बुधवार, 31 जुलाई 2019

सैद्धान्तिक चर्चा - १८

सैद्धान्तिक चर्चा - १८.

पिछली चर्चा में हमने जाना कि देव शब्द से किस किस का ग्रहण होता है।
० परमेश्वर हमारा प्रथम देव है।
० मनुष्यों में पांच देव होते हैं - माता, पिता, आचार्य, अतिथि तथा पति/पत्नी
० ३३ प्रकार के देव - ११ रुद्र, १२ आदित्य, ८ वसु, १ इन्द्र और १ प्रजापति। ( इन ३३ में ३२ जड़ देव हैं और १ आत्मा चेतन देव है।

उपरोक्त देवों के अतिरिक्त कोई देव नही है।
मेरा प्रवचन कार्यक्रम एक बार पूना में चलरहा था तो वहां एक प्रश्न किया गया कि क्या विष्णु नामक देवता नही होता? क्योंकि आपने उसका कोई वर्णन अपनी चर्चा में नही किया।
ध्यान देंगे इस प्रश्न जैसे ही और भी अनेक प्रश्न हो सकते हैं , क्योंकि समाज में कितने ही देवताओं की बाढ जैसी आयी हुई है नये नये देवता पनपते रहते हैं।
उपरोक्त प्रश्न को ठीक ठीक समझने के लिए पहले सिद्धान्त की एक बात जानते हैं कि
प्रश्न - सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में अनादि, अविनाशी तत्व कितने हैं ?
उत्तर - अनादि, अविनाशी तत्व तीन हैं - ईश्वर, जीव और प्रकृति ।
प्रश्न - क्या इन तीनों के अतिरिक्त कोई चौथा भी तत्व है या हो सकता है ?
उत्तर - इन तीनों ( ईश्वर, जीव और प्रकृति) से अलग कोई चौथा तत्व नहीं है और ना ही हो सकता है सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इन्हीं तीनों से बनता है - ईश्वर ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण प्रकृति से करता है और जीव के भोग और अपवर्ग के लिए।
ऊपर लिखे सभी देव इन तीनों में से ही हैं
० ईश्वर = ईश्वर ( जो कि प्रथम देव हैं)
० जीव = माता, पिता, आचार्य, अतिथि तथा पति/पत्नी ( मनुष्यों में पांच देव सब जीव ही तो हैं) और ३३ में से एक आत्मा।
० प्रकृति = १० रुद्र ( ११वां आत्मा चेतन है जो कि जीव में गिन लिया गया है), १२ आदित्य, ८ वसु, १ इन्द्र ( विद्युत), तथा १ प्रजापति (यज्ञ)।
आपने देखा  कि सभी देवता तीन में ही सिमट गये । ऐसा समझने पर आपके देवता सम्बन्धी सभी प्रश्न हल हो जायेंगे।
जैसे विष्णु कौन है? अब पहले हम यह जाने कि विष्णु नामक देव है तो वह इन्ही तीनों( ईश्वर, जीव और प्रकृति) में से ही होना चाहिए क्योंकि चौथा तो अस्तित्व होता ही नहीं है।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में लिखते हैं -
"विष्लृ व्याप्तौ" इस धातु से ‘नु’ प्रत्यय होकर ‘विष्णु’ शब्द सिद्ध हुआ है। ‘वेवेष्टि व्याप्नोति चराऽचरं जगत् स विष्णुः’ चर और अचररूप जगत् में व्यापक होने से परमात्मा का नाम ‘विष्णु’ है। अर्थात् ईश्वर ही विष्णु है लेकिन‌ यहां इस बात का ध्यान अवश्य देना होगा कि वह ऐसे स्वरूप वाला नही है जैसा लोगों ने चित्र बना रखा है क्योंकि ईश्वर निराकार है ,उसका चित्र नही बनाया जा सकता , विष्णु का जो स्वरूप समाज में है वह काल्पनिक है सत्य नहीं ।
इसीप्रकार अन्यत्र समझें।
प्रवचन की यात्रा में एक प्रश्न बार बार आता है आइये उसका भी यहां उल्लेख करते हैं -
क्या मरने के बाद व्यक्ति देव बन जाता है? बहुत लोग उनके थान बनाकर या कब्रों को देव समझ कर पूजते हैं।
आइये पहले हम यह समझते हैं कि आत्मा मरने के बाद ( शरीर छोड़ने के बाद ) कहां जाता है ? क्योंकि आत्मा एक अविनाशी तत्व है वह न जन्म लेता है और ना ही मरता है आत्मा और शरीर के संयोग का नाम जन्म है, आत्मा और शरीर का साथ साथ चलना जीवन है तथा आत्मा और शरीर के वियोग का नाम ही मृत्यु है ।
शरीर छोड़कर आत्मा परमेश्वर की व्यवस्था में चली जाती है । जब तक नया शरीर नही मिलता तब तक आत्मा अति सुषुप्त अवस्था में रहती है । आत्मा को अपना भी ज्ञान नही होता कि कहां हैं। आत्मा का पुराने सम्बन्धियों से भी कोई सम्बन्ध नही रहता। यहां एक बात और जानना अत्यावश्यक है आत्मा ही कर्ता है और आत्मा ही भोक्ता है लेकिन शरीर रूपी साधन के बिना नही । अर्थात् बिना शरीर के आत्मा कोई कार्य नही करता। इन बातों से यह समझना आसान है कि आत्मा शरीर छोड़कर जाने के बाद उससे हमारा कोई सम्बन्ध नही रहता और हम उस आत्मा से कोई सम्पर्क भी नहीं कर सकते ।अतः थान और कब्र आदि पूजा निरर्थक है।

क्रमशः ...

