रविवार, 24 नवंबर 2019

आध्यात्मिक चर्चा - २

आध्यात्मिक चर्चा - २
आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

पिछली चर्चा में हमने देखा कि आचार्य यम के द्वारा नचिकेता को आत्मज्ञान के बदले में संसार का वैभव मांगने को कहा तो नचिकेता संसार का वैभव यह कहकर ठुकरा देता है कि -
० संसार का वैभव स्थिर नहीं है, आज है कल नहीं।
० भोग से रोग होते हैं शक्ति क्षीण होती है।
० आयु कितनी भी मांग लू एक दिन वह भी समाप्त हो जायेगी।
० धन से मनुष्य कभी सन्तुष्ट नहीं होता, पहले थोड़े की कामना करता है उसके मिलने पर कामना बढ़ती जाती है।
० हे आचार्य ! आपसे अच्छा मुझे समझाने वाला कोई नही मिलेगा इसीलिए आत्मज्ञान के अतिरिक्त मैं कोई और भिन्न प्रश्न नही मांगता । कृपया मेरा कल्याण कीजिए।

     उपरोक्त कथन पर  महाराज मनु ने भी कहा -
न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्ध्दते ॥ 
यह निश्चय है कि जैसे अग्नि में इन्धन और घी डालने से बढ़ता जाता है वैसे ही कामों के उपभोग से काम शान्त कभी नहीं होता किन्तु बढ़ता ही जाता है। इसलिये मनुष्य को विषयासक्त कभी न होना चाहिये।
राजा भर्तृहरि वैराग्य शतक में इस ऐसा ही कहते है - 
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।।
कालो न यातो वयमेव याताः तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।। 
    भोगों को हमने नहीं भोगा, बल्कि भोगों ने ही हमें ही भोग लिया । तपस्या हमने नहीं की, बल्कि हम खुद तप गए । काल (समय) कहीं नहीं गया बल्कि हम स्वयं चले गए । इस सभी के बाद भी मेरी कुछ पाने की तृष्णा नहीं गयी ( भोगों की इच्छा कमजोर नही हुई ) बल्कि हम स्वयं जीर्ण हो गए ।। 
       कहावतें हैं -
 ०  कि मनुष्य एक साथ ही भगवान् तथा धन को प्रेम नहीं कर सकता "Ye cannot serve God and a mammon."
   ०  ऊँट के लिए सुई में से गुजरना धनिक द्वारा परमात्मा के राज्य में प्रवेश करने की अपेक्षा सरल है।" For it is easier for a camel to go through a needle’s eye than for a richman to enter into the kingdom of God." 
  ० आद्यात्मिक साधक के मार्ग में धन की तृष्णा एवं धन का अभिमान बाधक हैं। उसे सादगी और संतोष से जीवन-यापन करना चाहिए।
  ० धन की लिप्सा मनुष्य को पाप में प्रवृत्त कर देती है।
  ० धन का प्रभाव धन के अभाव से अधिक दुःखदायक होता है।
  ० धन का लोभ मनुष्य को भटकाकर अशान्त बना देता है तथा धन की प्रचुरता मनुष्य को मदान्ध बना देती है। 
कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय,
या खाए बौराए जग, वा पाए बौराए।
    यहाँ एक कनक से तात्पर्य भांग से है तथा दूसरे कनक का अर्थ स्वर्ण है 
तात्पर्य है कि स्वर्ण अथवा धन के लोभ का मद ( नशा ) भांग के मद से भी सौ गुना अधिक बावरा बना देता है। भांग को खाने से नशा चढ़ता है जबकि स्वर्ण अर्थात् सोने को प्राप्त करने से लालच का नशा मानव को पागल कर देता है ।। 
   धन की प्रचुरता प्रायः मनुष्य को विलासिता, दुर्व्यसन, अपराध, हिंसा और अशान्ति की ओर ले जाती है।

    वास्तव में धन में दोष नहीं है, धन की लिप्सा एवं आसक्ति में दोष होता है। मनुष्य धन के सदुपयोग से दीन दुःखी जन की सेवा आदि लोक-कल्याण के कार्य कर सकता है। अतः हमें त्यागपूर्वक भोग करना चाहिए।  
यजुर्वेद में लिखा है -
ईशा वास्यमिदँ सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम् ॥
   अर्थात्  हे मनुष्य ! तू जो प्रकृति से लेकर पृथ्वी पर्यन्त सब जड़ चेतन जगत है वह ईश्वर ( सकल ऐश्वर्य से सम्पन्न, सर्वशक्तिमान परमात्मा) के द्वारा आच्छादित अर्थात् सब ओर से अभिव्यप्त किया हुआ है। इसीलिए त्याग पूर्वक उपभोग कर। और यह धन किसका है अर्थात् किसी का नही यह तो उपभोग के लिए परमेश्वर से प्राप्त होता है; अतः किसी के भी धन वा वस्तुमात्र की अभिलाषा मत कर अपितु पुरुषार्थ कर।
उपरोक्त विषय पर महात्मा चाणक्य का कथन है -


