बुधवार, 30 दिसंबर 2020

धर्म‌ की यथार्थता

                        ।।धर्म की यथार्थता ।।

                                आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री
                                               ( वैदिक प्रवक्ता )

     किसी भी शब्द के अर्थ को ठीक-ठीक(यथार्थ रूप से)जानकर ही सही प्रयोग किया जा सकता है। जैसे यज्ञ का अर्थ केवल हवन के लिए गौण हो गया है, जबकि यज्ञ का अर्थ देव पूजा ,संगतिकरण करना,और दान करना है ।महर्षि दयानंद के शब्दों में यदि उसको कहते हैं कि - जिसमें माता-पिता विद्वान का सत्कार यथा योग्य शिल्प अर्थात रसायन जोके पदार्थ विद्या उससे उपयोग और विद्याधीश गुणों का दान अग्निहोत्री आदि जिनसे वायु वृष्टि जन औषधि की पवित्रता करके सब जीवो को सुख पहुंचाना है।
यज्ञ संपूर्ण कामनाओं को पूर्ण करता है, यह सत्य है लेकिन इसके लिए यज्ञ करना यज्ञ के संपूर्ण अर्थ को जानकर इन्हें जीवन में धारण करना चाहिए।
       इसी प्रकार धर्म शब्द पूजा के लिए गौण हो गया है जन सामान्य के अनुसार जो लोग पूजा करते कराते हैं, वे धार्मिक कहलाते हैं। पूजा स्थल को धार्मिक स्थल कहा जाता है ।पूजा साहित्य को धार्मिक साहित्य कहा जाता है।
   क्या इसके अतिरिक्त और कोई धर्म और धार्मिक नहीं है ?
क्या ईमानदारी से व्यापार करने वाला व्यक्ति धार्मिक नहीं है ?
क्या जीवो पर दया करना धर्म नहीं है ?
क्या माता पिता की सेवा करना धर्म नहीं है ?
क्या राष्ट्रहित में अपना सर्वस्व समर्पित करने वाला व्यक्ति धार्मिक नहीं है?
      उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर सोचते हैं या पूछते हैं तो उत्तर धर्म है ऐसा आता है ।अर्थात् माता-पिता की सेवा करना धर्म है इमानदारी से व्यापार करना धर्म है राष्ट्रहित में बलिदान धर्म है तो फिर धर्म का यथार्थ रूप क्या है?
 धर्म बहुत व्यापक है जिसमें पूजा का भी स्थान है लेकिन पूजा संपूर्ण धर्म नहीं उसका एक अंग है (वास्तव में वेदानुकूल पूजा ही धर्म है, वेद विरुद्ध पूजा धर्म नहीं है )।व्यक्तिगत, आत्मिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और विश्व उन्नति के लिए अपनाए गए सभी उचित कर्तव्य धर्म के अंतर्गत आते हैं।
धर्म की परिभाषाएँ:-
भाषा वैज्ञानिक महामुनि पाणिनि का व्याकरण के अनुसार धृञ् धारणे धातु से मन् प्रत्यय के योग से धर्म शब्द सिद्ध होता है।
"धारणात् धर्म इत्याहुः" "ध्रियते अनेन लोकः।"
 आदि व्युत्पत्तियों के अनुसार जिसे आत्मोन्नति और उत्तम सुख के लिए धारण किया जाए अथवा जिसके द्वारा लोगों को धारण किया जाए अर्थात् व्यवस्था या मर्यादा में रखा जाए उसे धर्म कहते हैं ।इस प्रकार आत्मा की उन्नति करने वाला मुख्य तथा उत्तम व्यावहारिक सुख को देने वाला सदाचार कर्तव्य अथवा श्रेष्ठ विधान नियम धर्म है।
  वैशेषिक दर्शनकार महर्षि कणाद धर्म के विषय में लिखते हैं-अथातो धर्म व्याख्यास्यामः।(वैशेषिक१/१/१)
अनंतर धर्म की व्याख्या करेंगे और आगे लिखते हैं- अतोsभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि: स धर्मः।(वै०१/१/२)
अर्थात्‌ जिसके आचरण से मनुष्य की शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक उन्नति, व्यावहारिक उत्तम सुख की प्राप्ति एवं वृद्धि हो तथा मोक्ष सुख की सिद्धि हो वह आचरण या कर्तव्य धर्म है।जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की प्राप्ति होगी उसे धर्म कहते हैं।
 किसके आधार पर समझें इसका उत्तर देते हुए महर्षि लिखते हैं-तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्।
आम्नाय-वेद प्रामाण्य है अर्थात् धर्म के विषय में वेद ही प्रमाण है।
धर्म का ही आचरण करने से कल्याण होता है ।
धर्म हमें कहां से प्राप्त होगा ?
जो हमें आचरण करना है उस आचरण को कौन बताएगा?
