आध्यात्मिक चर्चा - ८
आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री
जीवन को समझने के लिए यजुर्वेद में बड़ा सुन्दर उपदेश है -
अश्वत्थे वो निषदनं पर्णे वो वसतिष्कृता।
गोभाज इत्किलासथ यत्सनवथ पूरुचम्।।
हे जीवो! जिस जगदीश्वर ने (अश्वत्थे) कल ठहरेगा वा नहीं ऐसे अनित्य संसार में (वः) तुम लोगों की (निषदनम्) स्थिति की (पर्णे) पत्ते के तुल्य चञ्चल जीवन में (वः) तुम्हारा (वसतिः) निवास (कृता) किया (यत्) जिस (पुरुषम्) सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा को (किल) ही (सनवथ) सेवन करो उसके साथ (गोभाजः) पृथिवी वाणी इन्द्रियाँ वा किरणों का सेवन करने वाले (इत्) ही तुम लोग प्रयत्न के साथ धर्म में स्थिर (असथ) होओ।
अर्थात् मनुष्यों को चाहिए कि अनित्य संसार में शरीरों और पदार्थों को प्राप्त हो के क्षणभंगुर जीवन में धर्माचरण के साथ नित्य परमात्मा की उपासना कर आत्मा और परमात्मा के संयोग से उत्पन्न हुए नित्य सुख को प्राप्त हों।
इस मन्त्र का एक सन्देश यह है कि जिस संसार में हम बैठे हैं उसका पता यह नहीं है कि यह कल तक रहेगा या नहीं। कहीं भी भूकम्प, बाढ़, तूफान आता है जिससे पहले लोग यह सोचते है अभी तो बहुत समय तक रहेंगे लेकिन थोड़ी ही देर में कितने ही प्राणी काल के कराल गाल में समा जाते हैं।
भूकम्प आदि ही नही बल्कि सामान्य जीवन जीते हुए भी पता नही कब सोते सोते , चलते चलते या बैठे बैठे ही जीवन समाप्त हो जाये।
इस मन्त्र का दूसरा सन्देश है कि पत्ते के समान चञ्चल जीवन में तुम रह रहे हो। पत्ते पर पड़ी ओस आदि की बूंद का क्या पता कब लुढक पड़े । ओस की बात छोड़िये पत्ते का भी तो ठिकाना नहीं है कि वह कब तरु से टूट जाये। सामान्यतया पत्ते की तीन दशायें होती हैं - निकलते समय वह जब कोपल कहलाता है तब अरुणिमा लिए होता है फिर यह कोपल कुछ बड़ी होती है कुछ सख्त होती है और इस पर हरियाली आती है कुछ समय हरियाली के बाद पीलापन आने लगता है और पूरा पीला होने के बाद सदैव के लिए डाल से बिछुड़ जाता है । ठीक ऐसे ही मनुष्य का भी जीवन होता है, कोपलों की तरह मासूम बचपन होता है तथा हरी सख्त पत्तियों की तरह युवावस्था आती है और पीली पत्तियों की तरह वृद्धावस्था आती है और पतझड़ की तरह मृत्यु होती है।
यहां एक बात और ध्यान देने योग्य है कि केवल वृद्धावस्था में ही मृत्यु होगी ऐसा नही है अरे जब हवा अधिक तेज होती है तो वह कोपलों और सख्त पत्तियों को भी डाल पर नहीं रहने देती इसी प्रकार मृत्यु भी कभी भी हो सकती है। इसीलिए वेद ने उपदेश दिया है कि वक्त रहते परमेश्वर का ध्यान करना चहिए।
महाभारत में पितामह भीष्म ने अपने जीवन की सन्ध्या वेला में महाराज युधिष्ठिर को उपदेश दिया -
को हि जानाति कस्याद्य मृत्युः कालो भविष्यति।
युवैव धर्मशीलः स्यादनित्यं खलु जीवितम्।।
अर्थात् हे युधिष्ठिर! किसी को कुछ नहीं पता कि कब किसका कहां मृत्यु समय आ पहुंचेगा। अतः इस सत्य को समझ कर युवावस्था में ही धर्माचरण करो, इस जीवन का कोई भरोसा नहीं ।
इस विषय में नीतिकार ने कहा -
यावत्स्वस्थो ह्ययं देहो यावन्मृत्युश्च दूरतः।
तावदात्महितं कुर्यात् प्राणान्ते किं करिष्यति।।
अर्थात् जब तक यह शरीर स्वस्थ बना हुआ है, जब तक बुढ़ापा नहीं आया है तभी तक आत्म-श्रेयस् का कुछ कार्य कर डालो, प्राणान्त होने पर क्या कर सकोगे?
अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः |
नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसंग्रहः ||
अर्थात् मनुष्य का शरीर नश्वर है, और धन वैभव भी शाश्वत नहीं होता है । मृत्यु सदैव हमारे साथ रहती है (मृत्यु कभी भी हो सकती है) । अतः हमारा यह कर्तव्य है कि धर्म द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का पालन कर पुण्य प्राप्त करें ।
एक कवि कहता है -
क्षण भंगुर जीवन की कलिका कल प्रात को जाने खिली न खिली।
मलयाचल सेवित शीतल मन्द सुगन्ध समीर मिली न मिली ।।
कर काल कुठार लिए फिरता तन नम्र पे चोट झिली न झिली ।
जपले प्रभु नाम अरी रसना फिर अन्त समय में हिली ना हिली ।।
क्रमशः ...