बुधवार, 29 जनवरी 2020

आध्यात्मिक चर्चा - १०

आध्यात्मिक चर्चा - १०
                आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

 हमारे जन्म, मृत्यु, जीवन और सुख-दुःख का आधार कर्म है । 

   समाज में प्रचलित विभिन्न विचार धाराओं का अध्ययन करने के बाद यह कहा जा सकता है कि आज का समाज वैचारिक प्रदूषण में बहुत गहराई तक फस गया है। इसीलिए जीवन की सफलता का आधार कर्म/पुरुषार्थ को न मानकर अन्य साधनों को मान रहा है। वैदिक सिद्धान्तों के अनुसार हमारे जन्म, मृत्यु, जीवन और सुख-दुःख का आधार /कारण कर्म है। लेकिन समाज में ऐसा भी प्रचार किया गया है कि हमारे जन्म, मृत्यु, जीवन और सुख:दुःख का आधार परमेश्वर, काल या तन्त्र-यन्त्र आदि हैं।

        कुछ लोग मानते हैं कि आत्मा तो परमेश्वर की कठपुतली है, परमेश्वर ही आत्मा से कर्म कराता है । इसीलिए सुख - दुःख आदि सब परमेश्वर के आधीन है। 
           उपरोक्त मान्यता पर महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज सत्यार्थ प्रकाश में वैदिक सिद्धान्त लिखते है कि आत्मा कर्म करने के लिए पूर्णतया स्वतन्त्र है फल भोगने के लिए नहीं । अर्थात् आत्मा परमात्मा की कठपुतली नहीं हैं, परमात्मा आत्मा से कर्म नहीं कराता है बल्कि आत्मा स्वतन्त्रता से कर्म करता है और उन्हीं कर्मों के फलस्वरूप सुख-दुःख आदि प्राप्त करता है।

       कुछ लोग मानते हैं कि सब कुछ समय के आधीन है, कलियुग चल रहा है इसीलिए बुरे कर्म बढ़ रहे हैं। 
इस मान्यता को समझने के लिए वैदिक सिद्धान्त समझना पड़ेगा, वैदिक सिद्धान्त के अनुसार समय कोई कर्म नहीं कराता है अर्थात् कर्म के लिए समय कारण नहीं है । समय के बारे में वेद में कहा है -
कालो अश्वो वहति सप्तरश्मि: 
सहस्राक्षो अजरो भूरिरेता: ।
तमारोहन्ति कवयो वियश्चितस्तस्य 
चक्रा भुवनानि विश्वा ।। (अथर्ववेद १९/५२/१)
(सप्तरश्मिः) सात प्रकार की किरणों वाले सूर्य के समान प्रकाशमान, (सहस्राक्षः) सहस्रों नेत्र वाला, (अजरः) बूढ़ा न होने वाला, (भूरिरेताः) बड़े बल वाला, (कालः) काल [समय रूपी] (अश्वः) घोड़ा ( वहति) चलता रहता है। (तम्) उस पर (कवयः) ज्ञानवान (विपश्चितः) बुद्धिमान लोग (आरोहन्ति) चढ़ते हैं, (तस्य) उस [काल] के (चक्रा) चक्र [चक्र अर्थात् घूमने के स्थान] (विश्वा) सब (भुवनानि) सत्ता वाले हैं।
      अर्थात् (काल) समय सब देखता है, कभी समाप्त नहीं होता, कभी बूढ़ा (कमजोर) नही होता, बलवान घोड़े की तरह दौड़ता रहता है। जैसे घोड़े को बुद्धिमान लोग आगे से पकड़कर सवारी करते हैं वैसे ही बुद्धिमान लोग समयानुसार कार्यों को करके जीवन सफल  बनाते हैं।
      काल गणना के लिए छोटी-बड़ी अनेक इकाइयां है उनमें से कलियुग भी समय मापने की बड़ी इकाई है। जो कि समय नापने में उपयोग की जाती हैं ।
भारतीय प्राचीन काल गणना -
२ परमाणु = १ अणु
३अणु = १ त्रिसरेणु
३ त्रिसरेणु =१ त्रुटि (३ त्रिसरेणु को पार करने मे सूर्य को लगा समय १त्रुटि)
१०० त्रुटि = १ वेध
३ वेध = १ लव
३ लव = १ निमेष
३ निमेष = १ क्षण
५ क्षण = १ काष्ठा
१५ काष्ठा = १ लघु
१५ लघु = १ दण्ड
२ दण्ड = १ मुहुर्त
३ मुहूर्त = १ प्रहर
४ प्रहर = १ दिन
१ दिन रात = १ अहोरात्र
१५ अहोरात्र = १ पक्ष
२ पक्ष = १ मास
१२ मास = १ वर्ष
४३२०००  वर्ष = १ कलियुग
८६४००० वर्ष = १ द्वापर युग
१२९६००० वर्ष = १ त्रेता युग
१७२८००० वर्ष = १ सतयुग
४३२०००० वर्ष = १ चतुर्युगी
७१ चतुर्युगी = १ मन्वन्तर
१४ मनवन्तर = १ कल्प = १ ब्रह्मदिन = सृष्टिकाल = ४३२००००००० वर्ष