 ऐसा ही प्रश्न अन्य ऋषियों के सामने आया।
"अथातो धर्म जिज्ञासा"(मीमांसा१/१/१)
धर्म को जानने की इच्छा के लिए विचार किया जाता है कहकर मीमांसा दर्शनकार महामुनि जैमिनि आरंभ करते हैं तथा धर्म के विषय को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि-चोदना लक्षणोsर्थो धर्मः।(मीमांसा१/१/२)
चोदना=नोदना=प्रेरणा=विधि वाक्य=वेद अर्थात्‌ विधि वाक्य से जो जाना जाए उसे धर्म का लक्षण कहते हैं ।अर्थात् वेदों से मनुष्यों को करने के लिए जो कर्तव्य निहित किये हैं। वह धर्म है।
महर्षि दयानंद सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं -जो पक्षपात रहित,न्यायाचरण, सत्यभाषणादि युक्त ईश्वराज्ञा वेदों के अविरुद्ध है उसे धर्म और पक्षपात सहित न्याय अन्यायाचरण,मिथ्या भाषणादि ईश्वराज्ञा भंग,वेद विरुद्ध है उसको अधर्म कहते हैं।
         महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा दी गई धर्म अधर्म की परिभाषा एक कसौटी है ,यदि पक्षपात  नहीं हो रहा है, सत्यता के साथ न्याय किया जा रहा है तो धर्म है और यदि पक्षपात हो रहा है झूठ का सहारा लेकर अन्याय हो रहा है तो वह चाहे कोई भी करे अधर्म हो रहा है तथा सत्यासत्य का अंतिम प्रमाण वेद ही है।
            धर्म की जांच के प्रमाण:-
वेद धर्म है और वेद के विरुद्ध अधर्म है लेकिन आज संसार में अनेक धर्म कहे जा रहे हैं। देश, काल,परिस्थिति के अनुसार स्वार्थवश,अज्ञानवश कुछ व्यक्तियों ने संगठन बनाए जो मत,पंथ ,संप्रदाय हैं।जिन्हें आज धर्म कहा जा रहा है।तो क्या अनेक धर्म है ?
क्या अनेक धर्म हो सकते हैं?
 वेद ही धर्म क्यों है?
धर्म एक है।अनेक नहीं हो सकते। सत्य का कोई विकल्प नहीं है -अनेक सत्य नहीं होते और सत्य के साथ दूसरा कहलाने वाला असत्य होता है ।जब धर्म सत्य धर्म है तो असत्य दूसरा धर्म नहीं है ।असत्य अधर्म है इसी प्रकार चूंकि वेद परमात्मा प्रदत्त है अतः वेद ही धर्म है, दूसरा धर्म विरोधी अधर्म है ।
 हम सभी मत,पंथ, संप्रदायों को धर्म मान लेते हैं यदि वे सभी एक जैसी व सत्य बात करते,जबकि यह एक दूसरे के विरोधी हैं ।
जब दो व्यक्ति विरोधी बातें करते कर रहे हों तो -
दोनों सत्य नहीं हो सकते दोनों गलत तो हो सकते हैं।
 एक सही हो सकता है इसका पैमाना क्या है अर्थात् कैसे जांच की जाए कि कौन सही है, कौन गलत है?
 इसका उत्तर महर्षि दयानंद सरस्वती व्यवहार भानु में लिखते हैं सत्य का निर्णय करने के लिए।
१-ईश्वर,उसके गुण कर्म स्वभाव और वेद विद्या।
२-सृष्टि क्रम।
३-प्रत्यक्ष आदि आठ प्रमाण।
४-आप्तों का आचार-उपदेश-ग्रन्थ और सिद्धान्त ।
५- अपनी आत्मा की साक्षी, अनुकूलता,जिज्ञासा,पवित्रता और विज्ञान।
१-ईश्वरादि से परीक्षा करना इसको कहते हैं कि जो-जो ईश्वर के न्याय आदि गुण पक्षपात रहित सृष्टि बनाने का कर्म और सत्य,न्याय,दयालुता, परोपकारिता आदि स्वभाव और वेदोपदेश से सत्य धर्म ठहरे वही सत्य और धर्म है और जो-जो असत्य और अधर्म ठहरे वही असत्य और अधर्म है।
 जैसे कोई कहे कि बिना कारण और कर्ता के कार्य होता है तो सर्वथा मिथ्या जानना।इससे यह सिद्ध होता है कि जो सृष्टि की रचना करने हारा पदार्थ है वही ईश्वर और उस के गुण ,कर्म ,स्वभाव वेद और सृष्टिक्रम से ही निश्चित जाने जाते हैं।
२-सृष्टिक्रम उसको कहते हैं कि जो-जो सृष्टिक्रम अर्थात् सृष्टि के गुण,कर्म और स्वभाव से विरुद्ध हो वह मिथ्या और अनुकूल हो वह सत्य कहाता  है ।
   जैसे कोई कहे बिना मां-बाप का लड़का,कान से देखना,आंख से बोलना आदि होता वा हुआ है ऐसी-ऐसी बातें सृष्टिक्रम के विरुद्ध होने से मिथ्या और माता-पिता से संतान,कान से सुनना और आंख से देखना आदि सृष्टिक्रम के अनुकूल होने से सत्य ही है।
३-प्रत्यक्षादि आठ प्रमाणों से परीक्षा करना उसको सत्य कहते हैं कि जो-जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से ठीक-ठीक ठहरे वह सत्य और जो-जो विरुद्ध ठहरे वह मिथ्या समझना चाहिए।
