रविवार, 26 अप्रैल 2020

आध्यात्मिक चर्चा - १९

आध्यात्मिक चर्चा - १९
आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

          पिछली चर्चाओं में हमने समझा कि कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। परमेश्वर हमें कर्मों के फल के रूप में जाति, आयु और भोग प्रदान करता है। आज हम आयु,जाति और भोग पर कुछ विस्तार चर्चा करेंगे।
          समाज में आयु के बारे में कुछ ऐसा प्रचार हुआ है कि आयु जन्म के साथ की निर्धारित हो जाती है, आयु न तो घटती है और न ही बढ़ती है, जिसकी मृत्यु जब होनी होती है तब ही होती है। 
         यदि हम उपरोक्त कथन को सही माने तो अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं। जैसे - जब मृत्यु निर्धारित समय पर होनी ही है तो आयुष्मान भव, जीवेम शरदःशतम् आदि का क्या औचित्य रह जायेगा। यदि कोई किसी को मार दे तो मारने वाला दोषी क्यों कर होगा ? क्योंकि मरने वाले की तो मृत्यु होनी ही थी।  ऐसे ही अनेक प्रश्न उपस्थित होंगे।
        वैदिक सिद्धान्त के आधार पर मृत्यु तो निश्चित होती ही है लेकिन कब होती है या कब होगी यह निर्धारित नहीं होता। आयु को घटाया और बढ़ाया भी जा सकता है।
        इस पर कुछ तर्क पूर्ण चर्चा करते हैं जैसा कि  योग दर्शन में कहा है कि आयु कर्म के आधार पर प्राप्त होती है तथा दूसरी बात यह है कि कुछ कर्मों का फल वर्तमान जन्म में प्राप्त होता है और कुछ कर्मों का फल अगले जन्म में भी प्राप्त होता है।( यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि सभी कर्मों के फल का निर्णय मृत्यु के बाद ही नहीं होता बल्कि कुछ कर्मों का फल जीवन चलते भी प्राप्त हो जाता है।) अब इन दोनों बातों को साथ साथ जोड़कर देखते हैं अर्थात्  जन्म के समय जो आयु प्राप्त होती है वह पिछले जन्मों के कर्मों का फल है  साथ ही इस आयु को वर्तमान के कर्म भी प्रभावित करेंगे। वर्तमान जीवन में किये जाने वाले कुछ कर्म ऐसे भी होते हैं जो आयु को  घटा और बढ़ा सकते है क्योंकि कुछ कर्म ऐसे होते हैं जो इसी जन्म में करने पर इसी जन्म में आयु देने वाले होते हैं।
      इसीलिए वेदों में सौ वर्ष और उससे भी अधिक जीने की बात कही है। आयुर्वेद ऐसा उपवेद है जो आयु पर ही लिखा गया है। आयुर्वेद में अनेक ऋषियों ने आयु को बढ़ाने के लिए शुभ कर्म, अच्छा भोजन, सही नींद, ब्रह्मचर्य का पालन और व्यायाम आदि वर्णन किया है। अर्थात् शुभ कर्म "= पुण्य कर्म = वेदोक्त कर्म करके, आयुर्वेद के आधार पर शरीर को स्वस्थ रखने वाला - वात-पित्त-कफ को सम रखने वाला भोजन करके, रात्रि में उचित समय से गहरी नींद लेकर, ब्रह्मचर्य के पालन और नित्य व्यायाम - आसन - प्राणायाम आदि करके आयु को बढ़ाया जा सकता है और इसके विपरीत चलकर आयु घट जाती है।
      इसीप्रकार भोग के सन्दर्भ में समझना चाहिए अर्थात् जन्म के समय सुख-दुःख के जो साधन मिलते हैं वे पूर्व जन्मों के कर्मों का फल है उन साधनों भी घटाया और बढ़ाया भी जा सकता है।
       यहां एक बात बहुत ध्यान देने योग्य है - चोरी, डकैती, अत्याचार, भ्रष्टाचार आदि अनैतिक पापाचरण से प्राप्त धन सुख का साधन नहीं हैं ।
   यदि कोई ऐसा प्रश्न करे - समाज में व देश में चोरी करने वाले, रिश्वत लेने वाले, मिलावट करने वाले, अधिक मुनाफा लेने वाले, झूठी गवाही, असत्य, छल-कपट आदि गलत कार्यों को करके धन, सम्पत्ति इकट्ठी करने व गलत कार्य करने वाले व्यक्ति सुखी दिखाई देते हैं। क्या ईश्वर उनको देखता नहीं है? दण्ड नहीं देता? जब ऐसे गलत कार्य करने वाले सुखी देखे जाते है तो धर्म, सदाचार, नैतिकता पर से लोगों का विश्वास ही हट जाता है और अन्य लोग भी ऐसे लोगों का अनुकरण करके उनकी तरह बुरे काम करने लग जाते है और इससे सारे समाज, राष्ट्र में भ्रष्टाचार फैल जाता है जो आज हम स्पष्ट देखते है।
उपरोक्त प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है -  मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है वह अच्छा, बुरा जैसा चाहे अपनी इच्छा से कर सकता है। झूठ, छल-कपट, चोरी, मिलावट, रिश्वत, शोषण, अन्याय आदि के द्वारा वह क्या प्राप्त करेगा? रूपया-पैसा। इन रुपयों से वह अच्छा मकान, गाड़ी, वस्तु, भोजन, मनोरंजन के साधनों को प्राप्त करके भी क्षणिक सुख ही तो पाता है। किन्तु इन साधनों व साधनों के पीछे बुरे कर्मों से प्राप्त धन का जो दोष है, पाप है उसका डंक, विष व उसकी आग उसे अन्दर ही अन्दर चुभती, जलाती रहती है।
     महाराज मनु कहते हैं -
अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति ।
ततः सपत्नाञ्जयति समूलस्तु विनश्यति ।।
मनुष्य ( अधर्मेण तावत् एधते ) अधर्माचरण के द्वारा पहले पहले उन्नति करता है, ( ततः भद्राणि पश्यति ) उससे वह अपना कल्याण=सुख-सुविधा-मान-प्रतिष्ठा प्राप्ति होते हुए भी अनुभव करता है, (ततः सपत्नान् जयति ) उससे शत्रुओं पर भी बढ़ोतरी प्राप्त करता है ( तु ) किन्तु अन्ततः उस अधर्मकर्ता का ( समूलः विनश्यति ) जड़ से ही सर्वनाम हो जाता है।
     महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज सत्यार्थ प्रकाश में इस प्रसंग पर लिखते हैं - जब अधर्मात्मा मनुष्य धर्म की मर्यादा छोड़ (जैसे तालाब के बाँध को तोड़ जल चारों ओर फैल जाता है वैसे)  मिथ्याभाषण, कपट, पांखड अर्थात् रक्षा करने वाले वेदों का खंडन, और विश्वासघात आदि कर्मों से पराये पदार्थों को लेकर, प्रथम बढ़ता है और धनादि ऐश्वर्य से खान, पान, वस्त्र, आभूषण, यान, स्थान, मान, प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है, अन्याय से शत्रुओं को भी जीतता है, पश्चात् शीघ्र नष्ट हो जाता है। जैसे जड़ से कटा हुआ वृक्ष नष्ट हो जाता है, वैसे ही अधर्मी नष्ट हो जाता है।