वर्तमान में सृष्टि का सातवें वैवस्वत मनवन्तर का २८ वें कलियुग का ५१२० वां वर्ष चल रहा है, अर्थात् १९६०८५३१२० वां चल रहा है ।
इस गणना के आधार पर ४५४ वां कलियुग चल रहा है । युग भी वार और महिनों की तरह की बदलते रहते हैं। समय सुख/दुःख के लिए कारण नहीं होता है ।

      कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि सुख- दुःख आदि सब तन्त्र-यन्त्र, टोने-टोटके, झाड़-फूंक, डाकिनी-साकिनी, भूत-प्रेत, मूर्ति पूजा आदि से मिलता है। लेकिन ये लोग यह विचार कभी नहीं करते कि वे लोग सुखी क्यों हैं जो इन मान्यताओं पर विस्वास नहीं करते। 
उपरोक्त बात को समझने के लिए केवल एक तर्क (दलील) यहां देते हैं सम्भव है उससे कुछ स्पष्ट हो जाय। - एक ही कक्षा के दो विद्यार्थी लिए जायें और एक विद्यार्थी इनको दे दिया जाय जो तन्त्र-यन्त्र, टोने-टोटके, झाड़-फूंक, डाकिनी-साकिनी, भूत-प्रेत, मूर्ति पूजा पर पूरा विस्वास करते हैं और इनसे कहा जाय कि आप इस विद्यार्थी पर तन्त्र - यन्त्र और मूर्ति पूजा आदि वर्षभर कराइए लेकिन पढ़ाना नही है और वर्ष के बाद परीक्षा में उत्तीर्ण करके दिखाइए। और दूसरे विद्यार्थी को मूर्तिपूजा आदि से बिल्कुल दूर रखिये वर्षभर ठीक से पढ़ाइए और उसे परीक्षा में अनुत्तीर्ण करके दिखाइए। अब आप समझ गये होंगे कि सफलता आदि सुख का आधार पुरुषार्थ ही है तन्त्र आदि नहीं। 
देखिए कैसा अन्धविश्वास चल रहा है जिस देश में "श्रीयन्त्र" कुछ ही रुपयों में मिल रहा हो वहां धन के लिए पुरुषार्थ करने की क्या आवश्यकता है बस श्रीयन्त्र घर में रख दीजिए और धन आ ही जायेगा । ऐसे ही समाज में बहुत भ्रम नित्य प्रचारित किये जारहे है।
इस चर्चा में हमने समझने का प्रयास किया कि समाज में अनेक अवैदिक मान्यताओं का प्रचार हुआ है जिससे समाज भ्रमित हो गया है।
अगली चर्चा में हम समझेंगे कि हमारे जन्म, मृत्यु, जीवन और सुख-दुःख का आधार कर्म है । 
क्रमशः ...



