मंगलवार, 2 अप्रैल 2019

सैद्धान्तिक चर्चा -१७. "देव निर्णय"

सैद्धान्तिक चर्चा - १७.               "देव निर्णय"

                                     आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

० पूजा क्या है ? पूजा कैसे करें ? इस बात को जानने से पूर्व यह जानना अत्यावश्यक है कि पूजा किसकी करें ?

० पूजा "देव" की ही की जाती है। लेकिन देव कौन है इसकी जानकारी समाज में अधिकांश को नहीं है। समाज में ऐसे लोगों की संख्या अधिक है जो पाषाणादि मूर्तियों को देव मानते हैं माता-पिता या आचार्यादि को देव नही मानते जबकि पाणाषादि की मूर्ति को देव मानना सैद्धान्तिक रूप से सही नहीं है।

० आज हम यह चर्चा करेंगे कि देव शब्द के अन्तर्गत कौन कौन आयेगा अर्थात् देव शब्द किस किस के लिए प्रयोग किया जा सकता है।

० सर्व प्रथम देव शब्द परमेश्वर के लिए प्रयोग किया जाता है महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज कहते है गुण कर्मों के आधार पर परमेश्वर के अनेक नाम हैं उनमें से परमेश्वर का एक नाम देव भी है-
"दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु" इस धातु से ‘देव’ शब्द सिद्ध होता है। (क्रीडा) जो शुद्ध जगत् को क्रीडा कराने (विजिगीषा) धार्मिकों को जिताने की इच्छायुक्त (व्यवहार) सब चेष्टा के साधनोपसाधनों का दाता (द्युति) स्वयंप्रकाशस्वरूप, सब का प्रकाशक (स्तुति) प्रशंसा के योग्य (मोद) आप आनन्दस्वरूप और दूसरों को आनन्द देनेहारा (मद) मदोन्मत्तों का ताड़नेहारा (स्वप्न) सब के शयनार्थ रात्रि और प्रलय का करनेहारा (कान्ति) कामना के योग्य और (गति) ज्ञानस्वरूप है, इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘देव’ है।
अथवा
‘यो दीव्यति क्रीडति स देवः’ जो अपने स्वरूप में आनन्द से आप ही क्रीडा करे अथवा किसी के सहाय के विना क्रीडावत् सहज स्वभाव से सब जगत् को बनाता वा सब क्रीडाओं का आधार है।
‘विजिगीषते स देवः’ जो सब का जीतनेहारा, स्वयम् अजेय अर्थात् जिस को कोई भी न जीत सके।
‘व्यवहारयति स देवः’ जो न्याय और अन्यायरूप व्यवहारों का जनाने और उपदेष्टा।’
‘यश्चराचरं जगत् द्योतयति’ जो सब का प्रकाशक।
‘यः स्तूयते स देवः’ जो सब मनुष्यों को प्रशंसा के योग्य और निन्दा के योग्य न हो।
‘यो मोदयति स देवः’ जो स्वयम् आनन्दस्वरूप और दूसरों को आनन्द कराता, जिस को दुःख का लेश भी न हो।
‘यो माद्यति स देवः’ जो सदा हर्षित, शोक रहित और दूसरों को हर्षित करने और दुःखों से पृथक् रखनेवाला।
‘यः स्वापयति स देवः’ जो प्रलय समय अव्यक्त में सब जीवों को सुलाता।
‘यः कामयते काम्यते वा स देवः’ जिस के सब सत्य काम और जिस की प्राप्ति की कामना सब शिष्ट करते हैं।
‘यो गच्छति गम्यते वा स देवः’ जो सब में व्याप्त और जानने के योग्य है,
इस से उस परमेश्वर का नाम ‘देव’ है।

अर्थात् देव शब्द से प्रथम परमेश्वर का ही ग्रहण करना चाहिए [ प्रकरणानुसार देव शब्द से अन्य किन-किन  पदार्थों का ग्रहण होगा यह आगे लिखेंगे ]
जैसे - विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव ... मन्त्र में देव का अर्थ परमेश्वर लिया गया है।

