बुधवार, 18 दिसंबर 2019

आध्यात्मिक चर्चा - ५

अध्यात्मिक चर्चा - ५
आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री


पिछली चर्चा में हमने समझा कि आत्मा (जीव) एक अविनाशी और अनादि तत्व है इसका जन्म-मृत्यु नहीं होता है । आत्मा परमात्मा से पृथक सत्ता है। शरीर और आत्मा के संयोग का नाम जन्म कहलाता है और शरीर और आत्मा के साथ साथ चलने का नाम जीवन है तथा शरीर और आत्मा के वियोग का नाम मृत्यु है । शरीर छोड़ने पर आत्मा की क्या गति होती है इस पर आगे चर्चा करेंगे । इस चर्चा में अभी हम शरीर को समझेंगे।
     शरीर के बारे में सामान्यतः एक बात प्रचलित है कि शरीर तो पांच तत्वों - अग्नि, जल , वायु, पृथ्वी और आकाश से बना हुआ है। 
शरीर को ठीक से समझने के लिए आइये कुछ चिन्तन करते हैं। शरीर विज्ञान के ज्ञाता प्राचीन आयुर्वेदाचार्य महर्षि चरक ने अपने शिष्यों को शरीर के विषय में समझाने के लिए एक इतिहास में हुई शरीर विज्ञान की चर्चा सुनाई । एक बार हिमालय के पास हुई परिषद में अनेक महर्षि सम्मिलित हुये। परिषद का विषय - "शरीर और शरीर के रोगों का कारण क्या है?"  था। तथा परिषद के अध्यक्ष भगवान आत्रेय बनाये गये। सर्व प्रथम काशीपति वामक ने उपरोक्त प्रश्न को सभा में रखा जिसपर विभिन्न विद्वानों ने अपने विचार दिये। जिसमें ऋषि कांकायन ने कहा कि शरीर और शरीर के रोगों का कारण परमात्मा है। परमात्मा ही शरीर देता है तथा वही स्वास्थ्य और रोग देता है। इस पर महर्षि भरद्वाज ने इसका कारण स्वाभाविक होना बताया। भद्रकाप्य ने कर्म को, ऋषि हिरण्याक्ष ने धातुओं को तथा ऋषि कौशिक ने माता-पिता को शरीर और शरीर के रोगों का कारण कहा। सभी के विचारों को सुनने के बाद सभाध्यक्ष महर्षि भगवान आत्रेय ने काशिपति के उक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि केवल आहार ही शरीर का कारण होता है और अहितकर आहार का उपयोग ही रोग और रोगों की वृद्धि का कारण होता है। 
       यह बात अधिक ध्यान देने योग्य है कि शरीर आहार (भोजन) से बना है । इस बात पर पुनः शिष्यों ने आचार्य चरक से पूछा कि शरीर आहार से कैसे बना है तो उत्तर में आचार्य चरक कहते हैं कि शरीर का निर्माण माता के गर्भ में होता है और बहुत ही छोटा होता है (लगभग सरसों के दाने के समान छोटा) यह छोटा सा शरीर माता और पिता के रज और शुक्र से मिलकर बनता है तथा रज और शुक्र आहार (भोजन) से बनता है। 
शरीर का विज्ञान समझाते हुए आचार्य कहते हैं कि आहार( जो भी भोजन के रूप में ग्रहण किया जाता है ) से रस बनता है, रस से रक्त बनता है, रक्त से मांस बनता है, मांस से मेद बनता है, मेद से अस्थि (हड्डी) बनती है, अस्थि से मज्जा तथा मज्जा से रज और वीर्य बनता है जिससे सन्तान का शरीर बनता है।
      माता के गर्भ में सन्तान के शरीर का विकास माता के किये भोजन से होता है। परमेश्वर की व्यवस्था में गर्भस्थ शिशु की नाभि माता की नाभि से जुड़ जाती है और उसी से उसका पोषण होता है। माता के किये भोजन का एक हिस्सा रस बनकर गर्भस्थ शिशु का निर्माण करता है।
      जन्म के बाद कुछ समय तक शिशु का पोषण माता का दुग्ध पान करके होता है और वह दुग्ध माता के आहार से बनता है। हमारा शरीर भोजन से ही बनता है और भोजन से ही चलता है।
   अभी तक हमने समझा कि शरीर का निर्माण भोजन से हुआ है और अब समझेंगे कि भोजन का निर्माण पांच तत्वों से ही होता है। भोजन में ठोस पदार्थ पृथ्वी का हिस्सा है, तरल पदार्थ जल का है, उर्जा अग्नि का, गैसीय पदार्थ वायु का व खाली स्थान आकाश का हिस्सा है। यदि हम दर्शन की बात करें तो कहा जा सकता है कि भोजन में जो गन्ध है वह पृथ्वी से आती है क्योंकि "गन्धवती पृथ्वी " अर्थात् पृथ्वी का गुण है गन्ध, और रस जल से आया है, रंग अग्नि का गुण है । अर्थात् शरीर भोजन से बना है और भोजन प्राकृतिक तत्वों से बना है।
          लेकिन यहां एक बात और ध्यान देने योग्य है कि पांचों तत्व तो मिट्टी और लकड़ी आदि में भी हैं तो क्या हम मिट्टी या लकड़ी आदि खा सकते है शरीर बनाने या चलाने के लिए? तो इसका उत्तर होगा कि नहीं। जबकि कुछ जीव परमेश्वर ने ऐसे भी बनाये है जो मिट्टी या लकड़ी आदि खाकर जीवन चलाते हैं। इस विषय में यहां तो बस इतना ही कहेंगे कि मनुष्य को बहुत अच्छे से यह जानकर कि क्या खाना चाहिए और क्या नही खाना चाहिए हितकारी भोजन ही करना चाहिए । जिससे हमें हानि हो वह पादार्थ सेवन नहीं करना चाहिए (इस विषय पर विस्तार से कभी चर्चा करेंगे)‌।
   अभी हमने आयुर्वेद के आधार पर यह जाना कि हमारा शरीर भोजन से बना है और भोजन पांच तत्वों - अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश से मिलकर बना है।
     यमाचार्य शरीर के विषय में नचिकेता को समझाते हैं - 

आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।

इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी, समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, रथ हांकने वाला, और मन को लगाम समझो ।

इंद्रियाणि ह्यानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।।

मनीषियों, विवेकी पुरुषों, ने इंद्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इंद्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं, इन्द्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने भोग करने वाला बताया है ।
प्राचीन भारतीय विचारकों का चिंतन प्रमुखतया आध्यात्मिक प्रकृति का रहा है । ऐहिक सुखों के आकर्षण का ज्ञान उन्हें भी रहा ही होगा । किंतु उनके प्रयास रहे थे कि वे उस आकर्षण पर विजय पायें । उनकी जीवन-पद्धति आधुनिक काल की पद्धति के विपरीत रही । स्वाभाविक भौतिक आकर्षण से लोग स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करें ऐसा वे सोचते रहे होंगे और उपनिषद् आदि ग्रंथ उनकी इसी सोच को प्रदर्शित करते हैं ।
उनके दर्शन के अनुसार अमरणशील आत्मा शरीर के द्वारा इस भौतिक संसार से जुड़ी रहती है और यहां के सुख-दुःखों का अनुभव मन के द्वारा करती हैं । मन का सम्बन्ध बाह्य जगत् से इन्द्रियों के माध्यम से होता है । दर्शन शास्त्र में दस इन्द्रियों की व्याख्या की जाती हैः पाँच ज्ञानेन्द्रियां (आंख, कान, नाक, जीभ तथा त्वचा) और पाँच कर्मेन्द्रियां (हाथ, पांव, मुख, मलद्वार तथा उपस्थ यानी जननेद्रिय, पुरुषों में लिंग एवं स्त्रियों में योनि)।  उक्त श्लोकों के अनुसार क्या कर्तव्य है और क्या नहीं का निर्धारण बुद्धि करती है और मन तदनुसार इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है । इन श्लोकों का सार यह है: भौतिक भोग्य विषयों रूपी मार्गों में विचरण करने वाले इंद्रिय रूपी घोड़ों पर मन रूपी लगाम के द्वारा बुद्धि रूपी सारथी नियंत्रण रखता है ।
यमाचार्य ने शरीर को रथ कहा है इससे अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं जैसे - 
आत्मा को रथ प्राप्त कैसे होता है? 
रथ बनता कैसे है? 
रथ चलता कैसे है? 
रथ से जाना कहां हैं? 
इन प्रश्नों के उत्तर में अभी तो बस इतना ही कहना होगा (विस्तार से आगे चर्चा होगी)- 
आत्मा को रथ (शरीर) कर्मों के आधार पर प्राप्त होता है।
रथ (शरीर) प्राकृतिक पदार्थों से बनता है।
रथ (शरीर) को आत्मा चलाती है। आत्मा बुद्धि पूर्वक मन को इन्द्रिय के साथ जोड़कर कर्म करती है। शरीर साधन है।
रथ (शरीर) रूपी साधन से आत्मा को परमेश्वर के आनन्द को प्राप्त करना है । 
शरीर के सन्दर्भ में उपरोक्त विषयों पर आगे विस्तार से चर्चा करेंगे।
क्रमशः ...

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