बुधवार, 25 दिसंबर 2019

आध्यात्मिक चर्चा - ६

आध्यात्मिक चर्चा - ६

आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

       पिछली चर्चा में हमने समझा कि आत्मा को कर्म करने के लिए साधन के रूप में शरीर प्राप्त होता है। आत्मा रथी है, शरीर रथ है, बुद्धि सारथी है, मन लगाम है, दश इन्द्रियाँ घोड़े हैं।
यहां अभी हम केवल इस प्रसंग को विस्तार देते है कि शरीर प्रकृति से बनता है और इसको समझने के लिए रथ के स्थान पर (आज के समय में) गाड़ी को लेते हैं ( रथ = गाड़ी ) ।
       हम गाड़ी खरीद कर लाते हैं, चलाते रहते हैं, खराव हो जाने पर मैकेनिक से ठीक करा लेते हैं और फिर चलाते रहते हैं। लेकिन एक दिन ऐसा भी आता है कि जब मैकेनिक कहता है कि अब आपकी गाड़ी ठीक नहीं होगी बहुत पुरानी हो गयी है या ठीक होने लाइक नही है अब इसे  बेचकर नयी ले लीजिए। पुरानी गाड़ी कबाडे़ वाले को देदेते हैं और नयी गाड़ी खरीद लेते हैं । अभी हम नयी गाड़ी के बारे में बात नही करेंगे , अभी देखते हैं पुरानी गाड़ी का क्या होगा। कबाड़े वाला गाड़ी को खोलकर उसके सभी हिस्सों को धातुओं के अनुसार अलग अलग इकट्ठा करता है। लोहा एक तरफ, प्लास्टिक एक तरफ, एल्मोनियम आदि धातुओं को अलग अलग रखता है। फिर कोई तो उन धातुओं को भट्टियों में डालकर शुद्ध करता है और उस उस शुद्ध धातुओं से नया सामन या गाड़ियों के पुर्जे बनाये जाते हैं । अर्थात् गाड़ी की सभी धातुएँ पुनर्चक्रण में काम आती हैं। 
      अब हम शरीर को देखेंगे कि यह शरीर भी गाड़ी की तरह से है क्या? तो हम पायेंगे कि बिल्कुल गाड़ी की तरह ही है। 
        यह शरीर भी खरीदा जाता है इसे खरीदने के लिए कर्म रूपी धन देना पड़ता है। अर्थात् हमारे कर्मों के आधार पर ही हमें शरीर प्राप्त होता है ।(इसकी चर्चा विस्तार से आगे लिखेंगे।) इस शरीर को चलाते रहते हैं तथा खराब होने पर इसे भी गाड़ी की तरह मैकेनिक (डाक्टर) से ठीक कराते रहते हैं । एक दिन इसका मैकेनिक - डाक्टर भी हाथ खड़े कर देता है, और कहता है कि इसे ले जाओ अब यह ठीक नही होगा/होंगे ( वो कोई भी हो सकते हैं हमारे सम्बन्धी) तब हम उन्हें अपने घर ले आते हैं । 
      यहां एक बात बताना बहुत ही आवश्यक है = वृद्धावस्था में उपरोक्त स्थिति बनने पर - जिनकी सन्तान संस्कारित होती है तो अपने वृद्धों की सेवा करती है तथा जिनकी सन्तान संस्कारित नही होती है उनको इस स्थिति से गुजरने पर बहुत कष्ट होता है। इसीलिए वक्त रहते सन्तान को संस्कारित अवश्य करना चाहिए। अपनी बात को और स्पष्ट करने के लिए यहाँ हम दो उदाहरण रखते हैं -

