवधानात् = इन्द्रिय और विषय के बीच व्यवधान होने पर - दीवार के परे।
अभिभवात् = एक वस्तु के अभिभूत होने पर
समानाभिहारात् = किसी वस्तु के सजातीय सम्मिश्रण के कारण प्रत्यक्ष नही हो पाता।
       प्रकृति और प्रमेय अत्यन्त सूक्ष्म और समीप होने से ही प्रत्यक्ष नही हो पाता है। यद्यपि कार्य के आधार पर उनकी उपलब्धि अनुमेय है।
० देखने में सहायक पदार्थ ना होने के कारण - सूर्य के प्रकाश या अन्य कृत्रिम प्रकाश के अभाव में ।
० आंख का विषय न होने के कारण - वायु, सुगन्ध तथा संगीत आदि नहीं देखे जा सकते।
० अभौतिक पदार्थ - सर्दी, गर्मी, भूख - प्यास, दर्द आदि।
० मध्य में आए आवरण के कारण - भूमिगत रत्नादि, कमरे में दीवार के पीछे की वस्तुएं दिखाई नहीं देती है।
० कुछ गुण समान होने के कारण - दूध में पानी, गाय के दूध में भैंस का दूध।
          स्पष्ट है हर वस्तु आंखों से नहीं दीख सकती, केवल रूप गुण जिसमें है आंखों का विषय होने के कारण वही वस्तुएं दिखाई देती है परंतु ना दिखाई देने वाली वस्तुओं का भी अस्तित्व है यह निश्चित है।
        वस्तुतः जैसा वस्तु का सम्बन्ध जिस ज्ञानेन्द्रिय से है हम उसी ज्ञानेन्द्रिय से वस्तु को जानते हैं जैसे इत्र का ज्ञान नासिका से, मीठे, खट्टे, नमकीन का ज्ञान रसना से, वायु की उपस्थिति, शीतादि का ज्ञान त्वचा से, व शब्द का ध्यान कर्णेन्द्रिय से करते हैं।
         यहां यह भी स्पष्ट कर जान लेना चाहिए इन्द्रिय गोचर पदार्थ का ज्ञान ही इन्द्रियों द्वारा हो सकता है। अतीन्द्रिय पदार्थ का ज्ञान इन्द्रियों द्वारा नहीं हो सकता परन्तु ऐसा ना हो सकने मात्र से इनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। उदाहरण के लिए इन्द्रियों को ही ले लीजिए इन्हें इन्द्रियों द्वारा तो जाना नहीं जा सकता क्योंकि कोई भी दृष्टा स्वयं दृश्य नहीं हो सकता और एक इन्द्रिय से दूसरी इन्द्रियों भी नहीं जानी जा सकती क्योंकि उनके विषय भिन्न भिन्न हैं।
        आंख का विषय रूप, नासिका का गन्ध, जिह्वा का रस, त्वचा का स्पर्श और कानों का विषय शब्द है। अतः नाक - आंख को नहीं जान सकती, जिह्वा कानों को नहीं जान सकती‌। इन इन्द्रियों को भी इनसे काम लेने वाली चेतन शक्ति अनुभव से जानती है। अर्थात् जब वह रस का ज्ञान जिह्वा से प्राप्त करती है तो उसे रसनेन्द्रिय की जानकारी होती है। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के विषय में है। यही अनुभव इन्द्रियों का प्रत्यक्ष है।
      ठीक इसी प्रकार जीवात्मा बिना भौतिक इन्द्रीयों/ भौतिक करणों की सहायता से अष्टांग योग के मार्ग पर चलते हुए परमात्मा का साक्षात्कार करता है। महर्षि दयानन्द जी सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में स्पष्ट लिखते हैं - "और जब जीवात्मा शुद्धान्तःकरण से युक्त योगी समाधिस्थ होकर आत्मा और परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है तब उसको उसी समय दोनों प्रत्यक्ष होते हैं। जब परमेश्वर का प्रत्यक्ष होता है तो अनुमान आदि से परमेश्वर के जान होने में क्या संदेह है क्योंकि कार्य को देखकर के कारण का अनुमान होता है।"