शनिवार, 18 जनवरी 2020

आध्यात्मिक चर्चा - ९

आध्यात्मिक चर्चा - ९
आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

योगेश्वर श्री कृष्ण महाराज का उपदेश है -
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।

जन्मने वाले की मृत्यु निश्चित है और मरने वाले का जन्म निश्चित है इसलिए जो अटल है अपरिहार्य है उसके विषय में तुमको शोक नहीं करना चाहिये।।
    जन्म मृत्यु का होना अपरिहार्य है वैसे ही जैसे प्रातःकाल होता है फिर दोपहर होता है फिर साम होती है और फिर रात आती है और फिर प्रातःकाल होता है, इस क्रम को रोका नहीं जा सकता है, बदला नही जा सकता है। ठीक इसी प्रकार जन्म होता है फिर युवावस्था आती है फिर वृद्धावस्था आती है और फिर मृत्यु होती है और फिर जन्म होता है यह क्रम को भी रोका नहीं जा सकता, बदला नही जा सकता है। इसीलिए योगेश्वर श्री कृष्ण महाराज कहते हैं कि मृत्यु पर शोक मत करो।
     इस प्रसंग को हम इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि कोई व्यक्ति दिन में रात्रि आने को लेकर चिन्ता करे और कहे कि हाय हाय रे रात आयेगी तो उसका चिन्ता करना व्यर्थ ही है  क्योंकि रात तो आयेगी ही, इसीप्रकार कोई यह कहें कि हाय हाय रे कल का दिन होगा तो भी चिन्ता करना व्यर्थ ही है क्योंकि कल का दिन तो आयेगा ही। इस पर चिन्ता नही करनी चाहिए बल्कि इस पर चिन्तन करना चाहिए कि अभी रात आने में समय है और जो भी समय रात आने में है उसे सार्थक व्यतीत किया जाय। इसी प्रकार कल का दिन तो होगा यह चिन्ता का विषय नही है बल्कि अगला दिन अच्छा कैसे हो यह चिन्तन का विषय है।
ठीक इसीप्रकार मृत्यु शोक या चिन्ता का विषय नहीं है क्योंकि मृत्यु तो निश्चित है, होनी ही है, चिन्तन का विषय तो यह है कि मृत्यु तक हमारे पास जो भी समय है उसे सार्थक व्यतीत किया जाय। तथा अगला जन्म चिन्ता का विषय नही है क्योंकि वह तो होना ही है, हमें इस बात पर चिन्तन करना चाहिए कि अगला जन्म मनुष्य का श्रेष्ठता से युक्त मिलना चाहिए।
     "आज के मनुष्य का चिन्तन बदल गया है जिस विषय पर चिन्तन करना चाहिए उस पर तो चिन्तन नही करता है और जिस विषय पर चिन्तन नहीं करना चाहिए उस पर चिन्तन करता है।"

      ऋषि और महर्षियों ने  जन्म मृत्यु से मुक्ति प्राप्त करने के लिए चिन्तन किया, जीवन को सफल बनाने के लिए अध्ययन किया और मोक्ष के लिए साधना की। संसार का मार्गदर्शन भी किया। (इस पर विस्तार से आगे लिखेंगे)
   अभी तक हमने समझा कि - 
० आत्मा एक अविनाशी और अनादि सत्ता है। 
० शरीर पाँच तत्वों से मिलकर बनता है और अन्ततः उन्हीं पाँच तत्वों में विलीन हो जाता है।
० शरीर और आत्मा का संयोग जन्म है, शरीर और आत्मा का साथ-साथ चलना जीवन है तथा शरीर और आत्मा का वियोग ही मृत्यु है।
० जन्म और मृत्यु का होना अनिवार्य है अर्थात् आत्मा का शरीर में आना और शरीर को छोड़ना निश्चित है।
० यहां एक बात और जानना आवश्यक है कि इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में तीन अनादि सत्तायें हैं - परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति । इस प्रसंग को क्रमशः और विस्तार से पढ़ने लिए ब्लॉग ( shankaragra.blogspot.com ) पर सैद्धान्तिक चर्चा पढ़ें।

