गुरुवार, 26 मार्च 2020

आध्यात्मिक चर्चा - १६

आध्यात्मिक चर्चा - १६ 
                         आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री


       पिछली चर्चा में कर्म के विभिन्न प्रकारों का वर्णन किया गया था । इस चर्चा में कर्म के फल का वर्णन किया जायेगा। आज हम इस बात पर चर्चा करेंगे कि कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। आगे इस बात पर चर्चा करेंगे कि कर्मों का फल कौन देता है, जीव को कर्मों का फल कैसे मिलता है।

       कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है, किसी भी अनुष्ठान से पाप कर्मों के फल में परिवर्तन नहीं होता -

अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।
 नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्प कोटि शतैरपि।।
( ब्रह्मवैवर्तपुराण)
       अच्छा या बुरा कर्मफल अवश्य ही भोगना पड़ता है चाहे जितना भी समय हो जाय बिना भोगे कार्य की समाप्ति नहीं होती है।


आत्मना विहितं दुःखमात्मना विहितं सुखम्।
गर्भशय्यामुपादाय भुज्यते पौर्वदेहिकम् ।। ( महाभारत )
        दुःख अपने ही किये हुए कर्मों का फल है और सुख भी अपने ही पूर्व कृत कर्मों का परिणाम है। जीव माता की गर्भशैया में आते ही पूर्व शरीर द्वारा उपार्जित सुख-दुःख का उपभोग करने लगता है।

        तत्काल फल न मिले तो भ्रमित न होवें। बीज बोने पर फल पाने में कुछ समय लग जाता है, इसी प्रकार कर्म का फल मिलने में थोड़ी देर लगने से अधीर लोग आस्था खो बैठते हैं। और ऐसा हो जाय कि शुभ कर्म करते हुए दुःख प्राप्त हो तो यह ना समझे कि परमेश्वर की कैसी व्यवस्था है , हमें दुःख क्यों मिल रहा है। इस पर एक भजन की पंक्तियाँ पढ़िये सब समझ में आजायेगा।

शुभ कर्म करते हुए दुःख भी अगर पारहे ।
पिछले पाप कर्मों का भुगतान वो भुगता रहे।।
आगे मत उठाइए पिछले बोझ उतारिये।
हसते मुस्कुराते हुए ज़िन्दगी गुजारिये।।

इसीप्रकार जो बुरे कर्म करते हुए सुख पारहे हों तो उनको भी समझ लेना चाहिए कि अभी पिछले शुभ कर्मों का फल मिल रहा है इस समय जो बुरे कर्म हम कर रहे हैं उनका भी फल एक दिन अवश्य मिलेगा। जो दुष्कर्म के दण्ड से बचे रहने की बात सोचने लगते हैं। कर्मफल मे विलम्ब होने के कारण जो यह विचार करते हैं कि कभी भी कर्मों का फल नहीं मिलेगा , उन्हें महर्षि व्यास की बात ध्यान देकर समझनी चाहिए। उन्होंने कहा -

नाधर्मः कारणापेक्षी कर्तारमभिमुञ्चति। 
कर्ताखलु यथा कालं ततः समभिपद्यते॥ ( महाभारत)
     अधर्म किसी भी कारण की अपेक्षा से कर्ता को नहीं छोड़ता निश्चय रूप से करने वाला समयानुसार किये कर्म के फल को प्राप्त होता है। 

यथा धेनु सहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम्॥
 तथा पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति।
( महाभारत )
       जैसे बछड़ा हजार गौओं में अपनी माँ को पहचान लेता कर उसे पा लेता है, वैसे ही पहले का किया हुआ कर्म भी कर्ता के पास पहुंच जाता है।


यदाचरति कल्याणि ! शुभं वा यदि वाऽशुभम्।
तदेव लभते भद्रे ! कर्ता कर्मजमात्मनः॥ ( रामायण )

   सीता जी को समझाते हुए श्री राम कहते हैं कि हे मङ्गलमयी सीते ! मनुष्य जो अच्छा या बुरा कर्म करता है, अपने उसी किये कर्म के वैसे ही फल को प्राप्त किया करता है।

        रामायण के अरण्यकाण्ड में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम कहते हैं कि पहले जन्म में हमने इच्छानुसार बारम्बार बहुत सारे पाप कर्म किये हैं, आज उनका फल मिल रहा है, इसी कारण हमारे ऊपर दुःख पड़ रहे हैं। राज्य का नाश होना, पिताजी का मरण, माता जी का वियोग होना, बन्धु बान्धवों से छूटना, यह सब बातें याद आती हैं तो हमारे शोक के वेग को परिपूर्ण कर देती हैं। 

जन्म-जन्मन्यभ्यस्तं दानमध्ययनं तपः ।
तेनैवाऽभ्यासयोगेन तदेवाभ्यस्ते पुनः ।।
( चाणक्य नीति )
      जन्म-जन्मान्तर से प्राणी ने दान देने तथा शास्त्रों के अध्ययन और तप करने का जो अभ्यास किया है, नया शरीर मिलने पर उसी अभ्यास के कारण ही वह सत्कर्मों की ओर प्रवृत्त होता है। अतः मनुष्य को अपना भावी जन्म सुधारने के लिए इस जन्म में शुभ कर्मों के अनुष्ठान का अभ्यास करना चाहिए।