सन्तोषस्त्रिषु  कर्तव्यः  स्वदारे   भोजने  धने  |
त्रिषु  चैव  न  कर्तव्योऽध्ययने  जपदानयोः    || 
     मानव का यह  कर्तव्य है कि इन तीन स्थितियों में वह सदैव संतुष्ट रहे  - (१) अपनी पत्नी के साहचर्य से (२) पवित्र कर्म से प्राप्त भोजन से, तथा (३) पुरुषार्थ से प्राप्त धन से | परन्तु इन तीन स्थितियों में कभी भी संतुष्ट नहीं होना चाहिये - (१) विद्याध्ययन (२ ) मन्त्र जाप से  ईश्वर की आराधाना  तथा  (३)  समाज के कल्याण हेतु दान करना |

     परिश्रम और सच्चाई से धन अर्जित करना, जो भी प्राप्त हो जाय उसमें सन्तोष करना तथा उसका सदुपयोग करना विवेकसम्मत है। 
यह एक तथ्य है कि मनुष्य सब कुछ यहीं एकत्रित करता है और सब कुछ यहीं छोड़कर सहसा चला जाता हैं। यदि सब कुछ छूटना है तो हम उसे स्वयं ही छोड़ दें अर्थात् उसके ममत्व, स्वामित्व और आसक्ति के भाव को छोड़कर भारमुक्त हो जाएँ। सब धन परमात्मा का ही है। अतः 'इदं न मम' (यह मेरा नहीं है। ) की भावना को शिरोधार्य करके धन का उपभोग एवं सदुपयोग करना सब प्रकार से श्रेष्ठ है।


       निश्चय ही आत्मज्ञान की अपेक्षा धन अत्यन्त तुच्छ है। बृहदारण्यक उपनिषद् जब मैत्रेयी के सम्मुख याज्ञवल्क्य ऋषि ने भौतिक सुख-सामग्री देने का प्रस्ताव रखा तो मैत्रेयी ने पूछा -
यन्नु म इयं भगोः सर्वा पृथिवी वित्तेन पूर्णा स्यात् कथं तेनाहं अमृता स्यामिति।
अगर सारी पृथिवी धन-धान्य से भरपूर होकर मुझे प्राप्त हो जाय तो क्या मुझे अमरत्व की प्राप्ति हो  जाएगी ?

याज्ञवल्क्य ऋषि ने उत्तर दिया - यथैवोपकरणावतां जीवितं तथैव ते जीवितं स्यात् अमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेन।
     जैसे साधन-सम्पन्न व्यक्तियों का जीवन होता है, वैसा तेरा जीवन हो जायेगा, परन्तु अमर-आनन्द तुझे प्राप्त नहीं होगा।
   यह सुनकर मैत्रेयी ने जो उत्तर दिया, वह आज के भौतिकवादी युग को चुनौती है। उसने कहा,

येनाहं नामृता स्याम् किमहं तेन कुर्याम्।
     जिस मार्ग पर चलने से मुझे अमरत्व की प्राप्ति न होगी, उस पर चल कर मैं क्या करूँगी ?"
       इसलिए आज इस बात की अत्यधिक आवश्यकता होने लगी है कि अध्यात्म के मार्ग पर अनुसरण किया जाये और जीवन सुन्दर और सुखमय बनाया जाए। जीवन का उद्देश्य तो अमृतस्वरूप आत्मा को जानकर अमृतत्व प्राप्त करना है। उपनिषदों में अनेक स्थलों पर अमृतत्व की चर्चा है। जीवनकाल में आत्मतत्त्व को जानकर अमृतत्व प्राप्त करना ही उत्तम धन है। यही मानव की सर्वोच्च उपलब्धि भी है।

अभी तक कुछ विद्वानों के माध्यम से यह समझने का प्रयास किया कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है। हमें कौन सा पथ चयन करना हैं। आगे हम समझेंगे कि वैदिक काल के लोग किस पथ का अनुसरण करते थे और आज के व्यक्ति ने कौन सा पथ चयन किया है।

क्रमशः ...


रोग प्रतिरोधक क्षमता वर्धक काढ़ा ( चूर्ण )

रोग_प्रतिरोधक_क्षमता_वर्धक_काढ़ा ( चूर्ण ) ( भारत सरकार / आयुष मन्त्रालय द्वारा निर्दिष्ट ) घटक - गिलोय, मुलहटी, तुलसी, दालचीनी, हल्दी, सौंठ...