रविवार, 17 मार्च 2019

सैद्धान्तिक चर्चा -१३. परमेश्वर की मूर्ति नहीं बन सकती

सैद्धान्तिक चर्चा -१३.               हरिशंकर अग्निहोत्री

मूर्ति पूजा पर बहुत घमासान होता रहता है आज हम इस विषय पर चर्चा करेंगे।

० परमेश्वर की कोई मूर्ति नही हो सकती क्योंकि वेद में उल्लेख है -
"न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यशः । हिरण्यगर्भ इत्येष मा मा हिं सीदित्येषा यस्मान्न जात इत्येषः ॥" ( यजुर्वेद ३२।३)
– हे मनुष्यो ! ( यस्य ) जिसका ( महत ) पूज्य बडा ( यशः ) कीर्ति करनेहारा धर्मयुक्त कर्म का आचरण ही ( नाम ) नामस्मरण है , जो ( हिरण्यगर्भः ) सूर्य बिजुली आदि पदार्थो का आधार ( इति ) इस प्रकार ( एषः ) अन्तर्यामी होने से प्रत्यक्ष जिसकी ( मा ) मुझको ( मा, हिंसत ) मत ताड्ना दे वा वह अपने से मुझ को विमुख मत करे, ( इति ) इस प्रकार ( एषा ) यह प्रार्थना वा बुद्धि और ( यस्मात ) जिस कारण ( न ) नही ( जातः ) उत्पन्न हुआ ( इति ) इस प्रकार ( एषः ) यह परमात्मा उपासना के योग्य है । ( तस्य ) उस परमेश्वर की ( प्रतिमा ) प्रतिमा – परिमाण उसके तुल्य अवधि का साधन का साधन प्रतिकृति , मूर्ति वा आकृति ( न , अस्ति ) नही है ।
     --- हे मनुष्यो ! जो कभी देहधारी नहीं होता , जिसका कुछ भी परिमाण सीमा का कारण ( ‘कारण’ अर्थात जिसके होने से कार्य होता है ) नही है , जिसकी आज्ञा का पालन ही उसका नामस्मरण करना है, जो उपासना किया हुआ अर्थात जिसकी सब उपासना करते है, अपने उपासकों पर अनुग्रह ( कृपा ) करता है. वेदों के अनेक स्थलों में जिसका महत्व कहा गया है, जो नहीं मरता , न विकृत होता है ,न नष्ट होता उसी की उपासना निरन्तर करो । जो इससे भिन्न की उपासना तो करोगे तो इस महान पाप से युक्त हुए आप लोग दुःख – क्लेशों से नष्ट हो जाओगे ॥

० परमेश्वर सर्व व्यापक है-
ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्याञ्जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्य स्विद् धनम्॥
(यजुर्वेद ४०/१)
हे मनुष्य! जो कुछ इस संसार में जगत् है उस सब में व्याप्त होकर जो नियन्ता है वह ईश्वर कहाता है। उस से डर कर तू अन्याय से किसी के धन की आकांक्षा मत कर। उस अन्याय के त्याग और न्यायाचरणरूप धर्म से अपने आत्मा से आनन्द को भोग॥
० ईश्वर निराकार। क्योंकि जो साकार होता तो व्यापक नहीं हो सकता। जब व्यापक न होता तो सर्वज्ञादि गुण भी ईश्वर में न घट सकते। क्योंकि परिमित वस्तु में गुण, कर्म, स्वभाव भी परिमित रहते हैं तथा शीतोष्ण, क्षुधा, तृषा और रोग, दोष, छेदन, भेदन आदि से रहित नहीं हो सकता। इस से यही निश्चित है कि ईश्वर निराकार है। जो साकार हो तो उसके नाक, कान, आंख आदि अवयवों का बनानेहारा दूसरा होना चाहिये। क्योंकि जो संयोग से उत्पन्न होता है उस को संयुक्त करनेवाला निराकार चेतन अवश्य होना चाहिये। जो कोई यहां ऐसा कहै कि ईश्वर ने स्वेच्छा से आप ही आप अपना शरीर बना लिया तो भी वही सिद्ध हुआ कि शरीर बनने के पूर्व निराकार था। इसलिए परमात्मा कभी शरीर धारण नहीं करता किन्तु निराकार होने से सब जगत् को सूक्ष्म कारणों से स्थूलाकार बना देता है।

जब परमेश्वर का आकार नही हैं, परिमाण नही है तो मूर्ति किस आधार बन बनायी जायेगी अर्थात् संसार में जितनी भी मूर्तियाँ बनी है उनमें एक भी मूर्ति परमेश्वर की नहीं हैं।