येन येन यथा यद्यत् पुरा कर्म समीहितम्।
तत्तदेकतरो भुङ्क्ते नित्यं विहितमात्मना।।
( महाभारत ) 
      जिस जिस ने भी पहले जिस प्रकार से जो जो भी कर्म किया है, वह वह अपना किया कर्म करने वाला सदैव अकेला ही भोगता है, दूसरा उसका साथ नहीं देता। 

एकः पापानि कुरुते फलं भुङ्क्ते महाजनः |
भोक्तारो विप्र मुच्यन्ते कर्ता दोषेण लिप्यते || 
( महाभारत )
        पाप तो एक आदमी करता है, परन्तु उससे लाभ अनेक लोग उठाते हैं। लाभ उठाने वाले पापी नहीं कहलाते, पर केवल पाप करने वाला ही पापी कहलाता है।

कर्म चैव हि सर्वेषां करणानां प्रयोजनम्।
श्रेयः पापीयसां चात्रफलं भवति कर्मणाम्।।
( रामायण)
       सभी इन्द्रियों का प्रयोजन कर्म ही है। अच्छे अथवा बुरे कर्मों का इस संसार में ही अच्छा या बुरा फल देखा जाता है।

दारिद्रयरोग दुःखानि बन्धन व्यसनानि च।
आत्मापराधवृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम्।।
( पञ्च तन्त्र)
        गरीबी, बीमारियां, अन्य प्रकार के दुःख, कैद और संकट ये सब प्राणियों के निजी किये गये अपराध रूपी वृक्ष के फल हैं।

भीमं वनं भवति तस्य पुरं प्रधानं,
सर्वो जनः स्वजनतामुपयाति तस्य।
कृत्स्ना च भूर्भवति सन्निधिरत्नपूर्णा,
 यस्यास्ति पूर्वसुकृतं विपुलं नरस्य।। 
( नीति शतक )
        जिस मनुष्य के पूर्वजन्म में किए शुभकर्मों का पुण्यफल प्रबल है, उसके लिए भयंकर वन भी श्रेष्ठ नगर बन जाता है, सब लोग उसके मित्र स्वजन बन जाते हैं और सारी पृथ्वी उसके लिए उत्तम निधियों और रत्नों से परिपूर्ण हो जाती है।

कर्मणा जायते सर्वं कर्मैव गति साधनम्।
तस्मात् सर्व प्रयत्नेन साधु कर्म समाचरेत।। (विष्णु पुराण)
       कर्म द्वारा ही सब कुछ उत्पन्न होता है और कर्म ही आगे बढ़ने का साधन है। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह यथा शक्ति अच्छा कर्म ही करे।

कर्मायत्तं फलं पुंसां बुद्धिः कर्मानुसारिणी।

तथापि सुधियाऽऽचार्याः सुविचार्यैव कुर्वते ।।
( चाणक्य नीति )
      मनुष्यों को कर्मानुसार ही फल प्राप्त होता है और बुद्धि भी कर्मानुसार ही बनती है तो भी बुद्धिमान लोग श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा सोचकर ही सभी कार्य करते हैं।

क्रमशः ...

सोमवार, 23 मार्च 2020

आध्यात्मिक चर्चा - १५

सैद्धान्तिक चर्चा - १५ 
                   आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

कर्म - मन, वाणी और शरीर से जीवात्मा जो विशेष प्रकार की क्रियाएं करता है, उसे कर्म कहते हैं। जैसे यज्ञ करना, सत्य बोलना, दान देना, सब के लिए सुख की कामना करना इत्यादि ।

कर्म का परिणाम - किसी भी क्रिया ( कर्म ) की निकटतम प्रतिक्रिया को 'कर्म का परिणाम' कहते हैं। जैसे - 
कर्म - यज्ञ करना,
कर्म का परिणाम - वायु की शुद्धि, सुगन्ध प्राप्ति, स्वास्थ वृद्धि, रोग निवारण आदि।

कर्म का प्रभाव - कर्म, कर्म के परिणाम अथवा कर्म के फल को जानकर चेतनों पर जो इनकी प्रतिक्रिया होती है, उसे 'कर्म का प्रभाव'  कहते हैं । जैसे - 
कर्म - यज्ञ करना।
कर्म का प्रभाव - यज्ञ कर्ता को प्रसन्नता, आनन्द, शान्ति, उत्तम संस्कार बनना इत्यादि और जिन जिन मनुष्यों को यज्ञ-कर्ता के यज्ञ कर्म की सूचना मिलेगी वे सब  मनुष्य यज्ञ कर्ता को अच्छा व्यक्ति मानेंगे और उन्हें यज्ञ के लिए प्रेरणा भी मिलेगी तथा उनकी यजमान के प्रति श्रद्धा बढ़ेगी।यह उन मनुष्यों पर पड़ने वाला यज्ञ कर्म का प्रभाव है।

कर्म का फल - कर्म करे अनुसार कर्म कर्ता को जो न्याय पूर्वक सुख दुःख या सुख दुःख के साधन प्राप्त होते हैं उन्हें कर्म का फल कहते हैं। जैसे - 
कर्म - यज्ञ करना
कर्म का फल - यज्ञ कर्ता को पुनर्जन्म में अच्छे, धार्मिक, विद्वान, सदाचारी, सम्पन्न मातापिता के घर में मनुष्य जन्म प्राप्त होना, यज्ञ कर्म का फल है।