इन्द्रिय प्रत्यक्ष को ही सर्वोपरि अधिमान देने का आग्रह करने वाले मनीषियों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इन्द्रियों से गुणों का प्रत्यक्ष होता है न कि गुणी का। ऋषि लिखते हैं - अब विचारना चाहिए कि इन्द्रियों और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है, गुणी का नहीं।( सत्यार्थ प्रकाश सप्तम समुल्लास) इसका तात्पर्य है कि इन्द्रियों द्वारा अपने अपने विषय की सूचना ही मन को प्रेषित की जाती है। उदाहरण के तौर पर एक व्यक्ति खस के शरबत का सेवन करता है तो रंग व तरलता की सूचना आंख द्वारा, गन्ध की सूचना नाक द्वारा, ठंडे होने की सूचना त्वचा द्वारा व मीठे होने की सूचना जिह्वा द्वारा मन को प्राप्त होने पर बुद्धि द्वारा समवेत रूप से विश्लेषण करने पर पूर्व स्मृति के आधार पर खस के शरबत का प्रत्यक्ष कर लिया ऐसा कहा जाता है। वस्तुतः प्रत्यक्ष तो भिन्न - भिन्न गुणों का ही हुआ है गुणी का नहीं । यदि यहां शरबत पीने वाले ने पूर्व में कभी इस पेय पदार्थ को  नहीं पिया हो, इस पीने की कोई स्मृति उसके पास ना हो तो वह इतना मात्र ही कहेगा कि यह तरल पेय पदार्थ जो अमुक रंग का है, मीठा, शीतल व स्वादिष्ट है। और मेजबान से पूछेगा कि यह क्या है? अर्थात् गुणों का प्रत्यक्ष होने पर भी गुणी का प्रत्यक्ष न हुआ। होता यह है कि गुण - गुणी का समवाय सम्बन्ध होने से गुणों के साथ गुणी का प्रत्यक्ष मान लिया जाता है।मन की आशु गति के कारण यह प्रक्रिया इतने वेग से होती है कि हम गुणी का ही प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं।
   सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में ऋषि दयानन्द स्पष्ट लिखते हैं - जैसे चारों त्वचा आदि इन्द्रियों से स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का ज्ञान होने से गुणी जो पृथ्वी उसका आत्मायुक्त मन से प्रत्यक्ष किया जाता है वैसे इस प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। हमारे विचार से ऋषि स्पष्ट ईश्वर प्रत्यक्ष मानते हैं।
न्याय दर्शनकार ने आठ प्रमाणों को मान्यता दी है जिनमें एक अनुमान प्रमाण है लोक में व्यवहृत अनुमान शब्द से ऐसा प्रतीत होता है कि अनुमान अत्यन्त साधारण कोटि का तर्क विहीन प्रमाण है परन्तु ऐसा नहीं है। अनुमान प्रमाण को भी किसी भी प्रकार कम करके नहीं आंका जा सकता। क्योंकि अनुमान वहीं होता है - जहां पूर्व में प्रत्यक्ष कार्य - कारण श्रंखला का ही एक घटक होने से दूसरे का निश्चय, अनुमान प्रमाण द्वारा किया जाता है। उदाहरण के तौर पर हम लोक में देखते आते हैं कि माता पिता के संयोग से पुत्र - पुत्री उत्पन्न होते हैं। अतः किसी पुत्र अथवा पुत्री को देखकर अनुमान प्रमाण के अन्तर्गत यह निश्चय से कहा जा सकता है की इनके माता-पिता भी निश्चित होंगे - फिर चाहे हमने उनके माता - पिता के दर्शन न भी किये हों। इसी प्रकार अग्नि व धूंए का साहचर्य जग प्रसिद्ध है अतः कालान्तर में धूंए को देखकर अग्नि का अनुमान किया जाता है।
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रोग_प्रतिरोधक_क्षमता_वर्धक_काढ़ा ( चूर्ण ) ( भारत सरकार / आयुष मन्त्रालय द्वारा निर्दिष्ट ) घटक - गिलोय, मुलहटी, तुलसी, दालचीनी, हल्दी, सौंठ...