सैद्धान्तिक चर्चा - २३

सैद्धान्तिक चर्चा - २३.               आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

         ध्यान दें - यह धारणा की जड़ पदार्थ स्वयमेव अकस्मात् मिल गए और सृष्टि बन गई क्या बुद्धिगम्य है? सदैव स्मरण रखना चाहिए कि सृष्टि में संयोग के साथ वियोग भी प्रत्यक्ष है जो पदार्थ भिन्न - भिन्न तत्वों के मेल से बनता है वह कभी ना कभी विनष्ट भी होता है संयोग और वियोग के विपरीत गुण एक ही जड़ पदार्थ में न साथ साथ रह सकते हैं और न ही कार्य कर सकते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जिन जड़ परमाणुओं में संयोग का गुण है वे संयोग ही करेंगे तो वह पदार्थ विनष्ट कैसे होगा? इसी प्रकार जिन जड़ परमाणुओं में अलग अलग रहने की प्रवृत्ति है वे संयोग कैसे करेंगे अर्थात् पदार्थ बनेगा कैसे? यदि दोनों गुण एक साथ मान भी लिए जायें तो विरोधी होने के कारण न निर्माण होगा न विनाश । अतः ऐसी कोई समर्थ सत्ता चाहिए जो इन जड़ पदार्थों को स्व ईक्षण से मिलाती, कायम रखती व विनष्ट करती है। ब्रह्माण्ड की विशालता, विविधता, चमत्कारी अद्भुत नियमों की उपस्थिति पर दृष्टि डालते ही पता चल जाता है कि यह कार्य अल्पज्ञ मनुष्य का हो ही नहीं सकता । यह मात्र सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान ईश्वर का ही कार्य हो सकता है।

       किसी चैतन्य सत्ता के अस्तित्व से इन्कार करने वाले बन्धुओं को विज्ञान द्वारा खोजे नियमों पर भी विचार कर लेना चाहिए जिन्हें वे सर्वोपरि स्वनिर्मित मानते हैं। महान वैज्ञानिक न्यूटन के गति का प्रथम नियम कहता है कि कोई वस्तु अपनी स्थिर अथवा गतिज अवस्था में ही रहेगी जब तक कि उस पर बाह्य बल का प्रयोग न किया जाए। विचारणीय है कि जगत गतिशील है इसे गति किसने प्रदान की? आधुनिक विज्ञान में जिन कणों को परमाणु कहा जाता है उस परमाणु की रचना देखिए। इसके केन्द्रक में प्रोटॉन तथा न्यूट्रान हैं। इनके चारों ओर इलेक्ट्रॉन अपनी कक्षाओं में चक्कर लगा रहे हैं। इन्हीं इलेक्ट्रॉनों की संख्या व गति से परमाणु का अस्तित्व व क्रियाशीलता है। इन इलेक्ट्रॉनों को गतिमान किस बाह्यबल ने किया? विचारणीय यह है कि आज जिन फोटोन आदि कणों को विज्ञान मूल कण मान रहा है उनको सर्वप्रथम गति किसने प्रदान की? यह बल किसका है? और यदि गति आन्तरिक ऊर्जा के कारण है तो उस ऊर्जा का प्रदाता कौन है? सृष्ट्यारम्भ में मूल कणों (पदार्थ) को क्रियाशील कौन करता है? यह कार्य केवल उसी सत्ता का हो सकता है जो इन सूक्ष्म कणों से भी सूक्ष्म होने के साथ इस मानव कल्पनातीत ब्रह्माण्ड से भी विशाल होने के कारण ही उस सर्वत्र विरल रूप से विखरे मूल उपादान पदार्थ को क्रियाशील कर सकता है। जिसके बारे में कहा है-
अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्।। (कठोपनिषद्)
अणु से अति सूक्ष्म, बड़े से अधिक बड़ा परमात्मा इस जन्मधारी जीवात्मा के हृदय प्रदेश में विद्यमान है। यह केवल ईश्वर है। ईश्वर के अतिरिक्त कोई नहीं। कोई हो ही नहीं सकता।

इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्गवेद यदि वा न वेद।।(ऋग्वेद १०/१२९/७)
          हे (अङ्ग) मनुष्य! जिससे यह विविध सृष्टि प्रकाशित हुई है, जो धारण और प्रलय कर्ता है, जो इस जगत् का स्वामी , जिस व्यापक में यह सब जगत उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय को प्राप्त होता है, सो परमात्मा है, उसको तू जान और दूसरे को सृष्टि कर्ता मत मान।

तम आसीत्तमसा गूळहमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकम्।। (ऋग्वेद १०/१३९/३)
      यह सब जगत् सृष्टि से पहले अन्धकार से आवृत, रात्रिरूप में जानने के अयोग्य, आकाश रूप सब जगह तथा तुच्छ अर्थात् अनन्त परमेश्वर के सामने एक देशी आच्छादित था। पश्चात् परमेश्वर ने अपने महिमा (सामर्थ्य) से कारण रूप से कार्यरूप कर दिया है।

हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।। (ऋग्वेद १०/१२१/१)
     हे मनुष्यो! जो सब सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों का आधार और जो जगत् हुआ था, है और होगा उसका एक अद्वितीय पति परमात्मा इस जगत् की उत्पत्ति के पूर्व विद्यमान था और जिसने पृथ्वी से लेके सूर्य पर्यन्त जगत् को उत्पन्न किया है, उस परमात्मा देव की प्रेम से भक्ति किया करें।

पुरुषऽएवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति।।(यजुर्वेद ३१/२)
      हे मनुष्यो! जो सब में पूर्ण पुरुष और जो नाश रहित कारण और जीव का स्वामी, जो पृथिव्यादि जड़ और जीव  से अतिरिक्त है, वही पुरुष इस सब भूत, भविष्यत् और वर्तमानस्थ जगत् को बनाने वाला है।

क्रमशः ...

गुरुवार, 18 जुलाई 2019

सैद्धान्तिक चर्चा - २२

सैद्धान्तिक चर्चा - २२.    आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

        इसी प्रकार लोक में आप किसी भी कृति को देखिये। हमें पता है कि उसका करता अवश्य होता है। मिट्टी का घड़ा कुम्हार द्वारा, आभूषण सुनार द्वारा, वस्त्र बुनकर व मूर्ति शिल्पकार द्वारा बनाई जाती है यह हमें प्रत्यक्ष है। कभी हम किसी कारणवश सुनसान उजाड़ जंगल में पहुंच जावें और वहां एक आभूषण हमें पड़ा दिखे तो चाहे उस बियाबान जंगल में मनुष्य के पहुंचने की संभावना कितनी भी क्षीण हो हम यह अनुमान लगाने में एक क्षण की देर नहीं लगाते कि यह आभूषण किसी सुनार ने बनाया है उससे किसी मनुष्य ने खरीदा होगा और वह किसी कारणवश इस जंगल में आया होगा और आभूषण यहां गिर गया होगा। अनुमानों की इस श्रंखला में क्या हम एक भी क्षण को यह सोचते हैं यह आभूषण जमीन के अंदर अपने आप बनकर जमीन फोड़कर निकल आया है? कदापि नहीं। ऐसा क्यों? क्योंकि संसार में कार्य-कारण की श्रृंखला प्रत्यक्ष है। यह प्रत्यक्ष है कि कारण के बिना कार्य नहीं हो सकता। रचना है तो रचनाकार का होना आवश्यक है। इस सन्दर्भ में लगाया गया अनुमान किसी प्रत्यक्ष से कम नहीं होता। पर यह बड़े आश्चर्य की बात है कि लोक में अनगढ़ से अनगढ़ रचना को भी हम अकस्मात् हुई नहीं मानते कागज पर दो तीन रंगों की आड़ी तिरछी लाइनों को देखकर हम कभी भी यह स्वीकार नहीं करते कि अपने आप दो तीन तरह के रंग आकर मिल गए होंगे परन्तु जब आश्चर्यजनक कारीगरी, अटूट नियमों से युक्त महानतम रचना इस सृष्टि को देखते हैं तो हममें से अनेक इसके रचयिता के अस्तित्व को मानने में संकोच कर नाना प्रकार के कुतर्कों का आश्रय लेते हैं। ऐसी मानसिकता को उचित कदापि नहीं कहा जा सकता।

      कृपया निम्न दृष्टान्तों पर विचार कीजिए -
० भूगर्भ शास्त्रियों को जमीन की परतों के मध्य एक सिला हुआ जूता मिला जिसकी आयु उन्होंने साठ हजार वर्ष के लगभग निश्चित की। इन वैज्ञानिकों ने बिना एक क्षण भी यह बेचारे की यह जूता अपने आप बन गया होगा इसे स्वभावतः ही मानव निर्मित मान साठ हजार वर्ष पुरानी सभ्यता की व्याख्या का प्रयास किया। जब साठ हजार वर्ष पुराने जूते के निर्माता के बारे में जिसे किसी ने देखा नहीं, कोई सन्देह न कर निश्चयात्मक अनुमान किया जा सकता है तो सृष्टि कर्ता परमात्मा के बारे में यह कहकर कि उसे किसी ने देखा नहीं क्योंकर सन्देह करना चाहिए।

० भूगोल के एक प्रोफ़ेसर के एक ऐसे मित्र जो सृष्टि कर्ता ईश्वर के अस्तित्व में सन्देह करते व सृष्टि को स्वतः (अपने आप) अकस्मात् निर्मित मानते थे, प्रोफेसर की मेज पर रखे सौर मण्डल के सुन्दर मॉडल को देखकर पूछ बैठे - यह कितना सुन्नदर है यह किसने बनाया है? प्रोफेसर ने उत्तर दिया किसी ने नहीं यह स्वयमेव बन गया है। मित्र ने कहा क्यों मजाक करते हो भला बिना बनाए भी कोई चीज बन सकती है? तो प्रोफ़ेसर ने कहा यह तुच्छ मॉडल जिस विशाल सौरमण्डल की एक लघु स्थिर प्रतिकृति मात्र है उसे ही आप बिना कर्ता के निर्मित हुआ नहीं मान रहे हो तो सुनिश्चित नियमों में बन्धे अत्यन्त विशाल सौरमण्डल को बिना कर्ता के क्यों मानते हो? और नियम भी कैसे? जिनमें अल्पांश में भी विक्षेप नहीं होता। इसी कारण ज्योतिर्विद हजारों वर्ष पूर्व ही भविष्य की खगोलीय घटनाओं का ठीक ठीक समय बता सकते हैं। अब मित्र के पास कोई उत्तर न था।

