बुधवार, 30 दिसंबर 2020

धर्म‌ की यथार्थता

                        ।।धर्म की यथार्थता ।।

                                आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री
                                               ( वैदिक प्रवक्ता )

     किसी भी शब्द के अर्थ को ठीक-ठीक(यथार्थ रूप से)जानकर ही सही प्रयोग किया जा सकता है। जैसे यज्ञ का अर्थ केवल हवन के लिए गौण हो गया है, जबकि यज्ञ का अर्थ देव पूजा ,संगतिकरण करना,और दान करना है ।महर्षि दयानंद के शब्दों में यदि उसको कहते हैं कि - जिसमें माता-पिता विद्वान का सत्कार यथा योग्य शिल्प अर्थात रसायन जोके पदार्थ विद्या उससे उपयोग और विद्याधीश गुणों का दान अग्निहोत्री आदि जिनसे वायु वृष्टि जन औषधि की पवित्रता करके सब जीवो को सुख पहुंचाना है।
यज्ञ संपूर्ण कामनाओं को पूर्ण करता है, यह सत्य है लेकिन इसके लिए यज्ञ करना यज्ञ के संपूर्ण अर्थ को जानकर इन्हें जीवन में धारण करना चाहिए।
       इसी प्रकार धर्म शब्द पूजा के लिए गौण हो गया है जन सामान्य के अनुसार जो लोग पूजा करते कराते हैं, वे धार्मिक कहलाते हैं। पूजा स्थल को धार्मिक स्थल कहा जाता है ।पूजा साहित्य को धार्मिक साहित्य कहा जाता है।
   क्या इसके अतिरिक्त और कोई धर्म और धार्मिक नहीं है ?
क्या ईमानदारी से व्यापार करने वाला व्यक्ति धार्मिक नहीं है ?
क्या जीवो पर दया करना धर्म नहीं है ?
क्या माता पिता की सेवा करना धर्म नहीं है ?
क्या राष्ट्रहित में अपना सर्वस्व समर्पित करने वाला व्यक्ति धार्मिक नहीं है?
      उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर सोचते हैं या पूछते हैं तो उत्तर धर्म है ऐसा आता है ।अर्थात् माता-पिता की सेवा करना धर्म है इमानदारी से व्यापार करना धर्म है राष्ट्रहित में बलिदान धर्म है तो फिर धर्म का यथार्थ रूप क्या है?
 धर्म बहुत व्यापक है जिसमें पूजा का भी स्थान है लेकिन पूजा संपूर्ण धर्म नहीं उसका एक अंग है (वास्तव में वेदानुकूल पूजा ही धर्म है, वेद विरुद्ध पूजा धर्म नहीं है )।व्यक्तिगत, आत्मिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और विश्व उन्नति के लिए अपनाए गए सभी उचित कर्तव्य धर्म के अंतर्गत आते हैं।
धर्म की परिभाषाएँ:-
भाषा वैज्ञानिक महामुनि पाणिनि का व्याकरण के अनुसार धृञ् धारणे धातु से मन् प्रत्यय के योग से धर्म शब्द सिद्ध होता है।
"धारणात् धर्म इत्याहुः" "ध्रियते अनेन लोकः।"
 आदि व्युत्पत्तियों के अनुसार जिसे आत्मोन्नति और उत्तम सुख के लिए धारण किया जाए अथवा जिसके द्वारा लोगों को धारण किया जाए अर्थात् व्यवस्था या मर्यादा में रखा जाए उसे धर्म कहते हैं ।इस प्रकार आत्मा की उन्नति करने वाला मुख्य तथा उत्तम व्यावहारिक सुख को देने वाला सदाचार कर्तव्य अथवा श्रेष्ठ विधान नियम धर्म है।
  वैशेषिक दर्शनकार महर्षि कणाद धर्म के विषय में लिखते हैं-अथातो धर्म व्याख्यास्यामः।(वैशेषिक१/१/१)
अनंतर धर्म की व्याख्या करेंगे और आगे लिखते हैं- अतोsभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि: स धर्मः।(वै०१/१/२)
अर्थात्‌ जिसके आचरण से मनुष्य की शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक उन्नति, व्यावहारिक उत्तम सुख की प्राप्ति एवं वृद्धि हो तथा मोक्ष सुख की सिद्धि हो वह आचरण या कर्तव्य धर्म है।जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की प्राप्ति होगी उसे धर्म कहते हैं।
 किसके आधार पर समझें इसका उत्तर देते हुए महर्षि लिखते हैं-तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्।
आम्नाय-वेद प्रामाण्य है अर्थात् धर्म के विषय में वेद ही प्रमाण है।
धर्म का ही आचरण करने से कल्याण होता है ।
धर्म हमें कहां से प्राप्त होगा ?