आगामी चर्चा में विस्तार से लिखा जायेगा कि जन्म , मृत्यु और जीवन का आधार क्या है? कारण क्या है?
क्रमशः ...

मंगलवार, 14 जनवरी 2020

आध्यात्मिक चर्चा - ८

आध्यात्मिक चर्चा - ८
                                                                                  आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

     जीवन को समझने के लिए यजुर्वेद में बड़ा सुन्दर उपदेश है -

अश्वत्थे वो निषदनं पर्णे वो वसतिष्कृता।
गोभाज इत्किलासथ यत्सनवथ पूरुचम्।।

       हे जीवो! जिस जगदीश्वर ने (अश्वत्थे) कल ठहरेगा वा नहीं ऐसे अनित्य संसार में (वः) तुम लोगों की (निषदनम्) स्थिति की (पर्णे) पत्ते के तुल्य चञ्चल जीवन में (वः) तुम्हारा (वसतिः) निवास (कृता) किया (यत्) जिस (पुरुषम्) सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा को (किल) ही (सनवथ) सेवन करो उसके साथ (गोभाजः) पृथिवी वाणी इन्द्रियाँ वा किरणों का सेवन करने वाले (इत्) ही तुम लोग प्रयत्न के साथ धर्म में स्थिर (असथ) होओ।
        अर्थात् मनुष्यों को चाहिए कि अनित्य संसार में शरीरों और पदार्थों को प्राप्त हो के क्षणभंगुर जीवन में धर्माचरण के साथ नित्य परमात्मा की उपासना कर आत्मा और परमात्मा के संयोग से उत्पन्न हुए नित्य सुख को प्राप्त हों।
         इस मन्त्र का एक सन्देश यह है कि जिस संसार में हम बैठे हैं उसका पता यह नहीं है कि यह कल तक रहेगा या नहीं। कहीं भी भूकम्प, बाढ़, तूफान आता है जिससे पहले लोग यह सोचते है अभी तो बहुत समय तक रहेंगे लेकिन थोड़ी ही देर में कितने ही प्राणी काल के कराल गाल में समा जाते हैं।
          भूकम्प आदि ही नही बल्कि सामान्य जीवन जीते हुए भी पता नही कब सोते सोते , चलते चलते या बैठे बैठे ही जीवन समाप्त हो जाये।
         इस मन्त्र का दूसरा सन्देश है कि पत्ते के समान चञ्चल जीवन में तुम रह रहे हो। पत्ते पर पड़ी ओस आदि की बूंद का क्या पता कब लुढक पड़े । ओस की बात छोड़िये पत्ते का भी तो ठिकाना नहीं है कि वह कब तरु से टूट जाये। सामान्यतया पत्ते की तीन दशायें होती हैं - निकलते समय वह जब कोपल कहलाता है तब अरुणिमा लिए होता है फिर यह कोपल कुछ बड़ी होती है कुछ सख्त होती है और इस पर हरियाली आती है कुछ समय हरियाली के बाद पीलापन आने लगता है और पूरा पीला होने के बाद सदैव के लिए डाल से बिछुड़ जाता है । ठीक ऐसे ही मनुष्य का भी जीवन होता है, कोपलों की तरह मासूम बचपन होता है तथा हरी सख्त पत्तियों की तरह युवावस्था आती है और पीली पत्तियों की तरह वृद्धावस्था आती है और पतझड़ की तरह मृत्यु होती है।
        यहां एक बात और ध्यान देने योग्य है कि केवल वृद्धावस्था में ही मृत्यु होगी ऐसा नही है अरे जब हवा अधिक तेज होती है तो वह कोपलों और सख्त पत्तियों को भी डाल पर नहीं रहने देती इसी प्रकार मृत्यु भी कभी भी हो सकती है। इसीलिए वेद ने उपदेश दिया है कि वक्त रहते परमेश्वर का ध्यान करना चहिए।
       महाभारत में पितामह भीष्म ने अपने जीवन की सन्ध्या वेला में महाराज युधिष्ठिर को उपदेश दिया -