० ब्रह्माण्ड की विशालता का तनिक अनुमान लगाइए - पृथ्वी का व्यास २५००० मील है । हम पृथ्वी पर बसे हुए सूर्य की परिक्रमा जिस परिधि में कर रहे हैं वह रास्ता ५८ करोड़ ८१लाख६०हजार मील लम्बा है जो हम एक बर्ष में तय करते हैं अर्थात् हम १११० मील प्रति मिनट अथवा ६६६०० मील प्रति घण्टा की गति पर सवार हैं। सूर्य एक पिघला हुआ आग का गोला है जो हमारे ९ ग्रहों को मिलाकर उनसे भी लगभग दो गुना भारी है। पृथ्वी से तेरह लाख गुना बड़ा है। सूर्य के चारों ओर ग्रह चक्कर लगारहे हैं।
१. बुध - यह सूर्य से ३ करोड़ ६० लाख मील सूर है।
२. शुक्र - यह सूर्य से ६ करोड़ ७० लाख मील दूर है।
३. पृथ्वी - यह सूर्य से ९ करोड़ २९ लाख ५७ हजार मील दूर है।
४. मङ्गल - यह सूर्य से १२ करोड़ ७० लाख मील दूर है।
५. बृहस्पति - यह सूर्य से ४८ करोड़ ४० लाख मील दूर है।
६. शनि - यह सूर्य से ८८ करोड़ ६० लाख मील दूर है।
७. अरुण - यह सूर्य से १ अरब ६० करोड़ मील दूर है।
८. वरुण - यह सूर्य से १ अरब ७४ करोड़ ६० लाख मील दूर है।
९. यम - सूर्य के इर्द-गिर्द इसकी परिक्रमा की कक्षा भी थोड़ी बेढंगी है - यह कभी तो वरुण (नॅप्टयून) की कक्षा के अन्दर जाकर सूर्य से ३० खगोलीय इकाई (यानि ४.४ अरब किमी) दूर होता है और कभी दूर जाकर सूर्य से ४५ खगोलीय इकाई (यानि ७.४ अरब किमी) पर पहुँच जाता है।
ऐसे अनेक सौर मण्डल मिलाकर एक आकाशगंगा कहते है अनेक आकाशगंगाओं की खोज के बाद भी वैज्ञानिक कहते कि ब्रह्माण्ड कितना बड़ा होगा यह तो कल्पना के भी बाहर है । क्या यह अनन्त ब्रह्माण्ड अल्पज्ञ, अल्प सामर्थ्यवान मनुष्य की रचना हो सकती है? अतः यह केवल प्रभु की सत्ता व सामर्थ्य का ही चमत्कार है।
यह भी विचारें कि इतने विशाल पिण्डों के साथ अकस्मात् के नियम को माने तो क्या ये कभी टकराएंगे नहीं । वास्तविकता तो यह है ये पिण्ड गति तथा परिभ्रमण के जिन  नियमों से बन्धें हैं उनमें यत्किञ्च भी स्वेच्छाचारिता ये बरतसकें तो न सिर्फ स्वयं विनष्ट हो जाएंगे वरन् ब्रह्माण्ड ही समाप्त हो जायेगा। ऐसा इसलिए नहीं होपाता है क्योंकि ये सब नियन्ता के नियंत्रण में ही गतिशील हैं , स्वतन्त्र नहीं।

        अतेव निश्चित सिद्धान्त यही है और यही समझना चाहिए कि कोई भी कार्य , रचना अथवा नियम बिना कर्ता, रचनाकार अथवा नियामक के सम्भव नहीं । हर कृति, हर नियम अपने कर्ता के होने का प्रबल प्रमाण है। इसीलिए वेद में कहा प्रभु की सत्ता पर विस्वास करना है तो उसकी रचना को देखो - 'पश्य देवस्य काव्यं'। ईश्वर की नियमबद्ध सृष्टि ही उसके होने का सर्वोत्तम प्रमाण है।
         महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज वेद भाष्य में लिखते हैं-
तत्त इन्द्रियं परमं पराचैरधारयन्त कवयःपुरेदम्।
क्षमेदमन्यद् दिवन्यदस्य समी पृच्यते समनेव केतुः।। (ऋ०१/१०३/१)
हे मनुष्यों!  जो जो इस संसार में रचना विशेष से युक्त उत्तम वस्तु है वह वह सब परमेश्वर के बनाने से ही प्रसिद्ध है ऐसा जानो। ऐसा विचित्र संसार विधाता के बिना संभव नहीं हो सकता। इसीलिए निश्चय ही इस जगत का रचयिता ईश्वर है और जीव - रचित सृष्टि का कर्ता जीव है।
क्रमशः ...