१. एक वृद्ध व्यक्ति ऐसी स्थिति में आगये जिनके लिए डाक्टर ने कह दिया कि अब हम इनका उपचार नही कर सकते, इनको घर ले जाइए और इनकी सेवा कीजिए ये ऐसी स्थिति में हैं कि कुछ दिन के ही हैं। उनके पुत्र उनको घर पर ले गये और सेवा तो पहले से ही कर रहे थे लेकिन अब उन्होंने अपने पिता की सेवा में कुछ ऐसा किया कि उदाहरण बन गया और सभी देखने वालों ने कहा कि हे परमेश्वर ! ऐसी सन्तान सभी को देना। उन्होंने अपने पिता जी की सेवा में घर पर ही वे सारे साधन एकत्रित कर लिए जो एक अच्छी गुणवत्ता वाले चिकित्सालय के आई०सी०यू० में होते हैं, दो डाक्टर लगाये जो एक एक करके दिन रात आवश्यक सेवा देते रहे, इसके साथ साथ पुत्र, पुत्रवधू तथा पुत्रियाँ बारी-बारी से हर समय पिता की सेवा में लगे रहे। परिवारी जनों का बस एक ही उद्देश्य था कि पिता जब तक रहें सुख से रहें। इस उदाहरण को बताने में मुझे भी बहुत अच्छा लगता है क्योंकि यह परिवार मेरे भी निकट है , मेरा यजमान परिवार है उनका नाम है श्री रविन्द्र सिंह चौहान। इनके लिए परमेश्वर से प्रार्थना है कि सदा सुखी रहें, हमेशा वेद मार्ग के अनुगामी रहें।

२. दूसरा उदाहरण नेपाल का है - इस उदाहरण को पढ़कर आप कहेंगे कि हे प्रभो ऐसी सन्तान किसी को नही देना। नेपाल के एक चिकित्सालय में एक फोन आता है कि नौकर के साथ के एक वृद्ध व्यक्ति आरहे हैं उनकी चिकित्सा कीजिए । चिकित्सक वृद्ध व्यक्ति का उपचार आरम्भ कर देते हैं अवस्था कुछ ऐसी थी उनकी दो दिन बाद मृत्यु हो गयी । ध्यान देने की बात यह है जिसने चिकित्सालय में वृद्ध का उपचार कराने के लिए फोन किया था वह उन वृद्ध का बेटा ही है लेकिन देखने तक नहीं आता है और अपने पिता की मृत्यु के बाद भी डाक्टर को फोन पर कहता है कि इनकी अन्त्येष्टि भी करा देना हम आपको उसका भी पैसा देदेंगे।
समाज में संस्कार हीनता बढ़ती जा रही है इसके बढ़ते अभी और अधिक भयानक परिमाण सामने आयेंगे। समाज में नैतिकता का वातावरण तैयार करने के लिए केवल संस्कार की साधन हैं।
        आइये फिर हम अपने प्रसंग पर आते हैं - एक दिन शरीर को छोडकर आत्मा जब चला जाता है तब दो प्रश्न उपस्थित होते हैं कि आत्मा कहां गया? और इस मृत शरीर का क्या करें? ( आत्मा अपने कर्मों के आधार पर परमेश्वर की न्याय व्यवस्था में आगे गति करता है या तो नये शरीर को प्राप्त करता है या मुक्ति में चला जाता है। जिसकी चर्चा आगे करेंगे ।) मृत शरीर के लिए वेद में आदेश है - भस्मान्तं शरीरं (यजु०) मृत शरीर का अन्त्येष्टि कर्म करना होता है इसे ही नरमेध, पुरुषमेध, नरयाग, पुरुषयाग तथा दाह कर्म कहते हैं। मृत शरीर को अग्नि में रख दिया जाता है और अग्नि इस शरीर के सभी पांचों तत्वों (अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश)  को अलग अलग कर देती है । अग्नि अपना भाग ले लेती है, जल वाष्प बनाकर अलग कर देती है , वायु का भाग वायु में मिल जाता है, आकाश का भाग आकाश में मिल जाता है तथा जो पड़ा रह जाता है वह भूमि का भाग है इसीलिए प्राचीन काल में अस्थियों को भूमि में गाड़ा जाता था । अस्थियों को नदियों में विसर्जित करना कुप्रथाहै। इसीलिए एक बात समाज में प्रचलित है कि अमुख व्यक्ति पंच तत्व में विलीन हो गया ।
         अस्थियों से आत्मा का अब कोई सम्बन्ध नहीं रहा जाता है। अस्थियों के नदी में विसर्जित करने से आत्मा की गति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। आत्मा तो अपने कर्मों के आधार पर आगे की गति करता है । यदि ऐसा हो कि केवल अस्थियों के नदियों में विसर्जित करने से ही मुक्ति मिल जाय तो किये गये कर्मों का क्या औचित्य रह जायेगा।

क्रमशः ...

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