गुरुवार, 26 मार्च 2020

आध्यात्मिक चर्चा - १६

आध्यात्मिक चर्चा - १६ 
                         आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री


       पिछली चर्चा में कर्म के विभिन्न प्रकारों का वर्णन किया गया था । इस चर्चा में कर्म के फल का वर्णन किया जायेगा। आज हम इस बात पर चर्चा करेंगे कि कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। आगे इस बात पर चर्चा करेंगे कि कर्मों का फल कौन देता है, जीव को कर्मों का फल कैसे मिलता है।

       कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है, किसी भी अनुष्ठान से पाप कर्मों के फल में परिवर्तन नहीं होता -

अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।
 नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्प कोटि शतैरपि।।
( ब्रह्मवैवर्तपुराण)
       अच्छा या बुरा कर्मफल अवश्य ही भोगना पड़ता है चाहे जितना भी समय हो जाय बिना भोगे कार्य की समाप्ति नहीं होती है।


आत्मना विहितं दुःखमात्मना विहितं सुखम्।
गर्भशय्यामुपादाय भुज्यते पौर्वदेहिकम् ।। ( महाभारत )
        दुःख अपने ही किये हुए कर्मों का फल है और सुख भी अपने ही पूर्व कृत कर्मों का परिणाम है। जीव माता की गर्भशैया में आते ही पूर्व शरीर द्वारा उपार्जित सुख-दुःख का उपभोग करने लगता है।

        तत्काल फल न मिले तो भ्रमित न होवें। बीज बोने पर फल पाने में कुछ समय लग जाता है, इसी प्रकार कर्म का फल मिलने में थोड़ी देर लगने से अधीर लोग आस्था खो बैठते हैं। और ऐसा हो जाय कि शुभ कर्म करते हुए दुःख प्राप्त हो तो यह ना समझे कि परमेश्वर की कैसी व्यवस्था है , हमें दुःख क्यों मिल रहा है। इस पर एक भजन की पंक्तियाँ पढ़िये सब समझ में आजायेगा।

शुभ कर्म करते हुए दुःख भी अगर पारहे ।
पिछले पाप कर्मों का भुगतान वो भुगता रहे।।
आगे मत उठाइए पिछले बोझ उतारिये।
हसते मुस्कुराते हुए ज़िन्दगी गुजारिये।।

इसीप्रकार जो बुरे कर्म करते हुए सुख पारहे हों तो उनको भी समझ लेना चाहिए कि अभी पिछले शुभ कर्मों का फल मिल रहा है इस समय जो बुरे कर्म हम कर रहे हैं उनका भी फल एक दिन अवश्य मिलेगा। जो दुष्कर्म के दण्ड से बचे रहने की बात सोचने लगते हैं। कर्मफल मे विलम्ब होने के कारण जो यह विचार करते हैं कि कभी भी कर्मों का फल नहीं मिलेगा , उन्हें महर्षि व्यास की बात ध्यान देकर समझनी चाहिए। उन्होंने कहा -

नाधर्मः कारणापेक्षी कर्तारमभिमुञ्चति। 
कर्ताखलु यथा कालं ततः समभिपद्यते॥ ( महाभारत)
     अधर्म किसी भी कारण की अपेक्षा से कर्ता को नहीं छोड़ता निश्चय रूप से करने वाला समयानुसार किये कर्म के फल को प्राप्त होता है। 

यथा धेनु सहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम्॥
 तथा पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति।
( महाभारत )
       जैसे बछड़ा हजार गौओं में अपनी माँ को पहचान लेता कर उसे पा लेता है, वैसे ही पहले का किया हुआ कर्म भी कर्ता के पास पहुंच जाता है।


यदाचरति कल्याणि ! शुभं वा यदि वाऽशुभम्।
तदेव लभते भद्रे ! कर्ता कर्मजमात्मनः॥ ( रामायण )

   सीता जी को समझाते हुए श्री राम कहते हैं कि हे मङ्गलमयी सीते ! मनुष्य जो अच्छा या बुरा कर्म करता है, अपने उसी किये कर्म के वैसे ही फल को प्राप्त किया करता है।

