शनिवार, 23 मार्च 2019

सैद्धान्तिक चर्चा १४. मूर्ति पूजा से हानियां

सैद्धान्तिक चर्चा -१४.

एक ज्वलन्त प्रश्न है कि - परमेश्वर की तो मूर्ति बनायी ही नही जा सकती। क्या पूर्वजों की मूर्ति बनाकर पूजा करने पर लाभ होता है?
- क्या शरीर छोड़ने के बाद आत्मा हमारे सम्पर्क में आती है ? या नही ।
- हमारी प्रार्थना या भोजन सामग्री उस आत्मा ( जो शरीर छोड़कर गयी है ) तक पहुंचती है या नहीं ?
उपरोक्त प्रश्नों पर हम आगामी चर्चाओं में विस्तार से लिखेंगे यहां संक्षेप में लिखते हैं । आत्मा की शरीर छोड़ने पर दो गतियां होती हैं -
१. आत्मा मुक्ति को प्राप्त हो जाती है। ( योग साधना करने वाला आत्मा)
२. आत्मा को नया शरीर मिल जाता है। ( कर्मों के आधार पर मनुष्य या मनुष्येतर अन्य प्राणी)

मुक्ति कि स्थिति में आत्मा परमेश्वर की व्यवस्था में आनन्द भोगती है ऐसी स्थिति में आत्मा का हमसे सम्पर्क नही रहता तथा आत्मा शरीर को छोड़ने से नया शरीर प्राप्त करने तक ऐसी स्थिति में रहती है उसे स्वयं अपना ज्ञान नही होता अतिसुषुप्तावस्था में रहती है तब भी हमसे सम्पर्क नही रहता। अर्थात् शरीर छोड़ने पर आत्मा का सम्बन्धियों से सम्पर्क नही रहता ।
इसीलिए जो हमारे पूर्वज नही रहे उनसे प्रार्थना करना या उनको कुछ भोजन पहुंचाना सम्भव नही हैं। अर्थात् उनकी मूर्ति बनाकार भी पूजा करना व्यर्थ ही का कार्य रहा।
प्राचीन काल ( वैदिक काल ) में मूर्ति पूजा नहीं थी । उस काल में मूर्तियाँ अलंकार के लिए या सन्देश देने के लिए बनायी जाती थी। आज भी चित्र या मूर्ति चरित्र दर्शाने के लिए हों तो ठीक है।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज का सन्देश है कि हमें चित्र की नही चरित्र की पूजा करनी चाहिए।

= आइये आगे हम चर्चा करेंगे कि क्या मूर्ति पूजा से लाभ होता है ? या केवल भ्रमवश, अज्ञानवश ऐसा लगता है।

सच तो यह है कि मूर्ति पूजा या तन्त्र, यन्त्र, टोने-टोटके, झाड़-फूंक, डाकिनी-साकिनी भूत- प्रेत की मान्यता आदि से हमें कोई लाभ नही होता बल्कि हानि ही हानि है।

संयोगवश ऐसा लगता है कि मूर्ति से लाभ हुआ है जबकि लाभ मूर्ति से नही बल्कि लाभ कर्म (पुरुषार्थ) से ही होता है।
जैसे एक बालक पढ़ाई भी करता है और मुर्ति पूजा भी करता है तथा पास होने पर पूजा से पास होना मान लेता है मेहनत से नही जबकि सही तो यही है कि मेहनत से पास हुआ है मूर्ति पूजा से नही। यदि हम ऐसा मान ले कि मूर्ति पूजा से पास हुआ है तो बिना पढ़े पास होना चाहिए जबकि ऐसा नही हो सकता ।
इसीप्रकार व्यापारी व्यापार में मेहनत भी करता है और मूर्ति पूजा भी करता है तथा व्यापार में लाभ होने को वह अपना पुरुषार्थ न मानकर लाभ का श्रेय मूर्ति पूजा को देता है जबकि ऐसा नहीं है व्यापार में लाभ कभी भी मूर्ति पूजा से नही होता हमेशा वही व्यापारी सफल होता है जो पूर्ण पुरुषार्थ करता है , संसार में ऐसे बहुत व्यापारी है जो मूर्ति पूजा से उनका कोई सम्बन्ध नही है और वह अच्छे धनवान हैं।
इसी प्रकार अन्यत्र समझना चाहिए।
यदि अभी भी लगता है कि तन्त्र, यन्त्र, टोने-टोटके, झाड़-फूंक, डाकिनी-साकिनी भूत-प्रेत और मूर्ति पूजा से भला हो सकता है तो कुछ प्रयोग किये जायें ।
उपरोक्त मूर्ति पूजा आदि साधनों से बिना अध्ययन किये किसी को परीक्षा में उत्तीर्ण कराया जाय, बिना योग्यता के किसी को अच्छी नौकरी दिलादी जाय, बिना चिकित्सा के जन्मान्ध व्यक्ति की आंखे ठीक कर दी जायें । देश की सीमा पर बिना सेना के सुरक्षा करा दी जाय। यह सब कार्य मूर्ति पूजा आदि से सम्भव नही हैं क्योंकि संसार में कारण से कार्य होता है और सफलता का कारण ज्ञान और पुरुषार्थ ही है मूर्तिपूजा नही।