     कर्म का परिणाम और प्रभाव कर्म के कर्ता पर भी हो सकता है अथवा अन्यों पर भी हो सकता है।

     कर्म का फल न्यायपूर्वक कर्म कर्ता को ही मिलता है, अन्य को नहीं। कहीं कहीं सामूहिक कर्मों का सामूहिक फल भी होता है। 

   जहाँ किसी कर्म कर्ता के कर्म से किसी अन्य को अन्याय पूर्वक सुख दुःख मिलता है वह कर्म का फल नहीं है बल्कि वह कर्म का परिणाम या प्रभाव है।

  क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः।

  ( क्लेश-मूलः ) अविद्यादि क्लेश है मूल = कारण जिस कर्म समुदाय के वह ( कर्माशय ) कर्म समुदाय ( दृष्ट-अदृष्ट-जन्म-वेदनीयः ) वर्तमान तथा भावी जन्म में भोग्य = फल देनेवाले होते है।
     इस सूत्र में इस जन्म में फल देने वाले और आगामी जन्म में फल देने वाले कर्म समुदाय का मूल अविद्या बताया है। जिन कर्मों का फल इस जन्म में मिलता है, उनको द्रष्टजन्मवेदनीय कहते हैं और जिन कर्मों का फल आगामी जन्मों मे मिलता है उनको अदृष्टजन्मवेदनी कहते हैं।

वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्तफला इति प्रतिपक्षभावनम्।

( वितर्काः ) वितर्क है ( हिंसा-आदयः ) हिंसा आदि [ यम नियमों के विरोधी भाव ] ( कृत-कारित-अनुमोदित ) स्वयं किये हये, दूसरों से करवाये हुये और समर्थन किये हुए ( लोभ-क्रोध-मोहपूर्वकाः ) लोभ-क्रोध-मोह कारण वाले ( मृदु-मध्य-अधिमात्रा ) मन्द, मध्य, और तीव्र भेद वाले ( दुःख-अज्ञान-अनन्तफलाः ) अत्यधिक दुःख और अत्यधिक अज्ञान फल वाले ( इति ) इस प्रकार ( प्रतिपक्ष- भावनम् ) प्रतिपक्ष का विचार करे अर्थात् दूर रहने का प्रयत्न करे।
       उन में से हिंसा - की गयी, करवायी गई  और अनुमोदित की गई इस प्रकार त्रिविध है । इन में से एक एक फिर तीन प्रकार की है। मांस चर्म के लिए की हुयी हिंसा लोभ से। इसने अपकार किया इस भावना से की हुई हिंसा क्रोध से। इस हिंसा से मुझे धर्म ( पुण्य ) मिलेगा ऐसी भावना से की हुयी हिंसा मोह से। लोभ, क्रोध, मोह भी मृदु ( मन्द ), मध्य ( पहले से अधिक ), अधिमात्र ( सबसे अधिक ) ऐसे तीन - तीन प्रकार के होते हैं। इस प्रकार हिंसा के सत्ताईस भेद होते हैं। 

      वितर्कों में से हिंसा के विषय में इस प्रकार समझना चाहिए कि हिंसा तीन प्रकार है - कृत ( स्वयं की हुई ), कारित ( अन्य से करवाई हुई ) और अनुमोदित ( किसी के द्वारा की गई हिंसा को उचित मानना ) । लोभ, क्रोध और मोह, ये हिंसा के तीन कारण हैं। लोभ से कृत, लोभ से कारित, लोभ से अनुमोदित। इसीप्रकार क्रोध से कृत, कारित, अनुमोदित। मोह से कृत, कारित, अनुमोदित। ये ९ भेद हुए। कारणों के स्तर के भेद से हिंसा तीन प्रकार की होती है - अल्प लोभ से, मध्य स्तर के लोभ से, अधिक लोभ से की हूई हिंसा। अल्प क्रोध से, अध्यम स्तर के क्रोध से और अधिक क्रोध से की गई हिंसा। अल्प मोह से मध्यम स्तर के मोह से और अधिक मोह से की गई हिंसा। इस प्रकार के कारणों के भेद से कृत हिंसा के ९ भेद हो जायेंगे। इसी प्रकार कारित तथा अनुमोदित हिंसा के ९-९ होने पर २७ प्रकार की हिंसा हुई। पुनः इनके भी मृदु, मध्य, अधिमात्र भेद होने से हिंसा ८१ प्रकार की होती है। इसी प्रकार असत्य आदि के विषय में भी जानना चाहिए।

      कर्मों को और अच्छे से समझने के लिए दार्शनिकों ने कर्मों को तीन भागों में बाँटा है - क्रियमाण कर्म, सञ्चित कर्म और प्रारब्ध कर्म।

क्रियमाण कर्म - जो वर्तमान में किया जाता है, सो क्रियमाण कर्म कहा जाता है। अर्थात् हम जो भी कर्म करते हैं  मन, वाणी और शरीर से शुभ कर्म, अशुभ कर्म और मिश्रित कर्म यह सब क्रियमाण कहलाता है।