शुक्रवार, 12 जुलाई 2019

सैद्धान्तिक चर्चा २१

सैद्धान्तिक चर्चा २१.                  "ईश्वर सिद्धि"

आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री ( वैदिक प्रवक्ता)

        सर्व प्रथम प्रश्न यह है कि ईश्वर नाम की कोई सत्ता है भी या नहीं। यद्यपि संसार के अधिकतम लोग ईश्वर में विश्वास रखते हैं। ( यद्यपि इन में ईश्वर के स्वरूप व कर्तव्य को लेकर अतीव मत भिन्नता है) पर ऐसा प्रतीत होता है कि वे केवल परम्परावश ऐसा मानते हैं । यही कारण है कि विभिन्न उपासना पद्धति का अवलम्बन करने वाली नई पीढ़ी से ईश्वर सम्बन्धी प्रश्न किए जाते हैं तो शीघ्र ही यह सामने आ जाता है कि ईश्वर की सत्ता में इनका दृढ़ विश्वास नहीं है और जब दृढ़ विश्वास ही नहीं है तो ईश्वर उपासना एवं ईश्वर प्राणिधान के कोई मायने नहीं रह जाते अत एव ईश्वर की सत्ता में अटूट विश्वास होना अत्यन्त आवश्यक है यह अटूट विश्वास ही परहित हेतु स्वयं का सर्वस्व निछावर कर देने की उदात्त भावना का आधार है।
        ईश्वर का प्रत्यक्ष कैसे हो ?
       कुछ लोग ईश्वर का अस्तित्व इसीलिए नहीं मानते क्योंकि वह आंखों से दिखाई नहीं देता है। अर्थात्‌ जो पदार्थ आंखों से दिखाई देता है उसी का अस्तित्व माना जा सकता है। पर क्या यह अभिकथन सही है? तनिक भी गम्भीरता पूर्वक विचार करते हैं तो इस दावे की पोल खुल जाती है संसार में अनेकानेक ऐसे पदार्थ हैं जो दिखाई नहीं देते परन्तु उनका अस्तित्व निर्विवाद है।
        विचार करें निम्न परिस्थितियों में हमें वस्तुएं दिखाई नहीं देती हैं परन्तु क्या हम उनके अस्तित्व से इन्कार कर सकते हैं ? कदापि नहीं।
       इसी प्रकार का प्रसङ्ग साङ्ख्य दर्शन में आया है - "विषयोऽविषयोऽप्यतिदूरादेर्हानोपादानाभ्यामिन्द्रियस्य" (१/६३)
(विषयःअपि) विषय भी (इन्द्रियस्य) इन्द्रिय का ( अविषयः) अविषय है (अतिदूरादेः) अतिदूर आदि (कारण) से (हानोपादानाभ्यां)हान और उपादान से(इन्द्रिय के)।
       किसी वस्तु के अभाव को केवल इतने से निर्धारित नहीं किया जा सकता कि वह इन्द्रियों से नहीं जानी जा रही। यदि यह विचार ठीक होता की जो वस्तु इन्द्रिय द्वारा नहीं जानी जाती, उसका अभाव स्वीकार करना चाहिए तो अतीन्द्रिय प्रकृति आदि पदार्थों का अनुपलब्धि के कारण अभाव स्वीकार किया जा सकता था। परन्तु अनेक बार ऐसा होता है विद्यमान पदार्थ भी कुछ दोषों के कारण इन्द्रिय का अविषय रहता है, अर्थात् इन्द्रिय गोचर नहीं हो पाता।
   वे दोष इस प्रकार हैं =अतिदूर- कोई भी पदार्थ अति दूर होने के कारण दृष्टिगोचर नहीं होता। जैसे आकाश में दूर उड़ता हुआ पक्षी चक्षु से नहीं दीख पाता यदि वही पदार्थ ठीक दूरी पर हो तो दिख जाता है। सूत्र का आदि पद 'अतिदूर' के विरोधी 'अतिसमीप' का परामर्शक है। इसप्रकार दूसरा दोष है =अतिसमीप- अतिसमीप होने पर भी कोई वस्तु दृष्टिगोचर नहीं होती। जैसे आंख में लगाया हुआ अंजन उस आंख से नहीं दिखता। वही ठीक दूरी से अन्य आंख के द्वारा देखा जाता है। तीसरा दोष है=हान- इन्द्रिय शक्ति की हानि होना, अर्थात् इन्द्रिय की दुर्बलता, जैसे अन्धे और बधिर - रूप और शब्द का ग्रहण नहीं कर पाते। उन्हीं रूप और शब्द को वे ग्रहण कर लेते हैं जिनके चक्षु और श्रोत्र इन्द्रिय ठीक होते हैं। यह दोष इन्द्रियगत है अन्य दोष विषतगत हैं। चौथा दोष =उपादान- इन्द्रिय और विषय के मध्य में किसी अन्य वस्तु का उपस्थित हो जाना अर्थात् किसी भी मूर्तिमान वस्तु का व्यवधान। जैसे दीवार आदि के परे की विद्यमान वस्तु भी दृष्टिगोचर नहीं होती। वही वस्तु मध्य में दीवार न होने पर दिख जाती है। यह सब दोष ऐसे विषयों में लागू होते हैं जो किसी समय इन्द्रिय गोचर होते हों। इसीलिए यह नहीं कहा जा सकता कि जो पदार्थ एक समय नहीं दिख रहा उसका तो अस्तित्व नहीं है।