जो हमें आचरण करना है उस आचरण को कौन बताएगा?
 ऐसा ही प्रश्न अन्य ऋषियों के सामने आया।
"अथातो धर्म जिज्ञासा"(मीमांसा१/१/१)
धर्म को जानने की इच्छा के लिए विचार किया जाता है कहकर मीमांसा दर्शनकार महामुनि जैमिनि आरंभ करते हैं तथा धर्म के विषय को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि-चोदना लक्षणोsर्थो धर्मः।(मीमांसा१/१/२)
चोदना=नोदना=प्रेरणा=विधि वाक्य=वेद अर्थात्‌ विधि वाक्य से जो जाना जाए उसे धर्म का लक्षण कहते हैं ।अर्थात् वेदों से मनुष्यों को करने के लिए जो कर्तव्य निहित किये हैं। वह धर्म है।
महर्षि दयानंद सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं -जो पक्षपात रहित,न्यायाचरण, सत्यभाषणादि युक्त ईश्वराज्ञा वेदों के अविरुद्ध है उसे धर्म और पक्षपात सहित न्याय अन्यायाचरण,मिथ्या भाषणादि ईश्वराज्ञा भंग,वेद विरुद्ध है उसको अधर्म कहते हैं।
         महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा दी गई धर्म अधर्म की परिभाषा एक कसौटी है ,यदि पक्षपात  नहीं हो रहा है, सत्यता के साथ न्याय किया जा रहा है तो धर्म है और यदि पक्षपात हो रहा है झूठ का सहारा लेकर अन्याय हो रहा है तो वह चाहे कोई भी करे अधर्म हो रहा है तथा सत्यासत्य का अंतिम प्रमाण वेद ही है।
            धर्म की जांच के प्रमाण:-
वेद धर्म है और वेद के विरुद्ध अधर्म है लेकिन आज संसार में अनेक धर्म कहे जा रहे हैं। देश, काल,परिस्थिति के अनुसार स्वार्थवश,अज्ञानवश कुछ व्यक्तियों ने संगठन बनाए जो मत,पंथ ,संप्रदाय हैं।जिन्हें आज धर्म कहा जा रहा है।तो क्या अनेक धर्म है ?
क्या अनेक धर्म हो सकते हैं?
 वेद ही धर्म क्यों है?
धर्म एक है।अनेक नहीं हो सकते। सत्य का कोई विकल्प नहीं है -अनेक सत्य नहीं होते और सत्य के साथ दूसरा कहलाने वाला असत्य होता है ।जब धर्म सत्य धर्म है तो असत्य दूसरा धर्म नहीं है ।असत्य अधर्म है इसी प्रकार चूंकि वेद परमात्मा प्रदत्त है अतः वेद ही धर्म है, दूसरा धर्म विरोधी अधर्म है ।
 हम सभी मत,पंथ, संप्रदायों को धर्म मान लेते हैं यदि वे सभी एक जैसी व सत्य बात करते,जबकि यह एक दूसरे के विरोधी हैं ।
जब दो व्यक्ति विरोधी बातें करते कर रहे हों तो -
दोनों सत्य नहीं हो सकते दोनों गलत तो हो सकते हैं।
 एक सही हो सकता है इसका पैमाना क्या है अर्थात् कैसे जांच की जाए कि कौन सही है, कौन गलत है?