सञ्चित कर्म - जो क्रियमाण का संस्कार ज्ञान में जमा होता है वे सञ्चित संस्कार ( कर्म ) कहाते हैं। अर्थात् सञ्चित वे संस्कार व वासना हैं जो किये जाते रहे कर्मों से उत्पन्न हुए हैं परन्तु जिनका फल अभीतक नहीं भोगा गया वे आत्मा में संस्कार व वासना रूप में एकत्रित ( सञ्चित ) रहते हैं।

प्रारब्ध कर्म - जो पूर्व किये हुए कर्मों के सुखदुःखस्वरूप फल का भोग किया जाता है उसको प्रारब्ध कहते हैं। अर्थात् अगणित सञ्चित संस्कारों में से जो संस्कार सद्यः फलोन्मुख होते हैं उनके अनुरूप किसी विशेष योनि में आत्मा देह धारण करता है। इस जन्म अथवा जीवन काल के प्रारम्भक होने के कारण इन संस्कारों का नाम प्रारब्ध है। 

          प्रारब्ध को ही पौराणिक भाषा में भाग्य कहते हैं । उपरोक्त प्रसंग को अच्छे से समझने के बाद यदि यह प्रश्न किया जाय कि कर्म बड़ा या भाग्य ? तो उत्तर कर्म बड़ा है यही आयेगा क्योंकि कर्म से ही भाग्य ( प्रारब्ध ) का निर्माण होता है। इसीलिए यह कहा जा सकता है कि जीव अपने भाग्य का स्वयं निर्माता है। हम अपने भाग्य के स्वयं निर्माता हैं।
   
क्रमशः ...




गुरुवार, 19 मार्च 2020

जीवन की प्रथम‌ और महत्वपूर्ण आवश्यकता "स्वास्थ्य"

जीवन की प्रथम‌ और महत्वपूर्ण आवश्यकता "स्वास्थ्य" 


स्वस्थ रहने के आवश्यक नियम -


० रात्रि की सोने से पहले दांत साफ करके सोयें।


० प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में जगें।


० जगते ही गुनगुना पानी पीयें । जितना पी सकते उतना पीयें। धीरे धीरे पानी की मात्रा बढ़ाते हुए एक लीटर तक बढायें।


० थोड़ा टहलकर शौच से निवृत्त होकर अच्छे से हाथ धोयें। ( ध्यान रहे - एक ही साबुन से सभी हाथ ना धोयें या तो तरल स्थिति ( लिक्विड ) या  पाउडर स्थिति में हाथ धोने का साबुन हो उससे धोयें या साफ मिट्टी से भी धो सकते हैं)


० उपरान्त दांत साफ करें इसके लिए आयुर्वेदिक मञ्जन, पेस्ट या दातुन से करें। दांत साफ करने के बाद जीवी से चीभ साफ करें तथा अपने हाथ की दोनों बीच की बड़ी उंगलियों ( मध्यमा और अनामिका ) को मिलाकर धीरे धीरे जीभ पर रगडें। आंख, नाक से पानी निकले तो घबरायें नहीं, यह सब सफाई ही है। और मुँह में से पानी पलट जाये तो भी ना घबरायें। 


० फिर व्यायाम, आसन और प्राणायाम करें। ( व्यायाम, आसन और प्राणायाम की ठीक जानकारी लेकर ही अभ्यास करें )  व्यायाम करते समय शक्ति का अतिक्रमण न करें । पहले दिन थोड़ा अभ्यास करें फिर प्रतिदिन अभ्यास का समय बढ़ायें। अच्छे परिणाम के लिए अभ्यास प्रतिदिन करें। 

      व्यायाम इस तरह करें कि शरीर के प्रत्येक जोड़ का अभ्यास हो जाय। उंगलियों के जोड़ का अभ्यास बार बार मुट्ठी बन्द करके करें, मुट्ठी बन्द करके और खोलकर कलाई घुमाकर कलाई का अभ्यास करें इसी प्रकार कुहनी, कन्धे, कमर-कटि, घुटने और टखने को उचित दिशा में घुमाकर कर अभ्यास करें। धीरे धीरे कुछ कठिन अभ्यास करें।

        पद्मासन, वज्रासन, चक्रासन और मण्डूकासन आदि का अभ्यास करें। आरम्भ में टहलने का अभ्यास भी अच्छा रहेगा। युवावस्था वाले दौड़ने और दण्ड-बैठक का अभ्यास धीरे धीरे बढ़ायें।

       प्राणायाम - आरम्भ में थोड़े समय प्राणायाम करें धीरे धीरे प्राणायाम का समय बढ़ायें। प्राणायाम और क्रियायें अनेक प्रकार की हैं, कम से कम और अत्यावश्यक प्राणायाम और क्रियाओं का क्रम इस प्रकार रखें - 

१. भस्त्रिका

२. कपाल भाति

३. बाह्य प्राणायाम ( त्रि बन्ध के साथ )

४. अग्निसार

५. अनुलोम विलोम

६. ओंकार जाप या उद्गीथ

७. उज्जायी

८. भ्रामरी

९. गायत्री जाप ( सन्ध्या )