को हि जानाति कस्याद्य मृत्युः कालो भविष्यति।
युवैव धर्मशीलः स्यादनित्यं खलु जीवितम्।।

        अर्थात् हे युधिष्ठिर! किसी को कुछ नहीं पता कि कब किसका कहां मृत्यु समय आ पहुंचेगा। अतः इस सत्य को समझ कर युवावस्था में ही धर्माचरण करो, इस जीवन का कोई भरोसा नहीं ।

    इस विषय में नीतिकार ने कहा -

यावत्स्वस्थो ह्ययं देहो यावन्मृत्युश्च दूरतः।
तावदात्महितं कुर्यात् प्राणान्ते किं करिष्यति।।

     अर्थात् जब तक यह शरीर स्वस्थ बना हुआ है, जब तक बुढ़ापा नहीं आया है तभी तक आत्म-श्रेयस् का कुछ कार्य कर डालो, प्राणान्त होने पर क्या कर सकोगे? 

अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः |
नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसंग्रहः ||

      अर्थात्  मनुष्य का  शरीर नश्वर  है, और धन वैभव भी शाश्वत नहीं होता है । मृत्यु सदैव  हमारे साथ  रहती है (मृत्यु कभी भी हो सकती है) । अतः हमारा यह कर्तव्य है कि  धर्म द्वारा प्रतिपादित  सिद्धान्तों  का पालन कर  पुण्य प्राप्त करें ।

एक कवि कहता है -

क्षण भंगुर जीवन की कलिका कल प्रात को जाने खिली न खिली।
मलयाचल सेवित शीतल मन्द सुगन्ध समीर मिली न मिली ।।

कर काल कुठार लिए फिरता तन नम्र पे चोट झिली न झिली ।
जपले प्रभु नाम अरी रसना फिर अन्त समय में हिली ना हिली ।।

क्रमशः ...

गुरुवार, 2 जनवरी 2020

आध्यात्मिक चर्चा - ७

आध्यात्मिक चर्चा - ७

आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

      आध्यात्मिक चर्चाओं में शरीर को ऋषि,मुनि और विद्वानों ने अनेक तरह से समझाया है। पिछली चर्चा में हमने समझा कि यमाचार्य शरीर को आत्मा का रथ कहते हैं। आज हम समझेंगे कि योगेश्वर श्री कृष्ण महाराज शरीर को वस्त्र की तरह समझाते हैं।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।