 इसका उत्तर महर्षि दयानंद सरस्वती व्यवहार भानु में लिखते हैं सत्य का निर्णय करने के लिए।
१-ईश्वर,उसके गुण कर्म स्वभाव और वेद विद्या।
२-सृष्टि क्रम।
३-प्रत्यक्ष आदि आठ प्रमाण।
४-आप्तों का आचार-उपदेश-ग्रन्थ और सिद्धान्त ।
५- अपनी आत्मा की साक्षी, अनुकूलता,जिज्ञासा,पवित्रता और विज्ञान।
१-ईश्वरादि से परीक्षा करना इसको कहते हैं कि जो-जो ईश्वर के न्याय आदि गुण पक्षपात रहित सृष्टि बनाने का कर्म और सत्य,न्याय,दयालुता, परोपकारिता आदि स्वभाव और वेदोपदेश से सत्य धर्म ठहरे वही सत्य और धर्म है और जो-जो असत्य और अधर्म ठहरे वही असत्य और अधर्म है।
 जैसे कोई कहे कि बिना कारण और कर्ता के कार्य होता है तो सर्वथा मिथ्या जानना।इससे यह सिद्ध होता है कि जो सृष्टि की रचना करने हारा पदार्थ है वही ईश्वर और उस के गुण ,कर्म ,स्वभाव वेद और सृष्टिक्रम से ही निश्चित जाने जाते हैं।
२-सृष्टिक्रम उसको कहते हैं कि जो-जो सृष्टिक्रम अर्थात् सृष्टि के गुण,कर्म और स्वभाव से विरुद्ध हो वह मिथ्या और अनुकूल हो वह सत्य कहाता  है ।
   जैसे कोई कहे बिना मां-बाप का लड़का,कान से देखना,आंख से बोलना आदि होता वा हुआ है ऐसी-ऐसी बातें सृष्टिक्रम के विरुद्ध होने से मिथ्या और माता-पिता से संतान,कान से सुनना और आंख से देखना आदि सृष्टिक्रम के अनुकूल होने से सत्य ही है।
३-प्रत्यक्षादि आठ प्रमाणों से परीक्षा करना उसको सत्य कहते हैं कि जो-जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से ठीक-ठीक ठहरे वह सत्य और जो-जो विरुद्ध ठहरे वह मिथ्या समझना चाहिए।
  जैसे किसी ने किसी से कहा कि यह क्या है? दूसरे ने कहा कि पृथिवी । यह प्रत्यक्ष है ।
इसको देख कर उसके कारण का निश्चय करना अनुमान।जैसे बिना बनाने हारे के घर नहीं बन सकता वैसे ही सृष्टि का बनाने हारा ईश्वर ही बड़ा कारीगर है।यह दृष्टांत उपमान और सत्योपदेष्टाओं  का उपदेश वह शब्द।
भूतकालस्थ पुरुषों की चेष्टा,सृष्टि आदि पदार्थों की कथा आदि को ऎतिह्य ।
  एक बात को सुनकर बिना सुने  कहे कोई प्रसंग से दूसरी बात को जान लेना यह अर्थापत्ति ।
कारण से कार्य होना आदि को संभव और आठवां अभाव अर्थात् किसी ने किसी से कहा कि जल ले आ। उसने  वहां जल के अभाव को जानकर तर्क से जाना वहां जल नहीं है जहाँ जम है वहाँ से  जल लाकर देना चाहिए ,यह अभाव का प्रमाण कहाता है ।
इन आठ प्रमाणों से  जो विपरीत न हो वह-वह सत्य और जो- जो उल्टा हो मिथ्या है।
४-आप्तों के आचार और सिद्धान्त से परीक्षा करना उसको कहते हैं जो-जो सत्यवादी,सत्यकारी,सत्यमानी, पक्षपातरहित, सब के हितैषी, विद्वान्, सबके सुख के लिए प्रयत्न करें वे धार्मिक लोग आप्त कहाते हैं। उनके उपदेश, आचार,ग्रंथ और सिद्धांत से जो युक्त हो वह सत्य और जो विपरीत हो वह मिथ्या है।