० व्यायाम से पहले या कुछ देर के उपरान्त स्नान करें। 


० उपरान्त दैनिक यज्ञ (अग्निहोत्र ) करें।


० भोजन में शाकाहार ही लें।


० दिन में अपने आवश्यक कार्यों को करके रात्रि को समय से ही सोयें।


० साम के भोजन से पूर्व दूर तक अवश्य टहलें। टहलने की दूरी धीरे धीरे  बढ़ायें।

० साम के भोजन को रात्रि से पूर्व करें।


[यहां पर जानकारी केवल सूत्र रूप में लिखी है इन बिन्दुओं पर विस्तार से भी कभी लिखेंगे। उपरोक्त सन्दर्भ में अधिक जानकारी के लिए आप हमसे सम्पर्क कर सकते हैं - ९८९७०६०८२२]

आवश्यक सन्देश

नमस्ते जी

*[यह सन्देश यदि आवश्यक लगे तो साझा अवश्य करें]*

        आज सारा विश्व भयंकर कोराना विषाणु से बचाव में लगा हुआ है। भारत की केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकारें भी इस क्षेत्र में सजगता के साथ आवश्यक कार्य कर रही हैं। चिकित्सकों का योगदान बहुत ही सराहनीय है। मीडिया और सोशल मीडिया भी सभी को जागरुक कर रहा है। जो जो भी इस कार्य में सहयोगी हैं उनको धन्यवाद देते हुए इस समय सभी के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि स्वास्थ संस्थाओं ‌के द्वारा बतायी गयी जानकारी को हम‌ सब अपनायें और देश को बचायें।

      आयुर्वेद में विषाणु नाशक अनेक पदार्थों का वर्णन किया है, उनमें से सबसे अधिक उत्तम पदार्थ 'गोघृत' है। गोघृत के सेवन करने और यज्ञ ( अग्निहोत्र ) करने से सभी प्रकार के विषाणुओं का नाश हो जाता है।

         सृष्टि के आदि काल से आज तक लम्बा समय हो गया ( १९६०८५३१२० वर्ष ) अनेक बार बीमारियों ने महामारी का रूप लिया है, उनसे बचने और जीतने के अनेक तरीके भी तैयार किये गये हैं।

         यहां एक बात तो यह जानने योग्य है कि चिकित्सा की सबसे प्राचीन, विस्तृत और लम्बे समय तक स्वास्थ लाभ देने वाली उत्तम पद्धति ' आयुर्वेद' ही है। इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि अन्य पद्धतियां ठीक नहीं है, अन्य पद्धतियों ने भी हमारे स्वास्थ के क्षेत्र में बहुत योगदान दिया है जिनमें एलोपेथी ने बहुत उच्च स्थान बनाया है। 

      वेद ज्ञान का आदि स्रोत है जिसमें स्वस्थ रक्षा से सम्बन्धित अनेक मन्त्र हैं, जिनके आधार पर हम स्वस्थ कैसे रहें और हम स्वस्थ कैसे हों, इन दोनों क्षेत्रों में आयुर्वेद ने बहुत काम किया है।

आज भी पहला प्रश्न यही है कि हम स्वस्थ कैसे रहें अर्थात् विषाणु से कैसे बचें, फिर दूसरा प्रश्न है कि हम स्वस्थ कैसे हों अर्थात् विषाणु से ग्रसित हो जायें तो उपचार क्या है?

ध्यान दें - 
        अपनी जीवन शैली वैदिक काल जैसी अपनायें अर्थात् स्वच्छता का ध्यान रखें, नित्य व्यायाम, आसन और प्राणायाम करें, शाकाहारी आहार ही लें, परमेश्वर की उपासना और गोघृत और औषधियों से अग्निहोत्र को दिनचर्या में सम्मिलित करें, माता-पिता-विद्वानों की सेवा को धर्म समझकर करें, अपने जीवन को चलाने और उन्नत करने के लिए किसी को भी हानि ना पहुंचायें। इससे हम स्वस्थ ही नहीं रहेंगे बल्कि सुखी रहेंगे।

         जिन कारणों से विषाणु फैलने की सम्भावना है उनसे बचें/बचायें। कोरोना विषाणु के ग्रसित होने के लक्षण प्रतीत होने पर और अधिक सावधानी बरतते हुए सरकार द्वारा बताये गये फोन सूत्र पर सम्पर्क करें।

       नॉवल कोरोना वायरस फैलने से रोकें|  खाँसते,छींकते वक़्त अपने मुँह को रुमाल/टिशू से ढकें| हाथों को लगातार साबुन से धोएं| अपनी आँख,नाक और मुँह को न छुएं| अगर किसी को खाँसी, बुखार या साँस लेने में तकलीफ़ हो तो उससे 1 मीटर की दूरी बनाये रखें| ज़रूरत पड़ने पर नज़दीकी स्वास्थ्य केंद्र या हेल्पलाइन नंबर. 01123978046 पर संपर्क करें|

शनिवार, 14 मार्च 2020

आध्यात्मिक चर्चा - १४

आध्यात्मिक चर्चा - १४
                                                            आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

       कर्म करने वाला आत्मा है और यह आत्मा मन, वाणी और शरीर से कर्म करता है। मुख्यतः कर्म दो प्रकार के होते हैं - सकाम और निष्काम ।

       महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के वेद विषय प्रकरण में परिभाषा लिखते हैं - "सब दुःखों से छूट के केवल परमेश्वर की ही प्राप्ति के लिए धर्म से युक्त सब कर्मों का यथावत् करना, यही 'निष्काम' मार्ग कहाता है, क्योंकि इसमें संसार के भोगों की कामना नहीं की जाती, इसी कारण से इसका फल अक्षय है। और जिसमें संसार के भोगों की इच्छा से धर्मयुक्त काम किये जाते हैं , उसको 'सकाम' कहते हैं, इस हेतु से इसका फल नाशवान् होता है, क्योंकि सब कर्मों करके इन्द्रिय भोगों को प्राप्त होके जन्म मरण से नहीं छूट सकता।" अर्थात् सकाम कर्म उन कर्मों को कहते हैं जो लौकिक फल ( धन , पुत्र , यश आदि ) को प्राप्त करने की इच्छा से किए जाते है । तथा निष्काम कर्म वे होते है , जो लौकिक फलों को प्राप्त करने के उद्देश्य से न किए जाए बल्कि ईश्वर / मोक्ष प्राप्ति की इच्छा से किए जाएं ।

       सकाम और निष्काम का विस्तार से अध्ययन करें तो कर्म चार प्रकार के होते हैं। योग दर्शन में कहा है - 

कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम्।। (४/७)

योगी के कर्म अशुक्ल = लौकिक पुण्य फल की कामना से रहित और अकृष्ण = पाप रहित होते हैं अर्थात् ईश्वरप्राप्तिमात्र के लिये किये गये 'निष्काम कर्म' होते हैं। योगी से भिन्न सांसारिक व्यक्तियों के शुभ, अशुभ और मिश्रित तीन प्रकार के कर्म होते हैं।
           यहां योगदर्शनकार ने कर्मों के चार प्रकार के विभाग किये हैं - 
१. शुक्ल 
२. कृष्ण 
३. शुक्ल-कृष्ण (मिश्रित)। और 
४ अशुक्ल अकृष्ण। 

० पुण्य कर्म को 'शुक्ल' कहते हैं। 
० पाप कर्म को 'कृष्ण' कहते हैं। 
० पुण्य-पाप मिश्रित कर्म को 'शुक्लकृष्ण कहते हैं। 
(उपरोक्त तीनों सकाम कर्म हैं।)
० निष्काम कर्म को 'अशुक्ल-अकृष्ण' कहते हैं।

       जो अपने और अन्यों के लिए लौकिक सुख को देते हैं , वे शुक्ल कर्म हैं। जैसे उत्तम कार्यों के लिए दान देना, निर्बलों की रक्षा करना आदि।

       जो अपने और अन्यों के लिए दुःखप्रद होते हैं, वे कृष्ण कर्म हैं। जैसे चोरी करना, अन्याय करना आदि।

       जो कर्म सुखप्रद और दुःखप्रद होते हैं वे शुक्लकृष्ण (मिश्रित) कर्म होते हैं। जैसे खेती करना, विविध बांधो का निर्माण करना आदि। क्योंकि इन कार्यों में अनेक प्राणियों को सुखदुःख दोनों की प्राप्ति होती है।

      इन कर्मों को ऐसे भी समझना चाहिए - शुक्ल कर्म जिन्हें शुभ कर्म भी कहते हैं और कृष्ण कर्म जिन्हें अशुभ कर्म भी कहते हैं। 

शुभ कर्म = शुक्ल = पुण्य = सत्कर्म = धर्म

अशुभ = कृष्ण = पाप = दुष्कर्म = अधर्म

       शुभ कर्म - जिन कर्मों से स्वयं को और दूसरों को सुख मिले। 
       अशुभ कर्म - जिन कर्मों से स्वयं को और दूसरों को दुःख मिले। 
        इनको ऐसे भी कह सकते हैं कि जो कर्म ईश्वर की आज्ञानुसार हैं वे शुभ कर्म हैं और 
          जो ईश्वराज्ञा के विरुद्ध हैं वे अशुभ कर्म हैं।

शुभ और अशुभ कर्मों को अच्छे से समझने के लिए यहां विस्तार से वर्णन किया जारहा है।

       अशुभ कर्म - महाराज मनु ने मन, वाणी और शरीर के अशुभ कर्मों का वर्णन किया है। 

० मन के तीन अशुभ (कृष्ण) कर्म होते हैं-

परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम्।
वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम्।।

( मानसं कर्म त्रिविधम् ) मन से चिन्तन किये गये अधर्म = अशुभ फलदायक कर्म तीन हैं - ( परद्रव्येषु + अभिध्यानम् ) दूसरे के धन, पदार्थ आदि को अपने अधिकार में लेने का विचार रखना, ( मनसा + अनिष्ट चिन्तनम् ) मन में किसी का बुरा करने का समय सोचना, ( च वितथ + अभिनिवेशः ) मिथ्या विचार या संकल्प करना, मिथ्या विचार या सिद्धान्त को सत्य स्वीकार करना।

० वाणी के चार अशुभ (कृष्ण) कर्म होते है-

पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः।
असंबद्धप्रलापश्च वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम्।।