     जगत में जैसे मनुष्य पुराने जीर्ण वस्त्रों को त्याग कर अन्य नवीन वस्त्रों को ग्रहण करते हैं वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़कर अन्यान्य नवीन शरीरों को प्राप्त करता है।
     आइये इस प्रसंग को विस्तार से समझने का प्रयास करते हैं। पहले तो हम यह समझें कि वस्त्र बदलना बहुत आसान सा लगता है और शरीर बदलना बहुत कठिन लगता है। लेकिन यदि ऐसी स्थिति हो कि कोई गरीब व्यक्ति हो और उसके पास केवल एक जोड़ी ही वस्त्र हों तो उससे उसके वस्त्र उतारने को कहा जाय तो वह नहीं उतारेगा और यदि उससे यह कहा जाय कि इन वस्त्रों को उतार दो, आपको अच्छे और नये वस्त्र  पहनने को देंगे तो वह बिना देर लगाये उतार देगा। शरीर बदलने में भी ठीक ऐसी ही स्थिति होती है  - एक सामान्य व्यक्ति को शरीर बदलना (छूटना) बहुत ही कठिन कार्य लगता है लेकिन योगी को शरीर बदलना बहुत सरल और सहज लगता है क्योंकि योगी जीवन की यथार्थता से अच्छे से परिचित होता है। 
      योगी जानता है कि जैसे किसी रंग मंच पर अभिनय करने वाले वस्त्र बदलकर आते रहते हैं और अभिनय करते रहते हैं ठीक ऐसे ही संसार भी तो एक रंग मंच जैसा ही है जहां आत्मा शरीर रूपी वस्त्र बदलकर आती रहती है और अपना एक जीवन अभिनय की तरह ही जी कर फिर आगे की यात्रा करती है।
       इस प्रसंग को अच्छे से अध्ययन करें तो हम समझेंगे कि बड़ी समानता है रंग मंच और संसार में । एक नाटक मण्डली होती है और उसका एक मालिक होता है। और वह मालिक योग्यता अनुसार किसी को राजा, किसी को रानी, किसी को मन्त्री और किसी को सेवक बनाता है। मालिक कहीं तो झरोखे से देखता रहता है कि मेरी मण्डली के सदस्य कैसा अभिनय कर रहे हैं ।
     हो सकता है नाटक करने वालों में से किसी ने मरने का नाटक किया हो। या तो पर्दा गिरते ही वह स्वयं उठाकर पीछे चला जाता है या उसे कुछ लोग उठा कर ले जाते हैं और पर्दे के पीछे कर देते हैं। यहां हम देख सकते हैं कि जो रंग मंच पर मरा वह मरा नही केवल मरने का नाटक कर रहा था , वह पर्दे के पीछे चला गया केवल वस्त्र बदलने के लिए वह फिर से किसी अन्य अभिनय में दिखाई देगा।
इसी प्रकार यह संसार भी एक मण्डली जैसा है इस संसार का मालिक परमपिता परमात्मा है। परमात्मा ही सभी को उनके कर्मों के आधार पर शरीर प्रदान करता है और अन्तः करण में बैठा हुआ सभी के कर्मों को देखता रहता है।
      संसार में जब कोई मरता है तो रंग मंच की तरह ही वह मरता नही है ( आत्मा अमर है) बल्कि पर्दे के पीछे चला जाता है वस्त्र बदलने के लिए ( पुनः नया शरीर आत्मा को प्राप्त होता है)। 
      यदि ऐसा हो कि रंग मंच पर जिसे राजा बनाया था उसने यदि अपना अभिनय ठीक से नही किया तो क्या मण्डली का मालिक फिर उसे राजा बनायेगा? तो आपका उत्तर होगा कि मण्डली का मालिक ऐसे व्यक्ति को फिर से राजा नहीं बनायेगा। ठीक ऐसे ही जीवात्मा मनुष्य शरीर पाकर यदि मानवता से जीवन नहीं जीता है तो परमेश्वर फिर उसे अन्य योनियों में भेज देता है। 
जैसे रंग मंच पर अभिनय करना अच्छे से आना चाहिए तभी अभिनय सफल होगा ठीक इसी प्रकार संसार में जीवन जीना आना चाहिए तभी जीवन सफल होगा।
      
क्रमशः ...



रोग प्रतिरोधक क्षमता वर्धक काढ़ा ( चूर्ण )

रोग_प्रतिरोधक_क्षमता_वर्धक_काढ़ा ( चूर्ण ) ( भारत सरकार / आयुष मन्त्रालय द्वारा निर्दिष्ट ) घटक - गिलोय, मुलहटी, तुलसी, दालचीनी, हल्दी, सौंठ...