शनिवार, 14 मार्च 2020

आध्यात्मिक चर्चा - १४

आध्यात्मिक चर्चा - १४
                                                            आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

       कर्म करने वाला आत्मा है और यह आत्मा मन, वाणी और शरीर से कर्म करता है। मुख्यतः कर्म दो प्रकार के होते हैं - सकाम और निष्काम ।

       महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के वेद विषय प्रकरण में परिभाषा लिखते हैं - "सब दुःखों से छूट के केवल परमेश्वर की ही प्राप्ति के लिए धर्म से युक्त सब कर्मों का यथावत् करना, यही 'निष्काम' मार्ग कहाता है, क्योंकि इसमें संसार के भोगों की कामना नहीं की जाती, इसी कारण से इसका फल अक्षय है। और जिसमें संसार के भोगों की इच्छा से धर्मयुक्त काम किये जाते हैं , उसको 'सकाम' कहते हैं, इस हेतु से इसका फल नाशवान् होता है, क्योंकि सब कर्मों करके इन्द्रिय भोगों को प्राप्त होके जन्म मरण से नहीं छूट सकता।" अर्थात् सकाम कर्म उन कर्मों को कहते हैं जो लौकिक फल ( धन , पुत्र , यश आदि ) को प्राप्त करने की इच्छा से किए जाते है । तथा निष्काम कर्म वे होते है , जो लौकिक फलों को प्राप्त करने के उद्देश्य से न किए जाए बल्कि ईश्वर / मोक्ष प्राप्ति की इच्छा से किए जाएं ।

       सकाम और निष्काम का विस्तार से अध्ययन करें तो कर्म चार प्रकार के होते हैं। योग दर्शन में कहा है - 

कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम्।। (४/७)

योगी के कर्म अशुक्ल = लौकिक पुण्य फल की कामना से रहित और अकृष्ण = पाप रहित होते हैं अर्थात् ईश्वरप्राप्तिमात्र के लिये किये गये 'निष्काम कर्म' होते हैं। योगी से भिन्न सांसारिक व्यक्तियों के शुभ, अशुभ और मिश्रित तीन प्रकार के कर्म होते हैं।
           यहां योगदर्शनकार ने कर्मों के चार प्रकार के विभाग किये हैं - 
१. शुक्ल 
२. कृष्ण 
३. शुक्ल-कृष्ण (मिश्रित)। और 
४ अशुक्ल अकृष्ण। 

० पुण्य कर्म को 'शुक्ल' कहते हैं। 
० पाप कर्म को 'कृष्ण' कहते हैं। 
० पुण्य-पाप मिश्रित कर्म को 'शुक्लकृष्ण कहते हैं। 
(उपरोक्त तीनों सकाम कर्म हैं।)
० निष्काम कर्म को 'अशुक्ल-अकृष्ण' कहते हैं।

       जो अपने और अन्यों के लिए लौकिक सुख को देते हैं , वे शुक्ल कर्म हैं। जैसे उत्तम कार्यों के लिए दान देना, निर्बलों की रक्षा करना आदि।

       जो अपने और अन्यों के लिए दुःखप्रद होते हैं, वे कृष्ण कर्म हैं। जैसे चोरी करना, अन्याय करना आदि।

       जो कर्म सुखप्रद और दुःखप्रद होते हैं वे शुक्लकृष्ण (मिश्रित) कर्म होते हैं। जैसे खेती करना, विविध बांधो का निर्माण करना आदि। क्योंकि इन कार्यों में अनेक प्राणियों को सुखदुःख दोनों की प्राप्ति होती है।

      इन कर्मों को ऐसे भी समझना चाहिए - शुक्ल कर्म जिन्हें शुभ कर्म भी कहते हैं और कृष्ण कर्म जिन्हें अशुभ कर्म भी कहते हैं। 

शुभ कर्म = शुक्ल = पुण्य = सत्कर्म = धर्म

अशुभ = कृष्ण = पाप = दुष्कर्म = अधर्म

       शुभ कर्म - जिन कर्मों से स्वयं को और दूसरों को सुख मिले। 
       अशुभ कर्म - जिन कर्मों से स्वयं को और दूसरों को दुःख मिले। 
        इनको ऐसे भी कह सकते हैं कि जो कर्म ईश्वर की आज्ञानुसार हैं वे शुभ कर्म हैं और 
          जो ईश्वराज्ञा के विरुद्ध हैं वे अशुभ कर्म हैं।

शुभ और अशुभ कर्मों को अच्छे से समझने के लिए यहां विस्तार से वर्णन किया जारहा है।

       अशुभ कर्म - महाराज मनु ने मन, वाणी और शरीर के अशुभ कर्मों का वर्णन किया है। 

० मन के तीन अशुभ (कृष्ण) कर्म होते हैं-

परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम्।
वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम्।।

( मानसं कर्म त्रिविधम् ) मन से चिन्तन किये गये अधर्म = अशुभ फलदायक कर्म तीन हैं - ( परद्रव्येषु + अभिध्यानम् ) दूसरे के धन, पदार्थ आदि को अपने अधिकार में लेने का विचार रखना, ( मनसा + अनिष्ट चिन्तनम् ) मन में किसी का बुरा करने का समय सोचना, ( च वितथ + अभिनिवेशः ) मिथ्या विचार या संकल्प करना, मिथ्या विचार या सिद्धान्त को सत्य स्वीकार करना।