  जैसे किसी ने किसी से कहा कि यह क्या है? दूसरे ने कहा कि पृथिवी । यह प्रत्यक्ष है ।
इसको देख कर उसके कारण का निश्चय करना अनुमान।जैसे बिना बनाने हारे के घर नहीं बन सकता वैसे ही सृष्टि का बनाने हारा ईश्वर ही बड़ा कारीगर है।यह दृष्टांत उपमान और सत्योपदेष्टाओं  का उपदेश वह शब्द।
भूतकालस्थ पुरुषों की चेष्टा,सृष्टि आदि पदार्थों की कथा आदि को ऎतिह्य ।
  एक बात को सुनकर बिना सुने  कहे कोई प्रसंग से दूसरी बात को जान लेना यह अर्थापत्ति ।
कारण से कार्य होना आदि को संभव और आठवां अभाव अर्थात् किसी ने किसी से कहा कि जल ले आ। उसने  वहां जल के अभाव को जानकर तर्क से जाना वहां जल नहीं है जहाँ जम है वहाँ से  जल लाकर देना चाहिए ,यह अभाव का प्रमाण कहाता है ।
इन आठ प्रमाणों से  जो विपरीत न हो वह-वह सत्य और जो- जो उल्टा हो मिथ्या है।
४-आप्तों के आचार और सिद्धान्त से परीक्षा करना उसको कहते हैं जो-जो सत्यवादी,सत्यकारी,सत्यमानी, पक्षपातरहित, सब के हितैषी, विद्वान्, सबके सुख के लिए प्रयत्न करें वे धार्मिक लोग आप्त कहाते हैं। उनके उपदेश, आचार,ग्रंथ और सिद्धांत से जो युक्त हो वह सत्य और जो विपरीत हो वह मिथ्या है।
५-आत्मा से परीक्षा उसको कहते हैं कि जो- जो अपनी आत्मा अपने लिए चाहे सो-सो सब के लिए चाहना और जो- जो न चाहे सो-सो किसी के लिए न चाहना ।जैसा आत्मा में वैसा मन में, जैसा मन में वैसा क्रिया में, होने की इच्छा जानने की इच्छा, शुद्ध भाव और विद्या के नेत्र से देखकर सत्य और असत्य का निश्चय करना चाहिए।
  इन पांच प्रकार की परीक्षाओं से पढ़ने पढ़ाने हारे तथा सब मनुष्य सत्यासत्य का निर्णय करके धर्म का ग्रहण और अधर्म का परित्याग करें करावें।
  उपरोक्त पांचों प्रमाणों का आधार भी वेद ही है इसीलिए ईश्वर, आप्त, ग्रंथ आदि के विषय की स्पष्टता,सत्यता वेद ज्ञान से ही संभव है ।
    आज संसार में विभिन्न मत,पंथ,संप्रदाय चल रहे हैं।सभी एक दूसरे के विरोधी हैं तथा धर्म कहलाते हैं जोकि धर्म नहीं हो सकते। धर्म मेल को कहते हैं विरोध को नहीं विरोधी होने पर कोई न कोई गलत है जैसे एक अध्यापक ने 40 विद्यार्थियों को एक गणित का प्रश्न हल करने को दिया उनमें से 15 विद्यार्थियों का उत्तर सही था तथा 25 विद्यार्थियों का उत्तर गलत था।यदि अब प्रश्न यह कर दिया जाए के समानता 15 विद्यार्थियों के उत्तर में है या 25 विद्यार्थियों के उत्तर में है तो उत्तर होगा कि 15 विद्यार्थियों के उत्तर में समानता है क्योंकि यह सही है।सही-सही ही मिलता है, गलत-गलत नहीं मिलता। विभिन्न संप्रदायों का एक दूसरे के साथ वैचारिक मतभेद (न मिलना)यह बताता है कि कोई न कोई गलत है। अगर सभी सही सही होते तो मिला होता।इसीलिए सार्वभौमिक, सार्वकालिक एवं सार्वदेशिक वेद ही धर्म है ।अतः वेद पर ही चलना चाहिए।
    सत्य सनातन वैदिक धर्म के आगे दुनिया का कोई भी सांप्रदायिक अपने संप्रदाय की डींग नहीं मार सकता है।
धर्म का व्यावहारिक रूप:-
      एक बार ऋषि,महर्षि एकाग्रता पूर्वक बैठे हुए महाराज मनु के पास जाकर और उनका यथोचित सत्कार करके बोले- हे भगवान् आप ही धर्म कर्तव्यों को बताने में समर्थ हैं। कृपा करके हमें बताइए ।इस जिज्ञासा रूपी प्रश्न के उत्तर में महाराज मनु ने सही कर्तव्यों और धर्म का मूल वेद ही कहा-
वेदोsखिलो धर्म मूलं स्मृति शीले च तद्विदाम्।
आचारश्चैव साधुनां आत्मनस्तुष्टिरेव च।।(मनु१/१२५)
संपूर्ण वेद अर्थात् चारों वेद (ऋग्वेद,यजुर्वेद, सामवेद,अथर्ववेद)के पारंगत विद्वानों के रचे हुए स्मृति ग्रंथ (वेदानुकूल धर्मशास्त्र), श्रेष्ठ गुणों से संपन्न स्वभाव एवं श्रेष्ठ सत्याचरण करने वाले पुरुषों का सदाचार तथा ऐसे ही श्रेष्ठ सदाचरण करने वाले व्यक्तियों की अपनी आत्मा की संतुष्टि के कार्य धर्म के मूल हैं।
    उपरोक्त श्लोक  के माध्यम से धर्म के विषय में व्यापक समाधान दिया है इसमें चार प्रश्नों के उत्तर हैं ।
प्रश्न-धर्म का मूल स्रोत क्या है?