      सर्वथा अतीन्द्रिय प्रकृति आदि पदार्थों की अनुपलब्धि में इन दोषों को बाधक नहीं कहा जा सकता क्योंकि प्रकृति आदि पदार्थ कभी दृष्टिगोचर नहीं होते तब उनकी अनुपलब्धि उनके अभाव की ही साधक समझी जानी चाहिए।
सूत्रकार कहता है -
सौक्ष्म्यात्तदनुपलब्धिः।।(सांख्य१/७४)
सौक्ष्म्यात् तदनुपलब्धिः = (तदनुपलब्धिः) प्रकृति आदि की अनुपलब्धि (सौक्ष्म्यात्) सूक्ष्मता से है।
     प्रकृति की अनुपलब्धि सौक्ष्म्य के कारण होती है जगत के मूल कारण सत्व-रजस्-तमस् अतिशय अणुरूप होने के कारण अति सूक्ष्म होते हैं उनका ग्रहण करना इन्द्रियों की शक्ति से परे है। जब इन्द्रियां उन्हें ग्रहण ही नहीं कर सकती तब इन्द्रियों के द्वारा उनकी अनुपलब्धि उनके अभाव का साधक नहीं कही जा सकती।
  सूक्ष्म होने के कारण यदि इन्द्रियों से प्रकृति की अनुपलब्धि उसके अभाव की साधक नहीं, तो प्रकृति का ज्ञान किसी उपाय से होना चाहिए।
सूत्रकार कहता है -
कार्यदर्शनात्तदुपलब्धेः।।(सांख्य१/७५)
(कार्यदर्शनात्) कार्य ज्ञान से अथवा कार्य देखे जाने से ( तदुपलब्धेः) प्रकृति का ज्ञान हो जाने के कारण उसका अभाव नहीं ।
      प्रकृति की उपलब्धि, कार्य देखने से हो जाती है। यद्यपि प्रकृति अतीन्द्रिय पदार्थ है पर यह समस्त जड़ जगत उसका कार्य है। हम देखते हैं यहां प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक व्यवहार, प्रत्येक विचार सुख-दुख-मोहात्मक है, इस प्रकार जगत त्रिगुणात्मक सिद्ध होता है। इसमें लगातार होने वाले परिणाम को देखकर हम यह जान लेते हैं कि इसका कोई त्रिगुणात्मक मूल उपादान अवश्य होना चाहिए क्योंकि कोई परिणामी तत्व अपने मूल उपादान के बिना नहीं हो सकता, यह नियम है। इसी प्रकार त्रिगुणात्मक कार्य जगत से उसके मूल उपादान त्रिगुणात्मक प्रकृति का अनुमान हो जाता है। फलतः केवल दृष्टिगोचर न होने से प्रकृति का अभाव नहीं माना जा सकता।
अनेक आशंकावादी मूल उपादान के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की कल्पना कर सकते हैं। उस अवस्था में त्रिगुणात्मक प्रकृति के अस्तित्व का सिद्धान्त स्थिर नहीं रहता। इसी आशंका को सूत्रकार कहता है -
वादिविप्रतिपत्तेस्तदसिद्धिरिति चेत्।।(सांख्य१/७६)
(वादिविप्रतिपत्तेः) वादियों के विरुद्ध कथन से ( तदसिद्धिः इति चेत्) (मूल उपादान ) प्रकृति की असिद्धि कहो यदि।
मूल उपादान के सम्बन्ध में वादी अनेक प्रकार के कथन उपस्थित कर सकते हैं। जैसे कोई चेतन ईश्वर से जगत की उत्पत्ति कहने लगे अथवा जगत का उपादान पुरुष को बताए । इसी प्रकार कोई स्वभाव को उपादान कहे। अन्य कोई अकारण ही जगत को उत्पन्न हुआ मान ले। कोई सूक्ष्म भूतों को समस्त जगत का उपादान बतलाए। इन सब मान्यताओं के रहने पर केवल प्रकृति को उपादान कैसे माना जा सकेगा ? इसी प्रकार वादियों के द्वारा मूल उपादान के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के कल्पित बाद उपस्थित कर देने से प्रकृति की निर्भ्रान्त सिद्धि नहीं हो सकती। ऐसी आशंका होने पर सूत्रकार कहता है-
तथाप्येकतरदृष्टया एकतरसिद्धेर्नापलादः (सांख्य१/७७)
(तथापि) तो भी ( एकतरदृष्टया) कार्य ज्ञान द्वारा (एकतर सिद्धेः) कारण की सिद्धि से ( अपलापः न) 'प्रकृति का' अपलाप नही।
इन सब  कथित कल्पनाओं के होने पर भी समस्त वादियों ने कार्य कारण भाव को स्वीकार किया ही है। तब यह सिद्धान्त तो स्थिर माना जाएगा - कि एकतर कार्य के देखने से एकतर कारण की सिद्धि होती है। इस प्रकार कार्य के देखे जाने से कारण के अस्तित्व का अपलाप नहीं किया जा सकता। प्रत्येक वादी ने इस बात को निर्भ्रान्त रूप से स्वीकार किया है। कि कार्य मात्र का कोई मूल कारण अवश्य होता है।
   वह मूल कारण प्रकृति ही क्यों हो सकता है अन्य नहीं? 
सूत्र कार कहता है -
त्रिविधविरोधापत्तेश्च।।(सांख्य १/७८)
(त्रिविधविरोधापत्तेः) त्रिविधता के विरोध की आपत्ति से (च) तथा परिणामिता अचेतनता आदि के (विरोध की आपत्ति से)।