        रामायण के अरण्यकाण्ड में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम कहते हैं कि पहले जन्म में हमने इच्छानुसार बारम्बार बहुत सारे पाप कर्म किये हैं, आज उनका फल मिल रहा है, इसी कारण हमारे ऊपर दुःख पड़ रहे हैं। राज्य का नाश होना, पिताजी का मरण, माता जी का वियोग होना, बन्धु बान्धवों से छूटना, यह सब बातें याद आती हैं तो हमारे शोक के वेग को परिपूर्ण कर देती हैं। 

जन्म-जन्मन्यभ्यस्तं दानमध्ययनं तपः ।
तेनैवाऽभ्यासयोगेन तदेवाभ्यस्ते पुनः ।।
( चाणक्य नीति )
      जन्म-जन्मान्तर से प्राणी ने दान देने तथा शास्त्रों के अध्ययन और तप करने का जो अभ्यास किया है, नया शरीर मिलने पर उसी अभ्यास के कारण ही वह सत्कर्मों की ओर प्रवृत्त होता है। अतः मनुष्य को अपना भावी जन्म सुधारने के लिए इस जन्म में शुभ कर्मों के अनुष्ठान का अभ्यास करना चाहिए।

येन येन यथा यद्यत् पुरा कर्म समीहितम्।
तत्तदेकतरो भुङ्क्ते नित्यं विहितमात्मना।।
( महाभारत ) 
      जिस जिस ने भी पहले जिस प्रकार से जो जो भी कर्म किया है, वह वह अपना किया कर्म करने वाला सदैव अकेला ही भोगता है, दूसरा उसका साथ नहीं देता। 

एकः पापानि कुरुते फलं भुङ्क्ते महाजनः |
भोक्तारो विप्र मुच्यन्ते कर्ता दोषेण लिप्यते || 
( महाभारत )
        पाप तो एक आदमी करता है, परन्तु उससे लाभ अनेक लोग उठाते हैं। लाभ उठाने वाले पापी नहीं कहलाते, पर केवल पाप करने वाला ही पापी कहलाता है।

कर्म चैव हि सर्वेषां करणानां प्रयोजनम्।
श्रेयः पापीयसां चात्रफलं भवति कर्मणाम्।।
( रामायण)
       सभी इन्द्रियों का प्रयोजन कर्म ही है। अच्छे अथवा बुरे कर्मों का इस संसार में ही अच्छा या बुरा फल देखा जाता है।

दारिद्रयरोग दुःखानि बन्धन व्यसनानि च।
आत्मापराधवृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम्।।
( पञ्च तन्त्र)
        गरीबी, बीमारियां, अन्य प्रकार के दुःख, कैद और संकट ये सब प्राणियों के निजी किये गये अपराध रूपी वृक्ष के फल हैं।

भीमं वनं भवति तस्य पुरं प्रधानं,
सर्वो जनः स्वजनतामुपयाति तस्य।
कृत्स्ना च भूर्भवति सन्निधिरत्नपूर्णा,
 यस्यास्ति पूर्वसुकृतं विपुलं नरस्य।। 
( नीति शतक )
        जिस मनुष्य के पूर्वजन्म में किए शुभकर्मों का पुण्यफल प्रबल है, उसके लिए भयंकर वन भी श्रेष्ठ नगर बन जाता है, सब लोग उसके मित्र स्वजन बन जाते हैं और सारी पृथ्वी उसके लिए उत्तम निधियों और रत्नों से परिपूर्ण हो जाती है।

कर्मणा जायते सर्वं कर्मैव गति साधनम्।
तस्मात् सर्व प्रयत्नेन साधु कर्म समाचरेत।। (विष्णु पुराण)
       कर्म द्वारा ही सब कुछ उत्पन्न होता है और कर्म ही आगे बढ़ने का साधन है। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह यथा शक्ति अच्छा कर्म ही करे।

कर्मायत्तं फलं पुंसां बुद्धिः कर्मानुसारिणी।

तथापि सुधियाऽऽचार्याः सुविचार्यैव कुर्वते ।।
( चाणक्य नीति )
      मनुष्यों को कर्मानुसार ही फल प्राप्त होता है और बुद्धि भी कर्मानुसार ही बनती है तो भी बुद्धिमान लोग श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा सोचकर ही सभी कार्य करते हैं।

क्रमशः ...

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