उत्तर- धर्म का मूल स्रोत वेद है ।
प्रश्न- क्या वेद के अतिरिक्त ग्रंथ भी धर्म ग्रंथ हैं ?
प्रश्न- स्मृति आदि धर्मग्रंथ (वेदानुकूल)
प्रश्न- स्मृतियों के अतिरिक्त धर्म की जानकारी कैसे होगी?
उत्तर- वेदानुकूल आचरण करने वाले साधुओं के आचरण से ।
प्रश्न-साधुओं के आचरण के अतिरिक्त धर्म को कैसे जानें।
उत्तर-श्रेष्ठ आचरण करने वाले व्यक्तियों की आत्मा की संतुष्टि के कार्यों से।
     इन चारों प्रश्नों पर थोड़ा-थोड़ा प्रकाश डालते हैं। प्रथम प्रकाश के उत्तर में मनु महाराज का कथन है कि(वेद:अखिल धर्म मूलम्) वेद धर्म का मूल है। क्योंकि वेद परमात्मा का ज्ञान है।
    इस संदर्भ में कुछ कसौटियां इस प्रकार हैं-
१- ईश्वरीय ज्ञान मानव सृष्टि के आरंभ में होना चाहिए।
२- ईश्वरीय ज्ञान पूर्ण होना चाहिए।
३-  ईश्वरीय ज्ञान में ईश्वर के बनाये  संसार के साथ एकरूपता होनी चाहिए।
४- ईश्वरीय ज्ञान विज्ञान के अनुकूल होना चाहिए।
५- ईश्वरीय ज्ञान पक्षपात रहित( मनुष्य मात्र के लिए )होना चाहिए।
      वेद ही उपरोक्त कसौटियों पर खरा उतरता है अतः वेद ज्ञा न ही ईश्वरीय ज्ञान है। इसीलिए वेद ही धर्म है ।
   द्वितीय प्रश्न -जो वेदों को न पढ़ सकें तो धर्म की जानकारी कैसे हो? इस प्रश्न के उत्तर में मनु महाराज कहते हैं कि -( स्मृति शीले च तद्विदाम्) स्मृति आदि से धर्म का ज्ञान प्राप्त होगा ।इस प्रकार के उत्तर पर क्या सभी स्मृतियां धर्म ग्रंथ की श्रेणी में आयेंगी?क्या पुराण धर्म ग्रंथ की श्रेणी में आयेंगे? क्या सांप्रदायिक ग्रंथ भी धर्म ग्रंथ की श्रेणी में आयेंगे? 
     इसका उत्तर यह होगा कि वे ही स्मृतियां या ग्रंथ धर्म ग्रंथों की श्रेणी में आयेंगे  जो वेदानुकूल होंगे। वेद विरुद्ध या स्मृतियाँ धर्म ग्रंथ नहीं हैं।महाराज मनु वेद के दस लक्षण मनुस्मृति में इस प्रकार लिखते हैं-                         धृतिः क्षमा दमोsस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्यासत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।(मनु६/९२)
 महर्षि दयानंद ने संस्कार विधि में इस श्लोक को उद्धृत कर के वहां अहिंसा को भी धर्म का लक्षण मानकर धर्म के ग्यारह  लक्षण कहा है-
१-अहिंसा-किसी से वैर बुद्धि करके उसके अनिष्ट में कभी ना बर्तना।
२-धृतिः- सुख-दुख, हानि-लाभ में व्याकुल होकर धर्म को न छोड़ना, किंतु धैर्य से धर्म ही में स्थिर रहना।
३-क्षमा- निन्दास्तुति, मानापमान को सहन करके धर्म ही करना।
४-दमः- मन को अधर्म से सदा हटाकर धर्म में ही प्रवृत्त करना।
५- अस्तेयम्-  मन,कर्म,वचन से अन्याय और अधर्म से पराये द्रव्य का स्वीकार न करना।
६-शौचम्- राग,द्वेष त्याग से आत्मा और मन को पवित्र रखना तथा जलादि से शरीर को शुद्ध रखना ।
७-इन्द्रियनिग्रह- श्रोत्रादि बाह्यइन्द्रियों को अधर्म से हटाकर धर्म ही मैं चलाना ।
८-धीः-वेदादि सत्य विद्या, ब्रह्मचर्य ,सत्संग करने ,कुसंग-दुर्व्यसन,मद्यपानादि त्याग से बुद्धि को सदा बढ़ाते रहना ।
९-विद्या-जिससे भूमि से लेकर परमेश्वर पर्यंत यथार्थ बोध होता है वह विद्या को प्राप्त करना ।
१०-सत्यम्-सत्य मानना, सत्य बोलना ,सत्य करना।