  यदि त्रिगुणात्मक प्रकृति के अतिरिक्त, अन्य ईश्वर आदि को जगत का मूल उपादान माना जाए, तो संसार में अनुभूयमान त्रिविधता के विरोध की प्राप्ति होगी। जगत के प्रत्येक पदार्थ, व्यवहार तथा भावना में त्रिगुणात्मकता देखी जाती है इससे त्रिगुणात्मक मूल कारण का अनुमान किया जा सकता है। ईश्वर आदि को मूल उपादान मानने पर जगत की दृष्टत्रिगुणात्मकता  का विरोध होगा क्योंकि ईश्वर आदि तत्व त्रिगुणात्मक नहीं हैं यदि उनको भी त्रिगुणात्मक मान लिया जाए तो शब्द मात्र का भेद होगा, मूल कारण तो त्रिगुणात्मक ही रहा। सूत्र का 'च' पद प्रकृति के परिणामी और चेतन आदि स्वरूप का संग्रह करता है। ईश्वर आदि को जगत का मूल उपादान मानने पर यथासंभव इसके परिणाम अचेतनत्व आदि का भी विरोध प्राप्त होगा।उस अवस्था में संसार परिणामी व अचेतन भी न हो सकेगा, जो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों के विरुद्ध है। इन सब कारणों से त्रिगुणात्मक प्रकृति को ही जगत का मूल उपादान स्वीकार किया जा सकता है।
इसी प्रसंग को "सांख्य कारिका" में ईश्वर कृष्ण ने इस प्रकार लिखा है -
अतिदूरात् समीप्यादिन्द्रियघातान्मेनोऽनवस्थानात्।
सौक्ष्म्याद् व्यवधानादभिभवात् समानाभिहाराच्च।। (सांख्यकारिका)
अतिदूरात् = अत्यन्त दूर होने पर - आकाश में उड़ता पक्षी।
समीप्यात् = अत्यन्त समीप होने से - आंख का काजल।
इन्द्रियघातात् = इन्द्रिय शक्ति की हानि - मोतियाबिन्द, रतौधी।
मनोऽनवस्थानात् = मन के विचलित होने पर - ध्यान कहीं अन्यत्र।
सौक्ष्म्यात् = अत्यन्त सूक्ष्म होने पर - अणु आदि।
व्यवधानात् = इन्द्रिय और विषय के बीच व्यवधान होने पर - दीवार के परे।
अभिभवात् = एक वस्तु के अभिभूत होने पर
समानाभिहारात् = किसी वस्तु के सजातीय सम्मिश्रण के कारण प्रत्यक्ष नही हो पाता।
       प्रकृति और प्रमेय अत्यन्त सूक्ष्म और समीप होने से ही प्रत्यक्ष नही हो पाता है। यद्यपि कार्य के आधार पर उनकी उपलब्धि अनुमेय है।
० देखने में सहायक पदार्थ ना होने के कारण - सूर्य के प्रकाश या अन्य कृत्रिम प्रकाश के अभाव में ।
० आंख का विषय न होने के कारण - वायु, सुगन्ध तथा संगीत आदि नहीं देखे जा सकते।
० अभौतिक पदार्थ - सर्दी, गर्मी, भूख - प्यास, दर्द आदि।
० मध्य में आए आवरण के कारण - भूमिगत रत्नादि, कमरे में दीवार के पीछे की वस्तुएं दिखाई नहीं देती है।
० कुछ गुण समान होने के कारण - दूध में पानी, गाय के दूध में भैंस का दूध।
          स्पष्ट है हर वस्तु आंखों से नहीं दीख सकती, केवल रूप गुण जिसमें है आंखों का विषय होने के कारण वही वस्तुएं दिखाई देती है परंतु ना दिखाई देने वाली वस्तुओं का भी अस्तित्व है यह निश्चित है।
        वस्तुतः जैसा वस्तु का सम्बन्ध जिस ज्ञानेन्द्रिय से है हम उसी ज्ञानेन्द्रिय से वस्तु को जानते हैं जैसे इत्र का ज्ञान नासिका से, मीठे, खट्टे, नमकीन का ज्ञान रसना से, वायु की उपस्थिति, शीतादि का ज्ञान त्वचा से, व शब्द का ध्यान कर्णेन्द्रिय से करते हैं।
         यहां यह भी स्पष्ट कर जान लेना चाहिए इन्द्रिय गोचर पदार्थ का ज्ञान ही इन्द्रियों द्वारा हो सकता है। अतीन्द्रिय पदार्थ का ज्ञान इन्द्रियों द्वारा नहीं हो सकता परन्तु ऐसा ना हो सकने मात्र से इनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। उदाहरण के लिए इन्द्रियों को ही ले लीजिए इन्हें इन्द्रियों द्वारा तो जाना नहीं जा सकता क्योंकि कोई भी दृष्टा स्वयं दृश्य नहीं हो सकता और एक इन्द्रिय से दूसरी इन्द्रियों भी नहीं जानी जा सकती क्योंकि उनके विषय भिन्न भिन्न हैं।
        आंख का विषय रूप, नासिका का गन्ध, जिह्वा का रस, त्वचा का स्पर्श और कानों का विषय शब्द है। अतः नाक - आंख को नहीं जान सकती, जिह्वा कानों को नहीं जान सकती‌। इन इन्द्रियों को भी इनसे काम लेने वाली चेतन शक्ति अनुभव से जानती है। अर्थात् जब वह रस का ज्ञान जिह्वा से प्राप्त करती है तो उसे रसनेन्द्रिय की जानकारी होती है। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के विषय में है। यही अनुभव इन्द्रियों का प्रत्यक्ष है।
