बुधवार, 20 नवंबर 2019

आध्यात्मिक चर्चा - १

आध्यात्मिक चर्चा - १
आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री
(वैदिक प्रवक्ता )

[ यह चर्चा क्रमशः वाट्साप पर मित्रों को, वाट्साप के अनेक समूहों में और फेसबुक पर साझा की जारही है यदि आप पुनः स्वयं पढ़ना चाहें या मित्रों को पढ़ाना चाहें तो ब्लॉग http://shankaragra.blogspot.com पर सुरक्षित है इस ब्लॉग पर पढ़- पढ़ा सकते हैं। तथा इसकी कुछ चर्चा आपको जीवन की यथार्थता नाम से यूट्यूब https://youtu.be/1-7D_0YulZs  पर भी सुन सकते है ]

        मैं कौन हूँ ?  कहां से आया हूँ ? कहां जाऊंगा ? जन्म क्या है ? मृत्यु क्या है ? जीवन क्या है ? जीवन और जीवन की सफलता का आधार क्या है ? इन प्रश्नों का उत्तर जीवन रहते यदि नहीं मिला या उत्तर पाने का प्रयास नहीं किया तो समझो यह जीवन बेकार चला जाएगा।
         इस चर्चा में हम इस प्रकार के प्रश्नों पर ही विचार विमर्श करेंगे - आशा है आप इसे क्रमशः ध्यान पूर्वक पढ़ेंगे और मित्रों को भी साझा करेंगे। आप अपनी टिप्पणी भी कर सकते हैं।

          आध्यात्मिक सिद्धान्तों को बहुत ही सुन्दर तरीके से समझाने में सफल कठोपनिषद् से चर्चा आरम्भ करते हैं - कठोपनिषद में नचिकेता नामक एक ब्रह्मचारी यमाचार्य से प्रश्न करता है कि आत्मा की शरीर के मरने बाद क्या गति होती है ? कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि शरीर के मरने के बाद आत्मा भी मर जाती है ( आत्मा का अस्तित्व नही है ) । और कुछ लोग कहते हैं नही मरती है ( आत्मा नित्य है ) । हे आचार्य ! मैं यह जानना चाहता हूँ ?

येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।
एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाऽहं वराणामेष वरस्तृतीय: ॥
          नचिकेता कहता है –हे यमराज, मृतक व्यक्ति के सम्बन्ध में कोई कहता है कि मृत्यु के उपरान्त उसके आत्मा का अस्तित्व रहता है और कोई कहता है कि नहीं रहता, कृपया मुझे इसे समझा दें। यह नचिकेता का अभीष्ट और श्रेष्ठ वर है।
       एक कुमार से ऐसे गूढ प्रश्न की आशा नहीं की जा सकती। अतएव यमदेव ने नचिकेता के सच्चा अधिकारी अथवा सुपात्र होने की परीक्षा ली। यमदेव ने देर तक उसे टालने का प्रयत्न किया, किन्तु यह संभव न हो सका। इससे संवाद में रोचकता आ गयी है।

देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा न हि सुविज्ञेयमणुरेषधर्म:।
अन्यं वरं नचिकेतो वृणीष्व मा मोपरोत्सीरति मा सृजैनम् ॥
      अध्यात्मविद्या दुर्विज्ञेय है। अग्निविद्या आदि कर्मकाण्ड के विषयों को समझना सरल है, किन्तु ब्रह्मविद्या का उपदेश करना और ग्रहण करना अत्यन्त कठिन है। यमदेव ने नचिकेता से कहा - यह विषय तो अत्यन्त गूढ है तथा सुगम नहीं है। अत: तुम कोइ अन्य वर मांग लो और इस वर को मुझे ही छोड़ दो।
          वास्तव में यमदेव केवल नचिकेता के औत्सुक्य को उद्दीप्त कर रहे हैं और उसकी पात्रता की परीक्षा ले रहे हैं, बल्कि उसके मन में ब्रह्मज्ञान की महिमा को प्रतिष्ठित भी कर रहे हैं।

