बुधवार, 31 जुलाई 2019

सैद्धान्तिक चर्चा - २३

सैद्धान्तिक चर्चा - २३.               आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

         ध्यान दें - यह धारणा की जड़ पदार्थ स्वयमेव अकस्मात् मिल गए और सृष्टि बन गई क्या बुद्धिगम्य है? सदैव स्मरण रखना चाहिए कि सृष्टि में संयोग के साथ वियोग भी प्रत्यक्ष है जो पदार्थ भिन्न - भिन्न तत्वों के मेल से बनता है वह कभी ना कभी विनष्ट भी होता है संयोग और वियोग के विपरीत गुण एक ही जड़ पदार्थ में न साथ साथ रह सकते हैं और न ही कार्य कर सकते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जिन जड़ परमाणुओं में संयोग का गुण है वे संयोग ही करेंगे तो वह पदार्थ विनष्ट कैसे होगा? इसी प्रकार जिन जड़ परमाणुओं में अलग अलग रहने की प्रवृत्ति है वे संयोग कैसे करेंगे अर्थात् पदार्थ बनेगा कैसे? यदि दोनों गुण एक साथ मान भी लिए जायें तो विरोधी होने के कारण न निर्माण होगा न विनाश । अतः ऐसी कोई समर्थ सत्ता चाहिए जो इन जड़ पदार्थों को स्व ईक्षण से मिलाती, कायम रखती व विनष्ट करती है। ब्रह्माण्ड की विशालता, विविधता, चमत्कारी अद्भुत नियमों की उपस्थिति पर दृष्टि डालते ही पता चल जाता है कि यह कार्य अल्पज्ञ मनुष्य का हो ही नहीं सकता । यह मात्र सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान ईश्वर का ही कार्य हो सकता है।

       किसी चैतन्य सत्ता के अस्तित्व से इन्कार करने वाले बन्धुओं को विज्ञान द्वारा खोजे नियमों पर भी विचार कर लेना चाहिए जिन्हें वे सर्वोपरि स्वनिर्मित मानते हैं। महान वैज्ञानिक न्यूटन के गति का प्रथम नियम कहता है कि कोई वस्तु अपनी स्थिर अथवा गतिज अवस्था में ही रहेगी जब तक कि उस पर बाह्य बल का प्रयोग न किया जाए। विचारणीय है कि जगत गतिशील है इसे गति किसने प्रदान की? आधुनिक विज्ञान में जिन कणों को परमाणु कहा जाता है उस परमाणु की रचना देखिए। इसके केन्द्रक में प्रोटॉन तथा न्यूट्रान हैं। इनके चारों ओर इलेक्ट्रॉन अपनी कक्षाओं में चक्कर लगा रहे हैं। इन्हीं इलेक्ट्रॉनों की संख्या व गति से परमाणु का अस्तित्व व क्रियाशीलता है। इन इलेक्ट्रॉनों को गतिमान किस बाह्यबल ने किया? विचारणीय यह है कि आज जिन फोटोन आदि कणों को विज्ञान मूल कण मान रहा है उनको सर्वप्रथम गति किसने प्रदान की? यह बल किसका है? और यदि गति आन्तरिक ऊर्जा के कारण है तो उस ऊर्जा का प्रदाता कौन है? सृष्ट्यारम्भ में मूल कणों (पदार्थ) को क्रियाशील कौन करता है? यह कार्य केवल उसी सत्ता का हो सकता है जो इन सूक्ष्म कणों से भी सूक्ष्म होने के साथ इस मानव कल्पनातीत ब्रह्माण्ड से भी विशाल होने के कारण ही उस सर्वत्र विरल रूप से विखरे मूल उपादान पदार्थ को क्रियाशील कर सकता है। जिसके बारे में कहा है-
अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्।। (कठोपनिषद्)
अणु से अति सूक्ष्म, बड़े से अधिक बड़ा परमात्मा इस जन्मधारी जीवात्मा के हृदय प्रदेश में विद्यमान है। यह केवल ईश्वर है। ईश्वर के अतिरिक्त कोई नहीं। कोई हो ही नहीं सकता।

इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्गवेद यदि वा न वेद।।(ऋग्वेद १०/१२९/७)
          हे (अङ्ग) मनुष्य! जिससे यह विविध सृष्टि प्रकाशित हुई है, जो धारण और प्रलय कर्ता है, जो इस जगत् का स्वामी , जिस व्यापक में यह सब जगत उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय को प्राप्त होता है, सो परमात्मा है, उसको तू जान और दूसरे को सृष्टि कर्ता मत मान।

तम आसीत्तमसा गूळहमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकम्।। (ऋग्वेद १०/१३९/३)
      यह सब जगत् सृष्टि से पहले अन्धकार से आवृत, रात्रिरूप में जानने के अयोग्य, आकाश रूप सब जगह तथा तुच्छ अर्थात् अनन्त परमेश्वर के सामने एक देशी आच्छादित था। पश्चात् परमेश्वर ने अपने महिमा (सामर्थ्य) से कारण रूप से कार्यरूप कर दिया है।

हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।। (ऋग्वेद १०/१२१/१)
     हे मनुष्यो! जो सब सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों का आधार और जो जगत् हुआ था, है और होगा उसका एक अद्वितीय पति परमात्मा इस जगत् की उत्पत्ति के पूर्व विद्यमान था और जिसने पृथ्वी से लेके सूर्य पर्यन्त जगत् को उत्पन्न किया है, उस परमात्मा देव की प्रेम से भक्ति किया करें।

पुरुषऽएवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति।।(यजुर्वेद ३१/२)
      हे मनुष्यो! जो सब में पूर्ण पुरुष और जो नाश रहित कारण और जीव का स्वामी, जो पृथिव्यादि जड़ और जीव  से अतिरिक्त है, वही पुरुष इस सब भूत, भविष्यत् और वर्तमानस्थ जगत् को बनाने वाला है।

क्रमशः ...

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