बुधवार, 4 मार्च 2020

आध्यात्मिक चर्चा - १३

आध्यात्मिक चर्चा - १३
                     आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

        पिछली चर्चाओं में हमने समझा कि कर्म ही जीवन आदि सभी भोगों का आधार है । इसीलिए अब हम कर्म पर विस्तार से चर्चा करेंगे ।
         महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज आर्योद्देश्यरत्नमाला में कर्म की परिभाषा लिखते हैं - "जो मन, इन्द्रिय और शरीर से जीव चेष्टा विशेष करता है सो कर्म कहाता है। वह शुभ , अशुभ और मिश्रित भेद से तीन प्रकार का होता है।" 
         महाराज मनु ने कर्म दर्शन को एक ही श्लोक में समायोजित किया है -

शुभाशुभफलं कर्म मनोवाग्देहसंभवम्। 
कर्मजा गतयो नॄणामुत्तमाधममध्यमाः।। 

( मनः वाक्-देह संभवम् कर्म ) मन, वचन और शरीर से किये जाने वाले कर्म ( शुभ-अशुभ-फलम् ) शुभ-अशुभ फल को देने वाले होते हैं ( कर्मजा-नॄणाम् ) और उन कर्मों के अनुसार मनुष्यों की ( उत्तम-अधम-मध्यमाः गतयः ) उत्तम, मध्यम और अधम ये तीन गतियां=जन्मवस्थायें होती हैं। 
      उपरोक्त प्रमाणों से हमने समझा कि -
० जीव ( आत्मा ) कर्म करता है। 
० जीव के कर्म करने साधन है - मन, वाणी और शरीर। 
० कर्म तीन प्रकार के होते है - शुभ, अशुभ और मिश्रित। 
० कर्मों के आधार पर ही सभी जीवों को तीन प्रकार की गतियाँ प्राप्त होती हैं - उत्तम, मध्यम और अधम। 
        जीव ( आत्मा ) कर्म कैसे करता है ? यह जानने के लिए कठोपनिषद् में उल्लेख किया है -

आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।

इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी, समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, रथ हांकने वाला, और मन को लगाम समझो ।

इंद्रियाणि ह्यानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।।

मनीषियों, विवेकी पुरुषों, ने इंद्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इंद्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं, इन्द्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने भोग करने वाला बताया है ।
       अर्थात् आत्मा जब कुछ कर्म करती है तो बुद्धि द्वारा मन को प्रेरित करती है और मन इन्द्रियों से काम लेता है। मन ज्ञानेन्द्रियों से जुड़ता है तो विषयों को बुद्धि तक पहुँचाने का काम करता है और जब कर्मेन्द्रियों से जुड़ता है तो कर्म कराता है।
      वर्णोच्चारण शिक्षा में एक प्रसंग है। जिसमें आत्मा बोलने के लिए मन और इन्द्रियों से कैसे काम लेता है ऐसा वर्णन है। 

आत्मा बुद्ध् या समेत्यर्थान् मनो युङ्क्ते विवक्षया।
मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम्।
मारुतस्तूरसि चरन्मन्दं जनयति स्वरम्।।

जीवात्मा बुद्धि से अर्थों की संगति करके कहने की इच्छा से मन को युक्त करता, विद्युतरूप जाठराग्नि को ताड़ता, वह वायु को प्रेरणा करता, और वायु उरःस्थान में विचरता हुआ मन्द स्वर को उत्पन्न करता है।
         अर्थात् आत्मा जब कुछ कहना चाहती है तो बुद्धि पूर्वक मन को नियुक्त करती है और मन अग्नि को प्रेरित करता है और अग्नि वायु को प्रेरित करता है और वायु कण्ठ आदि स्थानों से निकलता हुआ स्वर उत्पन्न करता है। यहां एक बात और ध्यान देने योग्य है जब वायु मुख से विचरण करता है तो मन उस समय मुख के उच्चारण स्थानों को भी व्यवस्थित करता है अर्थात् कण्ठ, तालु, मूर्धा, दन्त, ओष्ठ और नासिका स्थानों से वायु विचरण करता है। जब हम 'क' उच्चारण करते हैं तो कण्ठ से और 'प' उच्चारण करते हैं तो ओष्ठ से ही उच्चारण होता है। इस विषय को और अच्छे से समझना चाहते हैं तो हारमोनियम के प्रयोग से समझ सकते हैं। जैसे हारमोनियम से स्वर निकलते हैं वैसे ही हमारे मुख में से स्वर निकलते हैं । हारमोनियम में एक हाथ से वायु भरी जाती हैं और दूसरे हाथ की अंगुलियों से स्वर निकाले जाते हैं । यह सब भी बुद्धि और मन से युक्त होकर ही सम्भव है। 

यहां हमने समझा कि आत्मा बुद्धि से युक्त होकर मन, वाणी और शरीर से कर्म करता है। आगे हम समझेंगे आत्मा इन मन आदि साधनों से कितने प्रकार के कर्म करता है।
क्रमशः ...


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