देवैरत्रापि विचिकित्सितं किल त्वञ्च मृत्यो यन्न सुविज्ञेयमात्थ।
वक्ता चास्य त्वादृगन्यो न लभ्यो नान्यो वरस्तुल्य एतस्य कश्चित् ॥
      नचिकेता अपनी गहन उत्सुकता तथा निश्चय की दृढ़ता का परिचय देता है तथा यम द्वारा आगृह न करने के परामर्श को स्वीकार नहीं करता। वह कहता है - हे यमराज, आपका कथन ठीक है कि विद्वान भी आत्मतत्त्व के विषय में संशयग्रस्त हैं और निर्णय नहीं ले पाते, किन्तु आप मृत्यु के देवता हैं और आपके समान कोई अन्य उपदेष्टा यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि मृत्यु के उपरान्त् आत्मा का अस्तित्व रहता है अथवा नहीं। मेरे प्रश्न द्वारा याचित वरदान के तुल्य महत्त्वपूर्ण अन्य कुछ भी नहीं हो सकता। यह एक विचित्र संयोग है कि आपके सदृश इस विषय का कोई अन्य ज्ञाता नहीं है और अध्यात्मविद्या के वर के समान अन्य कोई वर भी नहीं हो सकता।

शतायुष: पुत्रपौत्रान् वृणीष्व बहून् पशून् हस्तिहिरण्यमश्वान्।
भूमेर्महदायतनं वृणीष्व स्वयं च जीव शरदो यावदिच्छसि ॥

        यमराज ने नचिकेता को एक कुमार के मन की अवस्था के अनुरुप धन-धान्य मांग लेने के लिए कहा। यमराज ने उसे दीर्घायुवाले बेटे-पोते, बहुत से गौ आदि पशु, गज, अश्व, भूमि के विशाल क्षेत्र, स्वयंकी भी यथेच्छा आयु प्राप्त करने का प्रलोभन दिया और समझाया कि वह आत्मविद्या को सीखने के लिए उसे विवश न करे।

एतत्तुल्यं यदि मन्यसे वरं वृणीष्व वित्तं चिरजीविकां च।
महाभूभौ नचिकेतस्त्वमेधिकामानान्त्वा कामभाजं करोमि॥
        यमराज नचिकेता के मन को प्रलुब्ध करने के लिए अनेक कामोपभोगों की गणना करते हैं-अपार धन, जीवनयापन के साधन, विशाल भूमि पर शासन, अनन्त कामनाओं का भोगी। यमराज नचिकेता से कहते हैं कि वह आत्मज्ञान के समान किसी भी अन्य वर को मांग ले, जिसे वह उपयुक्त समझता हो। वास्तव में यमाचार्य नचिकेता के मन में आत्मज्ञान के प्रति उसकी उत्सुकता बढा रहे हैं और उसकी पात्रता को परख भी रहे हैं।

ये ये कामा दुर्लभा मर्त्यलोके सर्वान् कामांश्छन्दत: प्रार्थयस्व।
इमा रामा: सरथा: सतूर्या नहीदृशा लम्भनीया मनुष्यै:।
आभिर्मत्प्रत्ताभि: परिचारयस्व नचिकेतो ! मरणं मानुप्राक्षीः ॥
         यमाचार्य अनेक प्रकार से नचिकेता के अधिकारी (सुपात्र) होने की परीक्षा ले रहे हैं तथा मानवकल्पित सम्पूर्ण भोगों का प्रलोभन दिखा देते हैं। वे नचिकेता से कहते हैं कि वह स्वर्ग की अप्सराओं को, स्वर्गीय रथों और वाद्यों के सहित ले जाए जो मृत्यु लोक के मनुष्यों के लिए अलभ्य हैं तथा उनसे सेवा कराए, किन्तु आत्म ज्ञान विषयक प्रश्न न पूछे। किन्तु नचिकेता वैराग्य सम्पन्न और दृढनिश्चयी था। आत्मतत्त्व के सच्चे जिज्ञासु के लिए वैराग्यभाव तथा दृढनिश्चय होना आवश्यक होता है, अन्यथा वह अपनी साधना में अडिग नहीं रह सकता।