अब विचार करते है कि मूर्तियाँ किसकी हैं? तो सैद्धान्तिक रूप से यह कहा जा सकता है कि कुछ मूर्तियाँ मनुष्यों में श्रेष्ठ महापुरुषों की हैं और कुछ मूर्तियाँ काल्पनिक बनायी गयी हैं क्योंकि दो से अधिक हाथ और एक से अघिक सिर या मनुष्य के धड़ पर अन्य किसी पशु आदि का सिर या पशु आदि के धड़ पर मनुष्य का सिर हो, ऐसा कभी कोई पैदा नही हुआ यह सब पुराणों की गलत मान्यतायें है, यह मान्यतायें अवैदिक हैं ।
और यह चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं‌ वेद विरुद्ध मान्यताओं को मानने पर हानियां ही हानियां है।
वेद ही केवल सत्य हैं, मान्य हैं और अन्य वेद विरुद्ध पुराण आदि अमान्य ग्रन्थ हैं, मिथ्या हैं।

[ मूर्ति पूजा से कितनी हानियां है तथा लाभ सा प्रतीत क्यों होता है इस विषय पर आगे चर्चा करेंगे। ]

प्रथम हम यह समझ लें कि परमेश्वर की कोई मूर्ति नही है। हमारे महापुरुषों की मूर्तियाँ बनायी गयी उनके चरित्र को बताने के लिए।
तीन हजार वर्ष से पहले भारतवर्ष में मूर्ति पूजा प्रचलित नही थी।
मन्दिरों में जितनी मूर्तियाँ हैं‌ उनमें से अधिकतर काल्पनिक हैं ।
जैसे शनि नामक ग्रह की मनुष्य जैसी मूर्ति बनाना कल्पना है क्योंकि शनि नामक ग्रह जड़ है वह हमारे व्यवहार को जानने की सामर्थ्य नही रखता, और वह किसी के ऊपर भी नही आता है यह अन्ध विश्वास है। इसीप्रकार लक्ष्मी आदि की मूर्ति बनाना। क्योंकि लक्ष्मी नामक किसी देवता का वर्णन वेद में नही है, वेद में लक्ष्मी शब्द आता है तो उसके परमेश्वर और सुलक्षणों वाली स्त्री तथा धन - सम्पदा- शोभा आदि अर्थ लिए जाते हैं।

= "लक्ष दर्शनाङ्कनयोः" इस धातु से ‘लक्ष्मी’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यो लक्षयति पश्यत्यङ्कते चिह्नयति चराचरं जगदथवा वेदैराप्तैर्योगिभिश्च यो लक्ष्यते स लक्ष्मीः सर्वप्रियेश्वरः’ जो सब चराचर जगत् को देखता, चिह्नित अर्थात् दृश्य बनाता, जैसे शरीर के नेत्र, नासिकादि और वृक्ष के पत्र, पुष्प, फल, मूल, पृथिवी, जल के कृष्ण, रक्त, श्वेत, मृत्तिका, पाषाण, चन्द्र, सूर्यादि चिह्न बनाता तथा सब को देखता, सब शोभाओं की शोभा और जो वेदादिशास्त्र वा धार्मिक विद्वान् योगियों का लक्ष्य अर्थात् देखने योग्य है, इससे उस परमेश्वर का नाम ‘लक्ष्मी’ है। ( उसकी कोई प्रतिमा नही है।)

श्रीश्चते लक्ष्मीश्च पत्न्या वहोरात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि रूपमश्विनौव्यात्तम् | इष्णन्निषाणामुं मइषाण सर्वलोकं म इषाण || ( यजुर्वेद ३१/२२)
हे जगदीश्वर ! जिस (ते) आप की (श्रीः) समग्र शोभा (च) और ( लक्ष्मीः) सब ऐश्वर्य (च) श्री (पत्न्यौ) दो स्त्रियों के तुल्य वर्तमान (अहोरात्रे) दिन रात (पार्श्वे) आगे पीछे जिस आपकी सृष्टि में (अश्विनौ) सूर्य चन्द्रमा (व्यात्तम्) फैले मुख के समान (नक्षत्राणि) नक्षत्र (रूपम्) रूप वाले हैं सो आप (मे) मेरे (अमुम्) परोक्ष सुख को (इष्णान्) चाहते हुए (इषाण) चाहना कीजिए (मे) मेरे लिए (सर्व लोकम्) सब के दर्शन को (इषाण) प्राप्त कीजिए मेरे लिए सब सुखों को (इषाण) पहुंचाइये।

क्रमशः ...

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