११-अक्रोध- क्रोधादि दोषों को छोड़कर शान्त्यादि गुणों को ग्रहण करना धर्म कहाता है ।
   महर्षि पतंजलि योग दर्शन में उपरोक्त लक्षणों को योग के अंगों यम और नियम में रखते हैं। इनके बिना योग साधना नहीं की जा सकती।
यम- अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यपरिग्रहा यमाः।
नियम-शौचसन्तोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः।
महर्षि अगस्त्य इन  लक्षणों को ही तीर्थ कहते हैं-
सत्यं तीर्थं क्षमा तीर्थं तीर्थमिन्द्रियनिग्रह:।।
सर्वभूत दया तीर्थं तीर्थमार्जवमेव च।।
दान तीर्थं दमस्तीर्थं संतोषस्तीर्थमुच्यते"।
ब्रह्मचर्यं परं तीर्थं तीर्थं च प्रियवादिता।।
ज्ञान तीर्थं धृतिस्तीर्थं तपस्तीर्थमुदाहृतम्। 
तीर्थानामपि तत्तीर्थं विशुद्धिर्मनसःनरा।।
न जल्पाप्लुतः देहस्य स्नानमित्यभिधीयते।
स स्नातो यो दमस्नातः शुद्धि मनोबलः।।
                   (काशीखण्ड३/२४-३२)

सत्य तीर्थ है,क्षमा तीर्थ है,इंद्रिय संयम तीर्थ है, सब प्राणियों के प्रति दया तीर्थ है,सरलता ,दान ,मन का दमन, संतोष ब्रह्मचर्य ,प्रिय बोलना भी तीर्थ है। ज्ञान, धृति और तपस्या यह सब तीर्थ है, इनमें ब्रह्मचर्य परम तीर्थ है, मन की विशुद्धि तीर्थों का भी तीर्थ है, जल में डुबकी लगाने का नाम ही स्नान नहीं है ,जिसने इंद्रिय संयम रूप स्नान किया बुराहै वहीं स्नान है और जिसका चित्त शुद्ध हो गया वही पवित्र है।
    समाजशास्त्र में इन लक्षणों को मानव मूल्य कहा है अर्थात् यदि व्यक्ति इन लक्षणों को अपने जीवन में धारण करता है तो वह मूल्यवान हो जाता है। प्रसिद्ध हो जाता है,मान सम्मान को प्राप्त करता है।
       सत्य,अहिंसा,धैर्य, परोपकार,संतोष,विद्या, अस्तेय, अक्रोध,समयपालन, प्रेम,उत्साह,निर्भीकता, संयम, पवित्रता आदि मानव मूल्य हैं।
अधर्म के लक्षण:-
महाराज मनु ने अधर्म के भी दस लक्षण लिखे हैं-
परद्रव्येषु अभिध्यानम्,मनसा अनिष्टचिन्तनम्।
वितथ अभिनिवेशश्च,त्रिविध कर्म मानसम्।।(मनु१२/५)
मानसिक कर्मों में से तीन मुख्य अधर्म हैं- परद्रव्य हरण अथवा चोरी का विचार,लोगों के बारे में बुरा चिंतन करना,मन में द्वेष करना,ईर्ष्या करना, मिथ्या निश्चय करना।
पारुष्यमनृतं चैव,पैशून्यं चापि सर्वशः।
असम्बद्ध प्रलापश्च,वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम्।।(मनु१२/६)
वाचिक का धर्म चार हैं- कठोर भाषण (सब समय पर,सब ठौर मृदुभाषण करना यह मनुष्यों को उचित है) किसी अंधे मनुष्य को ओ अंधे! ऐसा कह कर पुकारना नि:सन्देह सत्य है परंतु कठोर होने से अधर्म है, सत्य बोलना, पैशुन्य अर्थात् चुगली करना, असम्बद्ध प्रलाप अर्थात् जानबूझकर कर बातों को उड़ाना।
अदत्तानामुपदानम्,हिंसा चैवाविधानतः।
परदारोपसेवा च ,शारीरं त्रिविधं स्मृतम्।।(मनु१२/७)
शारीरिक अधर्म तीन हैं- चोरी करना ,हिंसा (क्रूर कर्म),व्यभिचार।
     तृतीय प्रश्न उपस्थित होता है,यदि मनुष्य स्मृति आदि धर्म ग्रंथों को न  पढ़ सके तो धर्म का जान कैसे होगा ?मनुष्य स्मृति आदि धर्म ग्रंथों को न पढ़ सकें तो(आचारश्चैव साधूनाम्) साधुओं की आचरण से धर्म की जानकारी करके अपने आचरण को ठीक करें।