० एक प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या सर्वत्र देव शब्द से परमेश्वर का ही ग्रहण होगा ?
इसके उत्तर में महर्षि यास्क का विचार चिन्तनीय है - 'देव' शब्द के अनेक अर्थ हैं - " देवो दानाद् वा , दीपनाद् वा , द्योतनाद् वा , द्युस्थानो भवतीति वा | " ( निरुक्त - ७ / १५ ) तदनुसार 'देव' का लक्षण है 'दान' अर्थात देना | जो सबके हितार्थ दान दे , वह देव है | देव का गुण है 'दीपन' अर्थात प्रकाश करना | सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि को प्रकाश करने के कारण देव कहते हैं | देव का कर्म है 'द्योतन' अर्थात सत्योपदेश करना | जो मनुष्य सत्य माने , सत्य बोले और सत्य ही करे , वह देव कहलाता है | देव की विशेषता है 'द्युस्थान' अर्थात ऊपर स्थित होना | ब्रह्माण्ड में ऊपर स्थित होने से सूर्य को , समाज में ऊपर स्थित होने से विद्वान को देव कहते हैं | इस प्रकार 'देव' शब्द का प्रयोग जड़ और चेतन दोनों के लिए होता है |
उपरोक्त परिभाषा के अनुसार देव शब्द से किस किस का ग्रहण होगा इस पर "सत्यार्थ प्रकाश" में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज ने कहा -
मातृदेवो भव पितृदेवो भव आचार्यदेवो भव अतिथिदेवो भव॥ (तैत्तिरीयोपनिषद)
पितृभिर्भ्रातृभिश्चैताः पतिभिर्देवरैस्तथा।
पूज्या भूषयितव्याश्च बहुकल्याणमीप्सुभिः॥
पूज्यो देववत्पतिः।। (मनुस्मृति)

प्रथम माता मूर्त्तिमती पूजनीय देवता, अर्थात् सन्तानों को तन, मन, धन से सेवा करके माता को प्रसन्न रखना, हिंसा अर्थात् ताड़ना कभी न करना। दूसरा पिता सत्कर्त्तव्य देव। उस की भी माता के समान सेवा करनी॥
तीसरा आचार्य जो विद्या का देने वाला है उस की तन, मन, धन से सेवा करनी॥
चौथा अतिथि जो विद्वान्, धार्मिक, निष्कपटी, सब की उन्नति चाहने वाला जगत् में भ्रमण करता हुआ, सत्य उपदेश से सब को सुखी करता है उस की सेवा करें॥
पांचवां स्त्री के लिये पति और पुरुष के लिये स्वपत्नी पूजनीय है॥
ये पांच मूर्त्तिमान् देव जिन के संग से मनुष्यदेह की उत्पत्ति, पालन, सत्यशिक्षा, विद्या और सत्योपदेश की प्राप्ति होती हैं ये ही परमेश्वर को प्राप्ति होने की सीढ़ियां हैं। इन की सेवा न करके जो पाषाणादि मूर्त्ति पूजते हैं वे अतीव पामर, नरकगामी तथा वेदविरोधी हैं।

मनुष्यों में पांच देव होते है - माता, पिता, आचार्य, अतिथि और पति/पत्नि (अर्थात् पति के लिए पत्नि और पत्नि के लिए पति)।

० इनके अतिरिक्त ३३ प्रकार के देव और होते हैं - महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज सत्यार्थ प्रकाश में इस प्रकार लिखते हैं 'त्रयस्त्रिंशत् त्रिशता॰’ इत्यादि वेदों में प्रमाण हैं इस की व्याख्या शतपथ में की है कि तेंतीस देव अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य और नक्षत्र सब सृष्टि के निवास स्थान होने से आठ वसु।
प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय और जीवात्मा ये ग्यारह रुद्र इसलिये कहाते हैं कि जब शरीर को छोड़ते हैं तब रोदन कराने वाले होते हैं।
संवत्सर के बारह महीने बारह आदित्य इसलिये हैं कि ये सब की आयु को लेते जाते हैं।
बिजली का नाम इन्द्र इस हेतु से है कि परम ऐश्वर्य का हेतु है।
यज्ञ को प्रजापति कहने का कारण यह है कि जिस से वायु वृष्टि जल ओषधी की शुद्धि, विद्वानों का सत्कार और नाना प्रकार की शिल्पविद्या से प्रजा का पालन होता है।
ये तेंतीस पूर्वोक्त गुणों के योग से देव कहाते हैं। इन का स्वामी और सब से बड़ा होने से परमात्मा चौंतीसवां उपास्यदेव शतपथ के चौदहवें काण्ड में स्पष्ट लिखा है।

=> ध्यान दें -
उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट होता है कि-
० परमेश्वर हमारा प्रथम देव है।
० मनुष्यों में पांच देव होते हैं- माता, पिता, आचार्य, अतिथि तथा पति/पत्नी
० ३३ प्रकार के देव और होते हैं -
       ८ वसु
      ११ रुद्र
       १२ आदित्य
         १ इन्द्र
         १ प्रजापति


क्रमशः ...

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