        मनुष्य निश्चय करके जाने कि इस संसार में जैसा गाय आदि की सेवा का फल दूध शीघ्र प्राप्त नहीं होता वैसे ही किए हुए अधर्म का फल शीघ्र प्राप्त नहीं होता किन्तु वह किया हुआ अधर्म धीरे-धीरे कर्त्ता के सुखों को रोकता हुआ सुख के मूलों को काट देता है पश्चात् अधर्मी दुख ही दुख भोगता है। इसलिए यह कभी नहीं समझना चाहिए कि कर्त्ता का किया हुआ कर्म निष्फल होता है।

क्रमशः ...

रविवार, 19 अप्रैल 2020

आध्यात्मिक चर्चा - १८

आध्यात्मिक चर्चा - १८
                                      आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

        परमेश्वर ही कर्मों का फल देता है। चूंकि परमेश्वर न्यायकारी है इसीलिए सभी जीवों को सभी कर्मों का फल यथायोग्य अवश्य देता है। कर्म का फल कम या अधिक मिले, ऐसा नहीं होता है। कर्मों का फल न मिले, ऐसा नहीं होता है। किसी भी अनुष्ठान से किये कर्मों के फल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। अर्थात् कर्मों का फल भोगना ही पड़ेगा।  किसी के कर्मों का फल किसी को मिले, ऐसा भी नहीं होता है। परमेश्वर की कर्मफल व्यवस्था को इस चर्चा में समझने का प्रयास करेंगे।

क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः।
( क्लेश-मूलः ) अविद्यादि क्लेश हैं मूल = कारण जिस कर्म समुदाय के वह ( कर्माशयः ) कर्मसमुदाय ( दृष्ट-अदृष्ट-जन्म-वेदनीयः ) वर्तमान तथा भावी जन्म में भोग्य=फल देने वाला होता है । 
     अर्थात् कुछ कर्म ऐसे हैं जिनका फल इसी जन्म में मिलता है और कुछ कर्म ऐसे हैं जिनका फल आगामी जन्म में मिलता है। कुछ कर्मों का फल शीघ्र और कुछ कर्मों का फल विलम्ब से मिलता है। जिन कर्म का फल इस जन्म में मिलता है, उनको दृष्टजन्मवेदनीय कहते हैं और जिन कर्मों का फल आगामी जन्मों में मिलता है, उनको अदृष्टजन्मवेदनीय कहते हैं।