        उपरोक्त कथन पर आज समाज में देखने पर बड़ा विचित्र- सा दृश्य सामने आता है।आज साधु कहलाने वाले व्यक्तियों के आचरण बड़े ही गंदे पाए जाते हैं तथा इन को आपस में लड़ते देखा जाता है। चोरी,डकैती,व्यभिचार,रिश्वतखोरी तस्करी आदि कार्यों में लिप्त पाए जाने वाले साधु वेषधारियों का आचरण अपनाने योग्य है क्या? साधु कहलाने वाले आपस में लड़ते हैं। क्या धर्म लड़ाना सिखाता है ? किसकी मानें-
∆   एक कहता है कि जीवों पर दया करना धर्म है ,जबकि दूसरा धर्म के नाम पर निरीह जीवों की हत्या कर देता है।
∆  एक कहता है कि पराई स्त्री को मां, बहन, बेटी के समान समझो, जबकि दूसरा कहता है कि हमारे धर्म (संप्रदाय) को ना मानने वालों की स्त्रियों का अपहरण करो।
 ∆  एक कहता है कि पराये धन को मिट्टी के ढेले के समान समझो, जबकि  दूसरा धर्म के नाम पर लूट कराता है और लूट को पवित्र कहता है ।
∆  एक कहता है कि परमात्मा सभी को न्याय करके कर्मों का फल देता है ,जबकि दूसरा कहता है कि परमात्मा केवल हमारे धर्म( संप्रदाय) के लोगों पर ही दया करता है दूसरे धर्म के व्यक्तियों पर दया नहीं करता।
∆  एक कहता है कि आत्मा अमर है ,जबकि  दूसरा कहता है कि आत्मा शरीर के साथ ही मर जाता है।
∆   एक कहता है कि जो जैसा करेगा वैसा फल प्राप्त करेगा ,जबकि दूसरा पाप से बचने के सरल प्रलोभन दे रहा है । 
∆  एक कहता है के परिवार के सदस्यों को आपस में मिलकर रहना धर्म है ,जबकि  दूसरा तंत्र- मंत्र- यंत्र का जाल बिछाकर परिवार के सदस्यों को आपस में लड़ा देता है ,पड़ोसियों को आपस में लड़ा देता है।
∆   किसके कथन को सत्य मानें ,क्योंकि दोनों ही स्वयं को धर्म का प्रचारक, रक्षक, पोषक( ठेकेदार) कहते हैं।
     उपरोक्त शंकाओं का समाधान तो साधु शब्द से ही हो जाता है ,क्योंकि श्रेष्ठ अर्थात् वेदानुसार आचरण करने वाले व्यक्ति को ही साधु कहते हैं और उनका ही आचरण अपनाने के लिए महाराज मनु कहते हैं। नकली साधुओं ने संसार में वैचारिक प्रदूषण किया है जिससे ही सब समस्याएं उत्पन्न हुई हैं।
   प्रश्न चतुर्थ  उपस्थित होता है कि साधुओं के न मिलने पर धर्म का ज्ञान कैसे होगा? इस प्रश्न के उत्तर में महाराज मनु का कहना है कि (आत्मनतुष्टिः।) आत्मा की संतुष्टि जिन कारणों से होती है वे धर्म होते हैं।
  ऐसा  कहने पर फिर शंकायें होती हैं-
    इस प्रकार तो व्यक्तियों की संख्या के अनुसार आत्मा के प्रिय संतुष्टि के कार्य भी पृथक- पृथक हो जाएंगे, क्या यह सब धर्म होगा ?
   इसी प्रकार दुष्ट संस्कारी,राक्षस संस्कारी, तमोगुणी प्राणी हैं ,बाल्यकाल से ही जो जीव हत्या, मांस भक्षण आदि कार्य करते आ रहे हैं उनमें इन कार्यों के प्रति भय,शंका तथा लज्जा की अनुभूति नहीं होती है क्या उनकी आत्मा के प्रिय को धर्म  माना जायेगा।
   जैसे कोई व्यक्ति सन्ध्योपासना, अग्निहोत्र, विद्या प्राप्ति,शुद्धि और कर्तव्य पालन नहीं करता और    अतीन्द्रियासक्ति,अंधविश्वास, अंधमान्यता आदि से ग्रस्त हैं तो वह चाहेगा कि मैं इन सब बातों के संदर्भ में किसी से कुछ नहीं कहता तो दूसरे भी मुझसे कुछ न कहें। दूसरों के कहने पर वह पीड़ा अनुभव करेगा, क्या उसकी आत्मा की संतुष्टि धर्म है?