० वाणी के चार अशुभ (कृष्ण) कर्म होते है-

पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः।
असंबद्धप्रलापश्च वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम्।।

( वाङ्मयं चतुर्विधं स्यात्) वाणी के अधर्म = अशुभ फलदायक कर्म चार प्रकार के ये हैं - ( पारुष्यम् ) कठोर वचन बोलकर किसी को कष्ट देना, ( च ) और ( अनृतम् ) झूठ बोलना, ( पैशुन्यम् अपि सर्वशः ) किसी की किसी भी प्रकार की चुगली करना, ( च ) और ( असम्बद्ध प्रलापः ) किसी पर मिथ्या लांक्षन या बुराई लगाना अथवा ऊल-जलूल बातें करना, अफवाहें उड़ाना आदि।

० शरीर के तीन अशुभ ( कृष्ण ) कर्म होते हैं-

अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानतः।
परदारोपसेवा च शारीरं त्रिविधं स्मृतम्।।

 ( शारीरंत्रिविधं स्मृतम् ) शरीर से किये जाने वाले अधर्म = अशुभ फलदायक कर्म तीन प्रकार के माने हैं - ( अदत्तानाम् उपादानम् ) किसी के धन या पदार्थों को स्वामी के दिये बिना चोरी, डकैती, रिश्वत आदि अधर्म के रूप में ग्रहण करना, ( च ) और ( अविधानतः हिंसा एव ) शास्त्र के द्वारा कर्तव्य के रूप में विहित हिंसाओं के अतिरिक्त हिंसा करना, [ शास्त्रविहित हिंसाएं हैं - युद्ध में शत्रु हिंसा करना, आततायी की हिंसा आदि ] ( च ) और ( परदारा + उपसेवा ) दूसरे की स्त्री से शारीरिक सम्बन्ध बनाना।

 शुभ कर्म - अशुभ कर्मों के साथ महाराज मनु शुभ कर्मों का वर्णन धर्म के लक्षणों के रूप में करते हैं-

धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।। 

( धृतिः ) कष्ट या विपत्ति में भी धैर्य बनाये रखना और दुःखी एवं विचलित न होना तथा धर्म पालन में कष्ट आने पर भी धैर्य रखकर पालन करते रहना, दुःखी होकर या विचलित होकर धर्म का त्याग न करना, ( क्षमा ) धर्म पालन के लिए निन्दा-स्तुति, मान-अपमान को सहन करना, ( दमः ) ईर्ष्या, लोभ, मोह, वैर आदि अधर्म रूप संकल्पों या विचारों से मन को वश में करके रखना,( अस्तेयम् ) चोरी, टकैती, झूठ, छल-कपट, भ्रष्टाचार, अन्याय, अधर्माचरण से किसी की वस्तु धन आदि न लेना, ( शौचम् ) तन और मन की पवित्रता रखना, ( इन्द्रियनिग्रहः ) इन्द्रियों को अपने अपने विषयों के अधर्म और आसक्ति से रोककर रखना, ( धीः ) बुद्धि की उन्नति करना, मननशील होकरबुद्धिवर्धक उपायों को करना बुद्धिनाशक नशा आदि न करना, ( विद्या ) सत्यविद्याओं की प्राप्ति में अधिकाधिक यत्न करके विद्या और ज्ञान की उन्नति करना, ( सत्यम् ) मन, वचन, कर्म से सत्य मानना, सत्य भाषण व सत्याचरण करना, आत्मविरुद्ध मिथ्याचरण न करना, ( अक्रोधः ) क्रोध के व्यवहार और बदले की भावना का त्याग कर शान्ति आदि गुणों को ग्रहण करना, ( दशकं धर्मलक्षणम् ) ये दश धर्म के लक्षण हैं । इन गुणों से धर्म पालन की पहचान होती है।

       महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज इनमें अहिंसा [ अहिंसा - सर्वथा सर्वदा सभी प्राणियों के साथ वैरभाव को छोड़कर प्रीति से वर्तना, अहिंसा है।  ] को जोड़कर धर्म के ग्यारह लक्षण बताते हैं। 

       उपरोक्त ग्यारह लक्षण शुभ कर्म हैं, धर्म हैं, पुण्य कर्म हैं इनको धारण करने से, आचरण करने से ही सभी का हित होगा। 

       इन शुभ कर्मों को योग दर्शन में यम और नियम कहा है। 

यम - अहिंसासत्यास्तरयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये यम हैं।

नियम - शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमां

शौच, सन्तोष, तपः, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान ये नियम हैं।

इन शुभ कर्मों को ही तीर्थ ( तरने का साधन ) और मानव मूल्य कहते हैं। इन गुणों को धारण करके व्यक्ति मूल्यवान होता है।

       प्राचीन वैदिक काल में इन शुभ गुणों को सभी धारण करते थे इसीलिए कहीं पर भी चोरी, डकैती, व्यभिचार, अत्याचार, भ्रष्टाचार नहीं होता था। विश्वभर में आर्यावर्त को देवभूमि कहते थे। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज ने इन शुभ कर्मों का केवल उपदेश ही नहीं किया बल्कि स्वयं जीवन में भी धारण करके दिखा दिया । उनके जीवन से प्रेरणा लेकर अनेकों अनुयायियों ने भी इन गुणों को धारण करके जीवन पवित्र बनाकर समाज का उपकार किया है। आइये इन गुणों को हम भी अपने जीवन में धारण करें। इससे ही विश्व का कल्याण होगा। 

क्रमशः ...

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