      ठीक इसी प्रकार जीवात्मा बिना भौतिक इन्द्रीयों/ भौतिक करणों की सहायता से अष्टांग योग के मार्ग पर चलते हुए परमात्मा का साक्षात्कार करता है। महर्षि दयानन्द जी सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में स्पष्ट लिखते हैं - "और जब जीवात्मा शुद्धान्तःकरण से युक्त योगी समाधिस्थ होकर आत्मा और परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है तब उसको उसी समय दोनों प्रत्यक्ष होते हैं। जब परमेश्वर का प्रत्यक्ष होता है तो अनुमान आदि से परमेश्वर के जान होने में क्या संदेह है क्योंकि कार्य को देखकर के कारण का अनुमान होता है।"
इन्द्रिय प्रत्यक्ष को ही सर्वोपरि अधिमान देने का आग्रह करने वाले मनीषियों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इन्द्रियों से गुणों का प्रत्यक्ष होता है न कि गुणी का। ऋषि लिखते हैं - अब विचारना चाहिए कि इन्द्रियों और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है, गुणी का नहीं।( सत्यार्थ प्रकाश सप्तम समुल्लास) इसका तात्पर्य है कि इन्द्रियों द्वारा अपने अपने विषय की सूचना ही मन को प्रेषित की जाती है। उदाहरण के तौर पर एक व्यक्ति खस के शरबत का सेवन करता है तो रंग व तरलता की सूचना आंख द्वारा, गन्ध की सूचना नाक द्वारा, ठंडे होने की सूचना त्वचा द्वारा व मीठे होने की सूचना जिह्वा द्वारा मन को प्राप्त होने पर बुद्धि द्वारा समवेत रूप से विश्लेषण करने पर पूर्व स्मृति के आधार पर खस के शरबत का प्रत्यक्ष कर लिया ऐसा कहा जाता है। वस्तुतः प्रत्यक्ष तो भिन्न - भिन्न गुणों का ही हुआ है गुणी का नहीं । यदि यहां शरबत पीने वाले ने पूर्व में कभी इस पेय पदार्थ को  नहीं पिया हो, इस पीने की कोई स्मृति उसके पास ना हो तो वह इतना मात्र ही कहेगा कि यह तरल पेय पदार्थ जो अमुक रंग का है, मीठा, शीतल व स्वादिष्ट है। और मेजबान से पूछेगा कि यह क्या है? अर्थात् गुणों का प्रत्यक्ष होने पर भी गुणी का प्रत्यक्ष न हुआ। होता यह है कि गुण - गुणी का समवाय सम्बन्ध होने से गुणों के साथ गुणी का प्रत्यक्ष मान लिया जाता है।मन की आशु गति के कारण यह प्रक्रिया इतने वेग से होती है कि हम गुणी का ही प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं।
   सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में ऋषि दयानन्द स्पष्ट लिखते हैं - जैसे चारों त्वचा आदि इन्द्रियों से स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का ज्ञान होने से गुणी जो पृथ्वी उसका आत्मायुक्त मन से प्रत्यक्ष किया जाता है वैसे इस प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। हमारे विचार से ऋषि स्पष्ट ईश्वर प्रत्यक्ष मानते हैं।
न्याय दर्शनकार ने आठ प्रमाणों को मान्यता दी है जिनमें एक अनुमान प्रमाण है लोक में व्यवहृत अनुमान शब्द से ऐसा प्रतीत होता है कि अनुमान अत्यन्त साधारण कोटि का तर्क विहीन प्रमाण है परन्तु ऐसा नहीं है। अनुमान प्रमाण को भी किसी भी प्रकार कम करके नहीं आंका जा सकता। क्योंकि अनुमान वहीं होता है - जहां पूर्व में प्रत्यक्ष कार्य - कारण श्रंखला का ही एक घटक होने से दूसरे का निश्चय, अनुमान प्रमाण द्वारा किया जाता है। उदाहरण के तौर पर हम लोक में देखते आते हैं कि माता पिता के संयोग से पुत्र - पुत्री उत्पन्न होते हैं। अतः किसी पुत्र अथवा पुत्री को देखकर अनुमान प्रमाण के अन्तर्गत यह निश्चय से कहा जा सकता है की इनके माता-पिता भी निश्चित होंगे - फिर चाहे हमने उनके माता - पिता के दर्शन न भी किये हों। इसी प्रकार अग्नि व धूंए का साहचर्य जग प्रसिद्ध है अतः कालान्तर में धूंए को देखकर अग्नि का अनुमान किया जाता है।
क्रमशः ...

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