( वाङ्मयं चतुर्विधं स्यात्) वाणी के अधर्म = अशुभ फलदायक कर्म चार प्रकार के ये हैं - ( पारुष्यम् ) कठोर वचन बोलकर किसी को कष्ट देना, ( च ) और ( अनृतम् ) झूठ बोलना, ( पैशुन्यम् अपि सर्वशः ) किसी की किसी भी प्रकार की चुगली करना, ( च ) और ( असम्बद्ध प्रलापः ) किसी पर मिथ्या लांक्षन या बुराई लगाना अथवा ऊल-जलूल बातें करना, अफवाहें उड़ाना आदि।

० शरीर के तीन अशुभ ( कृष्ण ) कर्म होते हैं-

अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानतः।
परदारोपसेवा च शारीरं त्रिविधं स्मृतम्।।

 ( शारीरंत्रिविधं स्मृतम् ) शरीर से किये जाने वाले अधर्म = अशुभ फलदायक कर्म तीन प्रकार के माने हैं - ( अदत्तानाम् उपादानम् ) किसी के धन या पदार्थों को स्वामी के दिये बिना चोरी, डकैती, रिश्वत आदि अधर्म के रूप में ग्रहण करना, ( च ) और ( अविधानतः हिंसा एव ) शास्त्र के द्वारा कर्तव्य के रूप में विहित हिंसाओं के अतिरिक्त हिंसा करना, [ शास्त्रविहित हिंसाएं हैं - युद्ध में शत्रु हिंसा करना, आततायी की हिंसा आदि ] ( च ) और ( परदारा + उपसेवा ) दूसरे की स्त्री से शारीरिक सम्बन्ध बनाना।

 शुभ कर्म - अशुभ कर्मों के साथ महाराज मनु शुभ कर्मों का वर्णन धर्म के लक्षणों के रूप में करते हैं-

धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।। 

( धृतिः ) कष्ट या विपत्ति में भी धैर्य बनाये रखना और दुःखी एवं विचलित न होना तथा धर्म पालन में कष्ट आने पर भी धैर्य रखकर पालन करते रहना, दुःखी होकर या विचलित होकर धर्म का त्याग न करना, ( क्षमा ) धर्म पालन के लिए निन्दा-स्तुति, मान-अपमान को सहन करना, ( दमः ) ईर्ष्या, लोभ, मोह, वैर आदि अधर्म रूप संकल्पों या विचारों से मन को वश में करके रखना,( अस्तेयम् ) चोरी, टकैती, झूठ, छल-कपट, भ्रष्टाचार, अन्याय, अधर्माचरण से किसी की वस्तु धन आदि न लेना, ( शौचम् ) तन और मन की पवित्रता रखना, ( इन्द्रियनिग्रहः ) इन्द्रियों को अपने अपने विषयों के अधर्म और आसक्ति से रोककर रखना, ( धीः ) बुद्धि की उन्नति करना, मननशील होकरबुद्धिवर्धक उपायों को करना बुद्धिनाशक नशा आदि न करना, ( विद्या ) सत्यविद्याओं की प्राप्ति में अधिकाधिक यत्न करके विद्या और ज्ञान की उन्नति करना, ( सत्यम् ) मन, वचन, कर्म से सत्य मानना, सत्य भाषण व सत्याचरण करना, आत्मविरुद्ध मिथ्याचरण न करना, ( अक्रोधः ) क्रोध के व्यवहार और बदले की भावना का त्याग कर शान्ति आदि गुणों को ग्रहण करना, ( दशकं धर्मलक्षणम् ) ये दश धर्म के लक्षण हैं । इन गुणों से धर्म पालन की पहचान होती है।

       महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज इनमें अहिंसा [ अहिंसा - सर्वथा सर्वदा सभी प्राणियों के साथ वैरभाव को छोड़कर प्रीति से वर्तना, अहिंसा है।  ] को जोड़कर धर्म के ग्यारह लक्षण बताते हैं। 

       उपरोक्त ग्यारह लक्षण शुभ कर्म हैं, धर्म हैं, पुण्य कर्म हैं इनको धारण करने से, आचरण करने से ही सभी का हित होगा। 

       इन शुभ कर्मों को योग दर्शन में यम और नियम कहा है। 

यम - अहिंसासत्यास्तरयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये यम हैं।

नियम - शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमां

शौच, सन्तोष, तपः, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान ये नियम हैं।

इन शुभ कर्मों को ही तीर्थ ( तरने का साधन ) और मानव मूल्य कहते हैं। इन गुणों को धारण करके व्यक्ति मूल्यवान होता है।

       प्राचीन वैदिक काल में इन शुभ गुणों को सभी धारण करते थे इसीलिए कहीं पर भी चोरी, डकैती, व्यभिचार, अत्याचार, भ्रष्टाचार नहीं होता था। विश्वभर में आर्यावर्त को देवभूमि कहते थे। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज ने इन शुभ कर्मों का केवल उपदेश ही नहीं किया बल्कि स्वयं जीवन में भी धारण करके दिखा दिया । उनके जीवन से प्रेरणा लेकर अनेकों अनुयायियों ने भी इन गुणों को धारण करके जीवन पवित्र बनाकर समाज का उपकार किया है। आइये इन गुणों को हम भी अपने जीवन में धारण करें। इससे ही विश्व का कल्याण होगा। 

क्रमशः ...