       कर्म समुदाय को कर्माशय कहते हैं। शुभ कर्म समुदाय को पुण्य कर्माशय और अशुभ कर्म समुदाय को पाप कर्माशय कहा जाता है। पुण्य कर्माशय सुख देता है और पाप कर्माशय दुःख देता है। ऋषि पतञ्जलि कहते हैं -

सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः।
( सति मूले ) अविद्यादि क्लेशों के विद्यमान रहने पर ( तद्-विपाकः ) उस कर्म समुदाय का फल ( जाति-आयुः-भोगाः ) जाति, आयु और भोग होते हैं। अर्थात् कर्माशय ( कर्म समुदाय ) के तीन फल हैं - जाति, आयु, भोग।
जाति = मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़े, मकौड़े आदि का शरीर। 
आयु = जन्म से लेकर मरणपर्यन्त काल आयु है। 
भोग = भोग शब्द का अर्थ यद्यपि सुख दुःख भी है परन्तु इस प्रसंग में भोग शब्द का अर्थ 'सुख दुःख प्राप्ति के साधन' है जैसे धन सम्पत्ति, सोना-चांदी, भोजन-वस्त्र, पुत्र-परिवार आदि।
अदृष्ट जन्म में फल देने वाला कर्माशय ( अदृष्टजन्मवेदनीय ) जाति, आयु, और भोग तीन फलों का कारण होता है।
इस जन्म में फल देने वाला कर्माशय ( दृष्टजन्मवेदनीय ) आयु और भोग दोनों फलों को देने वाला होता है।  दृष्टजन्मवेदनीय अर्थात् इस जन्म में फल देने वाला कर्माशय उपर्युक्त रूप से निश्चित फल वाला होता है तथा अदृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय निश्चित तथा अनिश्चित दोनों प्रकार के फल देने वाला होता है। जिस कर्म समुदाय का जाति आयु, भोग निश्चित हो जाता है, उसको नियतविपाक और जिसके जाति, आयु, भोग निश्चित नहीं हुये, वह अनियतविपाक है। 

अनियतविपाक कर्माशय की तीन गतियाँ मानी जाती हैं। 
पहली - कुछ कर्म बहुत लम्बे काल के पश्चात् फल देते हैं, कर्मों की इस गति को व्यासभाष्य में 'नाश' के नाम से कहा गया है। 
दूसरी - किसी प्रधान कर्म के साथ मिलकर कर्म अपना फल दे देता है। 
तीसरी - जब प्रबल कर्म अपना फल देते हैं तो वह कर्म उनके नीचे दवा रहता है और अनुकूल वातावरण आने पर अपना फल देता है।

         वास्तव में कोई भी कर्म बिना फल दिये नष्ट नहीं होता। कर्म और कर्मफल का जानना अति परिश्रमसाध्य है। किस कर्म का क्या, कितना कब, कैसे फल मिलेगा, इसको पूर्णरूपेण ईश्वर ही जान सकता है। आंशिक रूप से मनुष्य भी जान सकता है। आंशिक रूप में जानने से कर्म और कर्मफल पर पूर्ण विश्वास हो जाता है। इससे मनुष्य शुभ कर्मों को श्रद्धापूर्वक करता है और अशुभ कर्मों को छोड़ देता है। शुभ कर्मों के किये बिना अशुभ कर्मों को छोड़ना कठिन है।

ते ह्लादपरितापफलाः पुण्यापुण्यहेतुत्वात्।।
     ( ते ) वे जाति, आयु और भोग ( ह्लाद-परिताप-फलाः ) सुख और दुःख रूप फल वाले होते हैं ( पुण्य-अपुण्य-हेतुत्वात् ) पुण्य और पाप के कारण उत्पन्न होने से।
     वे जाति, आयु और भोग पुण्य और पाप कारणजन्य होने से सुख और दुःख रुप फल वाले होते हैं अर्थात् जिन जाति, आयु, भोग का कारण पुण्य होता है, वे सुख देने वाले होते हैं तथा जिन जाति, आयु, भोगों का कारण पाप होता है, वे दुःख देने वाले होते हैं।

     पुण्य कर्म करने वाले जीवों को विद्वान, धार्मिक सम्पन्न माता-पिता के घर में मनुष्य का जन्म मिलता है। वहां पर जाति, आयु, भोग सुखप्रद होते हैं। अपुण्य कर्म करने वाले जीवों को पशु आदि जन्म मिलता है। वहां जाति, आयु, भोग दुःखप्रद होते हैं।

रोग प्रतिरोधक क्षमता वर्धक काढ़ा ( चूर्ण )

रोग_प्रतिरोधक_क्षमता_वर्धक_काढ़ा ( चूर्ण ) ( भारत सरकार / आयुष मन्त्रालय द्वारा निर्दिष्ट ) घटक - गिलोय, मुलहटी, तुलसी, दालचीनी, हल्दी, सौंठ...