इन आपत्तियों के होने पर यह कहा जा सकता है कि सभी की आत्मा प्रिय संतुष्टि करने वाला कार्य धर्म  नहीं होता अपितु सद्गुण संपन्न साधु पुण्यात्मा विद्वानों की आत्मा के प्रिय कार्य ही धर्म हैं अर्थात् जो वेदानुकूल आचरण करते हैं उन्हीं की आत्मा की संतुष्टि के कार्य धर्म कहलाते हैं।
     महर्षि दयानंद सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में लिखते हैं -कि मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जानने वाला है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और विद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है ।अर्थात् जो व्यक्ति स्वार्थी, हठी, दुराग्रही एवं अविद्वान् है उसकी आत्मा का प्रिय धर्म नहीं है अपितु जो परोपकारी ,विद्वान् है उसी की आत्मा की संतुष्टि धर्म है।व्यावहारिक कार्यों के लिए महर्षि पतंजलि योग दर्शन में लिखते हैं- जिन कार्यों के करने से आत्मा में भय,शंका तथा लज्जा होती है वे कार्य अधर्म होते हैं, उन्हें नहीं करना चाहिए ।
 महात्मा चाणक्य ने कहा है-
आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति सः पश्यति।      (चा०नी०१२/१३)
जो अपनी आत्मा की तरह सभी प्राणियों की आत्मा को देखता है वह सही देखता है।
महर्षि व्यास ने कहा -
श्रूयतां धर्म सर्वस्व श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्‌।।
       सुनो धर्म सर्वस्व और सुनकर धारण कर लो, अपनी आत्मा के प्रतिकूल किसी के साथ आचरण मत करो। जैसा अपने लिए चाहते हो वैसा दूसरों के लिए करो यही धर्म अर्थात् हम जैसा- जैसा अपने लिए चाहते हैं वैसा- वैसा ही व्यवहार दूसरों के लिए करें, मैं चाहता हूं कि सब मेरा सम्मान करें तो मुझे भी सब का सम्मान करना चाहिए। मैं चाहता हूं कि मेरी उन्नति होती रहे, मेरी उन्नति में कोई बाधक न बने  तो मैं भी किसी की उन्नति में बाधक न बनूं। मैं चाहता हूं कि मेरा जीवन दुःख रहित हो तो मुझे भी चाहिए कि मैं किसी को दुख न दूं।
चाहता है खैर अपनी काट गर्दन और की,
 ऐसी बातों से सजन मन को लगाना छोड़ दे।
 इस मुबारक पेट में कबरें बनाना छोड़ दे।।
          महर्षि दयानंद सरस्वती ने उसी को मनुष्य का है जो कि आत्मानुसार बर्ते- मनुष्य उसी को कहना जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्य के सुख-दुख और हानि- लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे । इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व  सामर्थ्य से धर्मात्माओं की, चाहे वे महा अनाथ, निर्बल क्यों न हों उनकी रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती, सनाथ ,महाबलवान और गुणवान भी हो उससे भी न डरे।  
अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा करे,इस काम में चाहे उसको कितना ही दारुण दुख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी चले जायें, परन्तु इस मनुष्य रूपी धर्म से पृथक कभी न होवे।ब्रह्मा से लेकर दयानंद पर्यंत ऋषियों ने जो भी संदेश दिया है वह वेद का ही है।
 उपरोक्त आत्मवत्  व्यवहार का चिंतन वेद में इस प्रकार दिया है-
यजुर्वेद में आत्मवत् व्यवहार करने का ही उपदेश है-
यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः।।(यजु४०/३)
    हे मनुष्यो!जिस  परमात्मा, ज्ञान,विज्ञान वा धर्म विशेष कर ध्यान दृष्टि से देखते हुए को सब  प्राणी मात्र अपने तुल्य ही सुख-दुख वाले होते हैं उस परमात्मा आदि में अद्वितीय भाव को अनुकूल योगाभ्यास से देखते हुए योगीजन को कौन मूढावस्था और शोक वा क्लेश होता है अर्थात कुछ भी नहीं ।
भावार्थ- जो विद्वान्, सन्यासी लोग परमात्मा के सहचारी प्राणिमात्र को अपने आत्मा के तुल्य जानते हैं अर्थात् जैसा अपना हित चाहते हैं वैसे ही अन्य में ही वर्तते हैं, एक अद्वितीय परमेश्वर के शरण को प्राप्त होते हैं उनको मोह शोक और लोभादि कदाचित् प्राप्त नहीं होते और जो लोग अपने आत्मा को यथावत् जानकर परमात्मा को जानते हैं वे सदा सुखी होते हैं।
यजुर्वेद में आत्मा के विरुद्ध आचरण करने वालों की गति का वर्णन किया है-
असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः।
