सोमवार, 23 मार्च 2020

आध्यात्मिक चर्चा - १५

सैद्धान्तिक चर्चा - १५ 
                   आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

कर्म - मन, वाणी और शरीर से जीवात्मा जो विशेष प्रकार की क्रियाएं करता है, उसे कर्म कहते हैं। जैसे यज्ञ करना, सत्य बोलना, दान देना, सब के लिए सुख की कामना करना इत्यादि ।

कर्म का परिणाम - किसी भी क्रिया ( कर्म ) की निकटतम प्रतिक्रिया को 'कर्म का परिणाम' कहते हैं। जैसे - 
कर्म - यज्ञ करना,
कर्म का परिणाम - वायु की शुद्धि, सुगन्ध प्राप्ति, स्वास्थ वृद्धि, रोग निवारण आदि।

कर्म का प्रभाव - कर्म, कर्म के परिणाम अथवा कर्म के फल को जानकर चेतनों पर जो इनकी प्रतिक्रिया होती है, उसे 'कर्म का प्रभाव'  कहते हैं । जैसे - 
कर्म - यज्ञ करना।
कर्म का प्रभाव - यज्ञ कर्ता को प्रसन्नता, आनन्द, शान्ति, उत्तम संस्कार बनना इत्यादि और जिन जिन मनुष्यों को यज्ञ-कर्ता के यज्ञ कर्म की सूचना मिलेगी वे सब  मनुष्य यज्ञ कर्ता को अच्छा व्यक्ति मानेंगे और उन्हें यज्ञ के लिए प्रेरणा भी मिलेगी तथा उनकी यजमान के प्रति श्रद्धा बढ़ेगी।यह उन मनुष्यों पर पड़ने वाला यज्ञ कर्म का प्रभाव है।

कर्म का फल - कर्म करे अनुसार कर्म कर्ता को जो न्याय पूर्वक सुख दुःख या सुख दुःख के साधन प्राप्त होते हैं उन्हें कर्म का फल कहते हैं। जैसे - 
कर्म - यज्ञ करना
कर्म का फल - यज्ञ कर्ता को पुनर्जन्म में अच्छे, धार्मिक, विद्वान, सदाचारी, सम्पन्न मातापिता के घर में मनुष्य जन्म प्राप्त होना, यज्ञ कर्म का फल है।

     कर्म का परिणाम और प्रभाव कर्म के कर्ता पर भी हो सकता है अथवा अन्यों पर भी हो सकता है।

     कर्म का फल न्यायपूर्वक कर्म कर्ता को ही मिलता है, अन्य को नहीं। कहीं कहीं सामूहिक कर्मों का सामूहिक फल भी होता है। 

   जहाँ किसी कर्म कर्ता के कर्म से किसी अन्य को अन्याय पूर्वक सुख दुःख मिलता है वह कर्म का फल नहीं है बल्कि वह कर्म का परिणाम या प्रभाव है।

  क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः।

  ( क्लेश-मूलः ) अविद्यादि क्लेश है मूल = कारण जिस कर्म समुदाय के वह ( कर्माशय ) कर्म समुदाय ( दृष्ट-अदृष्ट-जन्म-वेदनीयः ) वर्तमान तथा भावी जन्म में भोग्य = फल देनेवाले होते है।
     इस सूत्र में इस जन्म में फल देने वाले और आगामी जन्म में फल देने वाले कर्म समुदाय का मूल अविद्या बताया है। जिन कर्मों का फल इस जन्म में मिलता है, उनको द्रष्टजन्मवेदनीय कहते हैं और जिन कर्मों का फल आगामी जन्मों मे मिलता है उनको अदृष्टजन्मवेदनी कहते हैं।

वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्तफला इति प्रतिपक्षभावनम्।

( वितर्काः ) वितर्क है ( हिंसा-आदयः ) हिंसा आदि [ यम नियमों के विरोधी भाव ] ( कृत-कारित-अनुमोदित ) स्वयं किये हये, दूसरों से करवाये हुये और समर्थन किये हुए ( लोभ-क्रोध-मोहपूर्वकाः ) लोभ-क्रोध-मोह कारण वाले ( मृदु-मध्य-अधिमात्रा ) मन्द, मध्य, और तीव्र भेद वाले ( दुःख-अज्ञान-अनन्तफलाः ) अत्यधिक दुःख और अत्यधिक अज्ञान फल वाले ( इति ) इस प्रकार ( प्रतिपक्ष- भावनम् ) प्रतिपक्ष का विचार करे अर्थात् दूर रहने का प्रयत्न करे।
       उन में से हिंसा - की गयी, करवायी गई  और अनुमोदित की गई इस प्रकार त्रिविध है । इन में से एक एक फिर तीन प्रकार की है। मांस चर्म के लिए की हुयी हिंसा लोभ से। इसने अपकार किया इस भावना से की हुई हिंसा क्रोध से। इस हिंसा से मुझे धर्म ( पुण्य ) मिलेगा ऐसी भावना से की हुयी हिंसा मोह से। लोभ, क्रोध, मोह भी मृदु ( मन्द ), मध्य ( पहले से अधिक ), अधिमात्र ( सबसे अधिक ) ऐसे तीन - तीन प्रकार के होते हैं। इस प्रकार हिंसा के सत्ताईस भेद होते हैं। 

      वितर्कों में से हिंसा के विषय में इस प्रकार समझना चाहिए कि हिंसा तीन प्रकार है - कृत ( स्वयं की हुई ), कारित ( अन्य से करवाई हुई ) और अनुमोदित ( किसी के द्वारा की गई हिंसा को उचित मानना ) । लोभ, क्रोध और मोह, ये हिंसा के तीन कारण हैं। लोभ से कृत, लोभ से कारित, लोभ से अनुमोदित। इसीप्रकार क्रोध से कृत, कारित, अनुमोदित। मोह से कृत, कारित, अनुमोदित। ये ९ भेद हुए। कारणों के स्तर के भेद से हिंसा तीन प्रकार की होती है - अल्प लोभ से, मध्य स्तर के लोभ से, अधिक लोभ से की हूई हिंसा। अल्प क्रोध से, अध्यम स्तर के क्रोध से और अधिक क्रोध से की गई हिंसा। अल्प मोह से मध्यम स्तर के मोह से और अधिक मोह से की गई हिंसा। इस प्रकार के कारणों के भेद से कृत हिंसा के ९ भेद हो जायेंगे। इसी प्रकार कारित तथा अनुमोदित हिंसा के ९-९ होने पर २७ प्रकार की हिंसा हुई। पुनः इनके भी मृदु, मध्य, अधिमात्र भेद होने से हिंसा ८१ प्रकार की होती है। इसी प्रकार असत्य आदि के विषय में भी जानना चाहिए।

      कर्मों को और अच्छे से समझने के लिए दार्शनिकों ने कर्मों को तीन भागों में बाँटा है - क्रियमाण कर्म, सञ्चित कर्म और प्रारब्ध कर्म।

क्रियमाण कर्म - जो वर्तमान में किया जाता है, सो क्रियमाण कर्म कहा जाता है। अर्थात् हम जो भी कर्म करते हैं  मन, वाणी और शरीर से शुभ कर्म, अशुभ कर्म और मिश्रित कर्म यह सब क्रियमाण कहलाता है।

सञ्चित कर्म - जो क्रियमाण का संस्कार ज्ञान में जमा होता है वे सञ्चित संस्कार ( कर्म ) कहाते हैं। अर्थात् सञ्चित वे संस्कार व वासना हैं जो किये जाते रहे कर्मों से उत्पन्न हुए हैं परन्तु जिनका फल अभीतक नहीं भोगा गया वे आत्मा में संस्कार व वासना रूप में एकत्रित ( सञ्चित ) रहते हैं।

प्रारब्ध कर्म - जो पूर्व किये हुए कर्मों के सुखदुःखस्वरूप फल का भोग किया जाता है उसको प्रारब्ध कहते हैं। अर्थात् अगणित सञ्चित संस्कारों में से जो संस्कार सद्यः फलोन्मुख होते हैं उनके अनुरूप किसी विशेष योनि में आत्मा देह धारण करता है। इस जन्म अथवा जीवन काल के प्रारम्भक होने के कारण इन संस्कारों का नाम प्रारब्ध है। 

          प्रारब्ध को ही पौराणिक भाषा में भाग्य कहते हैं । उपरोक्त प्रसंग को अच्छे से समझने के बाद यदि यह प्रश्न किया जाय कि कर्म बड़ा या भाग्य ? तो उत्तर कर्म बड़ा है यही आयेगा क्योंकि कर्म से ही भाग्य ( प्रारब्ध ) का निर्माण होता है। इसीलिए यह कहा जा सकता है कि जीव अपने भाग्य का स्वयं निर्माता है। हम अपने भाग्य के स्वयं निर्माता हैं।
   
क्रमशः ...




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