मूर्ति पूजा से हांनियां - महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज एक प्रश्न के उत्तर में कुछ इस प्रकार उत्तर देते हैं --
प्रश्न - साकार में मन स्थिर होता और निराकार में स्थिर होना कठिन है इसलिये मूर्त्तिपूजा रहनी चाहिये।
उत्तर -  साकार में मन स्थिर कभी नहीं हो सकता क्योंकि उस को मन झट ग्रहण करके उसी के एक-एक अवयव में घूमता और दूसरे में दौड़ जाता है। और निराकार अनन्त परमात्मा के ग्रहण में यावत्सामर्थ्य मन अत्यन्त दौड़ता है तो भी अन्त नहीं पाता। निरवयव होने से चंचल भी नहीं रहता किन्तु उसी के गुण, कर्म, स्वभाव का विचार करता-करता आनन्द में मग्न होकर स्थिर हो जाता है। और जो साकार में स्थिर होता तो सब जगत् का मन स्थिर हो जाता क्योंकि जगत् में मनुष्य, स्त्री, पुत्र, धन, मित्र आदि साकार में फंसा रहता है परन्तु किसी का मन स्थिर नहीं होता। जब तक निराकार में न लगावे। क्योंकि निरवयव होने से उस में मन स्थिर हो जाता है। इसलिये मूर्त्तिपूजा करना अधर्म है।
दूसरा—उस में क्रोड़ों रुपये मन्दिरों में व्यय करके दरिद्र होते हैं और उस में प्रमाद होता है।
तीसरा—स्त्री पुरुषों का मन्दिरों में मेला होने से व्यभिचार, लड़ाई बखेड़ा और रोगादि उत्पन्न होते हैं।
चौथा—उसी को धर्म, अर्थ, काम और मुक्ति का साधन मानके पुरुषार्थ रहित होकर मनुष्यजन्म व्यर्थ गमाता है।
पांचवां—नाना प्रकार की विरुद्धस्वरूप नाम चरित्रयुक्त मूर्त्तियों के पुजारियों का ऐक्यमत नष्ट होके विरुद्धमत में चल कर आपस में फूट बढ़ा के देश का नाश करते हैं।
छठा—उसी के भरोसे में शत्रु का पराजय और अपना विजय मान बैठे रहते हैं। उन का पराजय हो कर राज्य, स्वातन्त्र्य और धन का सुख उनके शत्रुओं के स्वाधीन होता है और आप पराधीन भठियारे के टट्टू और कुम्हार के गदहे के समान शत्रुओं के वश में होकर अनेकविधि दुःख पाते हैं।
सातवां—जब कोई किसी को कहे कि हम तेरे बैठने के आसन वा नाम पर पत्थर धरें तो जैसे वह उस पर क्रोधित होकर मारता वा गाली प्रदान देता है वैसे ही जो परमेश्वर की उपासना के स्थान हृदय और नाम पर पाषाणादि मूर्त्तियां धरते हैं उन दुष्टबुद्धिवालों का सत्यानाश परमेश्वर क्यों न करे?
आठवां—भ्रान्त होकर मन्दिर-मन्दिर देशदेशान्तर में घूमते-घूमते दुःख पाते, धर्म, संसार और परमार्थ का काम नष्ट करते, चोर आदि से पीड़ित होते, ठगों से ठगाते रहते हैं।
नववां—दुष्ट पूजारियों को धन देते हैं वे उस धन को वेश्या, परस्त्रीगमन, मद्य, मांसाहार, लड़ाई बखेडों में व्यय करते हैं जिस से दाता का सुख का मूल नष्ट होकर दुःख होता है।
दशवां—माता पिता आदि माननीयों का अपमान कर पाषाणादि मूर्त्तियों का मान करके कृतघ्न हो जाते हैं।
ग्यारहवां—उन मूर्त्तियों को कोई तोड़ डालता वा चोर ले जाता है तब हा-हा करके रोते रहते हैं।
बारहवां—पूजारी परस्त्रियों के संग और पूजारिन परपुरुषों के संग से प्रायः दूषित होकर स्त्री पुरुष के प्रेम के आनन्द को हाथ से खो बैठते हैं।
तेरहवां—स्वामी सेवक की आज्ञा का पालन यथावत् न होने से परस्पर विरुद्धभाव होकर नष्ट भ्रष्ट हो जाते हैं।
चौदहवां—जड़ का ध्यान करने वाले का आत्मा भी जड़ बुद्धि हो जाता है क्योंकि ध्येय का जड़त्व धर्म अन्तःकरण द्वारा आत्मा में अवश्य आता है।
पन्द्रहवां—परमेश्वर ने सुगन्धियुक्त पुष्पादि पदार्थ वायु जल के दुर्गन्ध निवारण और आरोग्यता के लिये बनाये हैं। उन को पुजारी जी तोड़ताड़ कर न जाने उन पुष्पों की कितने दिन तक सुगन्धि आकाश में चढ़ कर वायु जल की शुद्धि करता और पूर्ण सुगन्धि के समय तक उस का सुगन्ध होता है। उस का नाश मध्य में ही कर देते हैं। पुष्पादि कीच के साथ मिल सड़ कर उलटा दुर्गन्ध उत्पन्न करते हैं। क्या परमात्मा ने पत्थर पर चढ़ाने के लिये पुष्पादि सुगन्धियुक्त पदार्थ रचे हैं।
सोलहवां—पत्थर पर चढ़े हुए पुष्प, चन्दन और अक्षत आदि सब का जल और मृत्तिका के संयोग होने से मोरी वा कुण्ड में आकर सड़ के इतना उस से दुर्गन्ध आकाश में चढ़ता है कि जितना मनुष्य के मल का। और सहस्रों जीव उस में पड़ते उसी में मरते और सड़ते हैं।

ऐसे-ऐसे अनेक मूर्त्तिपूजा के करने में दोष आते हैं। इसलिये सर्वथा पाषाणादि मूर्त्तिपूजा सज्जन लोगों को त्यक्तव्य है। और जिन्होंने पाषाणमय मूर्त्ति की पूजा की है, करते हैं और करेंगे। वे पूर्वोक्त दोषों से न बचे। न बचते हैं, और न बचेंगे।

क्रमशः...

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