तांस्ते प्रेत्यापि गच्छन्ति ये के चात्महनोजनाः।।(४०/३)
   प्रस्तुत विवरण से  स्पष्ट है कि धर्म का यथार्थ ज्ञान हमें वेद से ही हो सकता है ।अन्य किसी मार्ग से नहीं। अतः हमें वेद में वर्णित आचारसंहिता का पालन करना चाहिए।
 वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है।(महर्षि दयानन्द )
 वेद ही अनंत ज्ञान का भण्डार है ।(अनन्ताः वै वेदाः महर्षि याज्ञवल्क्य)
वेद से महान् कोई शास्त्र नहीं है (नास्ति वेदात् परं शास्त्रम् -महर्षि अत्रि)
जो वेद की निन्दा करता है वही नास्तिक कहलाता है। (नास्तिको वेद निन्दकः)।
वेद को पढ़ें-पढा़यें, सुनें- सुनायें, प्राप्त ज्ञान को जीवन में अपनायें तभी मानव जीवन सफल होगा।

                 ।।ओ३म्।।
वेदों में वर्णित आचार संहिता ही धर्म है ।वेदो में विधि और निषेध दो प्रकार के आदेश हैं ।विधि -अर्थात् यह करो ,निषेध- अर्थात् यह न करो ।जो कर्म करने को वेद में आदेश है प्रत्येक व्यक्ति को वही करना चाहिए ।जो कर्म न करने का आदेश है वह हम नहीं करना चाहिए ।वस्तुतः यही धर्म है।
    यदि उपरोक्त प्रकरण को ऐसे समझ में तो अधिक अच्छा होगा कि हमारा प्रत्येक कर्म व्यक्तिगत,पारिवारिक,सामाजिक, राष्ट्रीय तथा वैश्विक कर्म वेद विहित होना चाहिए।
१-व्यक्तिगत धर्म
२-पारिवारिक धर्म
३-व्यापारिक धर्म
४-सामाजिक धर्म
५-राष्ट्रीय धर्म
६-वैश्विक धर्म
व्यक्तिगत धर्म
प्रत्येक व्यक्ति को प्रथम स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहना चाहिए। स्वस्थ रहने के तीन साधन हैं- भोजन ,नींद एवं ब्रह्मचर्य और तीनों को व्यवस्थित करने के लिए आसन और प्राणायाम करना अत्यावश्यक है ।भोजन हमें ऋत् भुक्,मित् भुक्,हित भुक् अर्थात् ऋत(सत्य) ईमानदारी से कमाए धन के द्वारा भोजन करना, आवश्यकता के अनुसार तथा हित अहित विचार करके ही करना चाहिए।
 मानसिक उन्नति के लिए स्वाध्याय गायत्री मंत्र के साथ ईश्वर का ध्यान।
   आत्मिक उन्नति के लिए
१- ईश्वर, जीव, प्रकृति का यथार्थ ज्ञान ।
२- कर्म फल व्यवस्था अर्थात् जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है। यह जानना तथा मानना,तदनुसार कार्य करना।
३- योग साधना करना अर्थात्‌ यम,नियम, आसन, प्राणायाम ,प्रत्याहार,धारणा, ध्यान,समाधि तक जाना।
   अत्यावश्यक कर्म -अपने द्वारा हो रहे प्रदूषण के निवारण के लिए स्वच्छता बनाये रखना,वृक्षारोपण , दैनिक अग्निहोत्रादि  कर्म करना।
पारिवारिक धर्म:-
प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा परिवारजनों के संबंधों का कर्तव्य पालन करना।
  पिता अपने कर्तव्य का पालन करें ,माता अपने कर्तव्य का पालन करें, इसी प्रकार पति ,पत्नी, पुत्र,पुत्री,भाई,बहन, दादा,दादी सभी अपने अपने कर्तव्य का पालन करें।
व्यापारिक धर्म:-
व्यक्ति जिस व्यापार से जुड़ा हो उसे ईमानदारी के साथ करे (खेती,व्यापार,नौकरी, मजदूरी )।
जिस प्रकार एक व्यापारी के द्वारा सामान सही तौलकर देना, सामान का सही होना, (नकली न होना) तथा मूल्य भी उचित रखना ही धर्म है। इसके विपरीत कम तोलना,मिलावट करना तथा अधिक मूल्य लेना अधर्म है। इसी प्रकार अन्य डॉक्टर,इंजीनियर,वकील,अध्यापक,क्लर्क, किसान, मजदूर,धर्माचार्य आदि का  ईमानदारी के साथ कर्तव्य करना ही धर्म है।
सामाजिक धर्म:-
समाज में सुख,शांति एवं समृद्धि हो ऐसा कर्म करना,मिलकर चलना, समाज में फैलने वाली कुरीतियों, अंधविश्वास,पाखण्डों,ठगों से समाज की रक्षा करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य ही धर्म है।
राष्ट्र धर्म:-
राष्ट्र रक्षित तो हम सुरक्षित
राष्ट्र रक्षा प्रत्येक व्यक्ति का आवश्यक धर्म है।प्रत्येक नागरिक को चाहिए कि वह राष्ट्र को हानि पहुंचाने वाले तत्वों  से निपटने के लिए तन,मन और धन  से सहयोग करके प्रयत्न करें। राष्ट्र रक्षा सर्वोपरि धर्म है ।जब राष्ट्र सुरक्षित होगा तो सभी  कर्म आराम से सही-सही होते रहते हैं।
वैश्विक धर्म:-
चूंकि प्रत्येक व्यक्ति विश्व का भी अंग होता है तो सारे संसार को अच्छा बनाया जाए ऐसे प्रयास करने चाहिए।
इत्योम्।।


       

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