बुधवार, 4 मार्च 2020

आध्यात्मिक चर्चा - १३

आध्यात्मिक चर्चा - १३
                     आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

        पिछली चर्चाओं में हमने समझा कि कर्म ही जीवन आदि सभी भोगों का आधार है । इसीलिए अब हम कर्म पर विस्तार से चर्चा करेंगे ।
         महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज आर्योद्देश्यरत्नमाला में कर्म की परिभाषा लिखते हैं - "जो मन, इन्द्रिय और शरीर से जीव चेष्टा विशेष करता है सो कर्म कहाता है। वह शुभ , अशुभ और मिश्रित भेद से तीन प्रकार का होता है।" 
         महाराज मनु ने कर्म दर्शन को एक ही श्लोक में समायोजित किया है -

शुभाशुभफलं कर्म मनोवाग्देहसंभवम्। 
कर्मजा गतयो नॄणामुत्तमाधममध्यमाः।। 

( मनः वाक्-देह संभवम् कर्म ) मन, वचन और शरीर से किये जाने वाले कर्म ( शुभ-अशुभ-फलम् ) शुभ-अशुभ फल को देने वाले होते हैं ( कर्मजा-नॄणाम् ) और उन कर्मों के अनुसार मनुष्यों की ( उत्तम-अधम-मध्यमाः गतयः ) उत्तम, मध्यम और अधम ये तीन गतियां=जन्मवस्थायें होती हैं। 
      उपरोक्त प्रमाणों से हमने समझा कि -
० जीव ( आत्मा ) कर्म करता है। 
० जीव के कर्म करने साधन है - मन, वाणी और शरीर। 
० कर्म तीन प्रकार के होते है - शुभ, अशुभ और मिश्रित। 
० कर्मों के आधार पर ही सभी जीवों को तीन प्रकार की गतियाँ प्राप्त होती हैं - उत्तम, मध्यम और अधम। 
        जीव ( आत्मा ) कर्म कैसे करता है ? यह जानने के लिए कठोपनिषद् में उल्लेख किया है -

आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।

इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी, समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, रथ हांकने वाला, और मन को लगाम समझो ।

इंद्रियाणि ह्यानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।।

मनीषियों, विवेकी पुरुषों, ने इंद्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इंद्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं, इन्द्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने भोग करने वाला बताया है ।
       अर्थात् आत्मा जब कुछ कर्म करती है तो बुद्धि द्वारा मन को प्रेरित करती है और मन इन्द्रियों से काम लेता है। मन ज्ञानेन्द्रियों से जुड़ता है तो विषयों को बुद्धि तक पहुँचाने का काम करता है और जब कर्मेन्द्रियों से जुड़ता है तो कर्म कराता है।
      वर्णोच्चारण शिक्षा में एक प्रसंग है। जिसमें आत्मा बोलने के लिए मन और इन्द्रियों से कैसे काम लेता है ऐसा वर्णन है। 

आत्मा बुद्ध् या समेत्यर्थान् मनो युङ्क्ते विवक्षया।
मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम्।
मारुतस्तूरसि चरन्मन्दं जनयति स्वरम्।।

जीवात्मा बुद्धि से अर्थों की संगति करके कहने की इच्छा से मन को युक्त करता, विद्युतरूप जाठराग्नि को ताड़ता, वह वायु को प्रेरणा करता, और वायु उरःस्थान में विचरता हुआ मन्द स्वर को उत्पन्न करता है।
         अर्थात् आत्मा जब कुछ कहना चाहती है तो बुद्धि पूर्वक मन को नियुक्त करती है और मन अग्नि को प्रेरित करता है और अग्नि वायु को प्रेरित करता है और वायु कण्ठ आदि स्थानों से निकलता हुआ स्वर उत्पन्न करता है। यहां एक बात और ध्यान देने योग्य है जब वायु मुख से विचरण करता है तो मन उस समय मुख के उच्चारण स्थानों को भी व्यवस्थित करता है अर्थात् कण्ठ, तालु, मूर्धा, दन्त, ओष्ठ और नासिका स्थानों से वायु विचरण करता है। जब हम 'क' उच्चारण करते हैं तो कण्ठ से और 'प' उच्चारण करते हैं तो ओष्ठ से ही उच्चारण होता है। इस विषय को और अच्छे से समझना चाहते हैं तो हारमोनियम के प्रयोग से समझ सकते हैं। जैसे हारमोनियम से स्वर निकलते हैं वैसे ही हमारे मुख में से स्वर निकलते हैं । हारमोनियम में एक हाथ से वायु भरी जाती हैं और दूसरे हाथ की अंगुलियों से स्वर निकाले जाते हैं । यह सब भी बुद्धि और मन से युक्त होकर ही सम्भव है। 

यहां हमने समझा कि आत्मा बुद्धि से युक्त होकर मन, वाणी और शरीर से कर्म करता है। आगे हम समझेंगे आत्मा इन मन आदि साधनों से कितने प्रकार के कर्म करता है।
क्रमशः ...


रोग प्रतिरोधक क्षमता वर्धक काढ़ा ( चूर्ण )

रोग_प्रतिरोधक_क्षमता_वर्धक_काढ़ा ( चूर्ण ) ( भारत सरकार / आयुष मन्त्रालय द्वारा निर्दिष्ट ) घटक - गिलोय, मुलहटी, तुलसी, दालचीनी, हल्दी, सौंठ...