श्वोभावा मर्त्यस्य यदन्तकैतत् सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेज:।
अपि सर्वं जीवितमल्पमेव तवैव वाहास्तव नृत्यगीते ॥
          नचिकेता ने आत्मज्ञान की अपेक्षा सांसारिक सुख भोगों को तुच्छ घोषित कर दिया (नाशवान = आज हैं तो कल नहीं रहेंगे), भौतिक सुखभोग इन्द्रियों की शक्ति को क्षीण कर देते हैं तथा उनसे शान्ति नहीं होती। इसके अतिरिक्त मनुष्य का जीवन अल्प और अनिश्चित है। अतएव जिस विवेकशील पुरुष के लिए सत्य साध्य है एवं प्राप्य है, उसके लिए ये भौतिक सुखभोग त्याज्य हैं। नचिकेता यमदेव से कह देता है कि उसे ये नश्वर भोग-पदार्थ प्रलुब्ध नहीं करते तथा इन्हें वह अपने पास ही रखें।

न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो लप्स्यामहे वित्तमद्राक्ष्म चेत्त्वा।
जीविष्यामो यावदीशिष्यसि त्वं वरस्तु मे वरणीय: स एव॥
        नचिकेता ने एक परम सत्य का कथन किया है कि धन से मनुष्य की आत्यन्तिक तृप्ति नही हो सकती। उसने यमदेव को सम्मान देते हुए कहा - जब कि हमने आपके दर्शन प्राप्त कर लिए हैं, आपकी कृपा से धन तो हम पा ही लेंगे तथा आप जब तक शासन करते रहेंगे, हम भी तब तक जीवित रह सकेंगे। अत: धन और दीर्घायु की याचना करना व्यर्थ है।

कठोपनिषद् का पहला उपदेश नचिकेता के मुख से निस्सृत हुआ है।"न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्य:" को कण्ठस्थ करके इसके सारतत्त्व को ग्रहण कर लेना चहिए। मनुष्य की आत्यन्तिक तृप्ति कभी धन-सम्पत्ति से नहीं हो सकती। मनुष्य धन से सुख-सुविधा के साधनों को प्राप्त कर सकता है, किन्तु हमेशा सुख को प्राप्त नहीं कर सकता। मनुष्य के जीवन में धन बहुत कुछ है, किन्तु सब कुछ नही है।

इच्छाओं की तप्ति भोग से नहीं होती, जैसे कि अग्नि की शान्ति घृत डालने से नहीं होती, बल्कि वह अधिक उद्दीप्त हो जाती है।
उपरोक्त प्रसंग के चिन्तन से एक बात स्पष्ट होती है कि आत्मज्ञान सर्वोत्तम है । नचिकेता के सम्मुख आत्मज्ञान के बदले में संसार का वैभव दिया जाता है लेकिन वह धीर पुरुष आत्मज्ञान को ही अपना लक्ष रखता है । और यही बात आज संसार के लोगों के सम्मुख रखी जाय तो आत्मज्ञान को चुनने वाले विरले ही मिलेंगे, संसार का वैभव पाने वाले ही अधिकतर होंगे। और इनमें भी सही रास्ते से धन कमाने वाले  अब कम हो गये हैं , किसी भी तरह धन आये आज तो ऐसे लोगों की संख्या अधिक है।
     आगे चर्चा बहुत बड़ी है क्रमशः आप पढेंगे कि वर्तमान समाज कैसा है और इसके दूरगामी परिमाण क्या होगें ?
आत्मा कैसा है? इसकी गति क्या होगी?
शरीर का विश्लेषण? कर्म का आधार? कर्म के साधन? कर्म के प्रकार?
पाप पुण्य क्या है? इनका फल क्या है? क्या पाप के फल को किसी भी साधन या अनुष्ठान से बदला जा सकता है? इत्यादि।
क्रमशः ...

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