५-आत्मा से परीक्षा उसको कहते हैं कि जो- जो अपनी आत्मा अपने लिए चाहे सो-सो सब के लिए चाहना और जो- जो न चाहे सो-सो किसी के लिए न चाहना ।जैसा आत्मा में वैसा मन में, जैसा मन में वैसा क्रिया में, होने की इच्छा जानने की इच्छा, शुद्ध भाव और विद्या के नेत्र से देखकर सत्य और असत्य का निश्चय करना चाहिए।
  इन पांच प्रकार की परीक्षाओं से पढ़ने पढ़ाने हारे तथा सब मनुष्य सत्यासत्य का निर्णय करके धर्म का ग्रहण और अधर्म का परित्याग करें करावें।
  उपरोक्त पांचों प्रमाणों का आधार भी वेद ही है इसीलिए ईश्वर, आप्त, ग्रंथ आदि के विषय की स्पष्टता,सत्यता वेद ज्ञान से ही संभव है ।
    आज संसार में विभिन्न मत,पंथ,संप्रदाय चल रहे हैं।सभी एक दूसरे के विरोधी हैं तथा धर्म कहलाते हैं जोकि धर्म नहीं हो सकते। धर्म मेल को कहते हैं विरोध को नहीं विरोधी होने पर कोई न कोई गलत है जैसे एक अध्यापक ने 40 विद्यार्थियों को एक गणित का प्रश्न हल करने को दिया उनमें से 15 विद्यार्थियों का उत्तर सही था तथा 25 विद्यार्थियों का उत्तर गलत था।यदि अब प्रश्न यह कर दिया जाए के समानता 15 विद्यार्थियों के उत्तर में है या 25 विद्यार्थियों के उत्तर में है तो उत्तर होगा कि 15 विद्यार्थियों के उत्तर में समानता है क्योंकि यह सही है।सही-सही ही मिलता है, गलत-गलत नहीं मिलता। विभिन्न संप्रदायों का एक दूसरे के साथ वैचारिक मतभेद (न मिलना)यह बताता है कि कोई न कोई गलत है। अगर सभी सही सही होते तो मिला होता।इसीलिए सार्वभौमिक, सार्वकालिक एवं सार्वदेशिक वेद ही धर्म है ।अतः वेद पर ही चलना चाहिए।
    सत्य सनातन वैदिक धर्म के आगे दुनिया का कोई भी सांप्रदायिक अपने संप्रदाय की डींग नहीं मार सकता है।
धर्म का व्यावहारिक रूप:-
      एक बार ऋषि,महर्षि एकाग्रता पूर्वक बैठे हुए महाराज मनु के पास जाकर और उनका यथोचित सत्कार करके बोले- हे भगवान् आप ही धर्म कर्तव्यों को बताने में समर्थ हैं। कृपा करके हमें बताइए ।इस जिज्ञासा रूपी प्रश्न के उत्तर में महाराज मनु ने सही कर्तव्यों और धर्म का मूल वेद ही कहा-
वेदोsखिलो धर्म मूलं स्मृति शीले च तद्विदाम्।
आचारश्चैव साधुनां आत्मनस्तुष्टिरेव च।।(मनु१/१२५)
संपूर्ण वेद अर्थात् चारों वेद (ऋग्वेद,यजुर्वेद, सामवेद,अथर्ववेद)के पारंगत विद्वानों के रचे हुए स्मृति ग्रंथ (वेदानुकूल धर्मशास्त्र), श्रेष्ठ गुणों से संपन्न स्वभाव एवं श्रेष्ठ सत्याचरण करने वाले पुरुषों का सदाचार तथा ऐसे ही श्रेष्ठ सदाचरण करने वाले व्यक्तियों की अपनी आत्मा की संतुष्टि के कार्य धर्म के मूल हैं।
    उपरोक्त श्लोक  के माध्यम से धर्म के विषय में व्यापक समाधान दिया है इसमें चार प्रश्नों के उत्तर हैं ।
प्रश्न-धर्म का मूल स्रोत क्या है?
उत्तर- धर्म का मूल स्रोत वेद है ।
प्रश्न- क्या वेद के अतिरिक्त ग्रंथ भी धर्म ग्रंथ हैं ?
प्रश्न- स्मृति आदि धर्मग्रंथ (वेदानुकूल)
प्रश्न- स्मृतियों के अतिरिक्त धर्म की जानकारी कैसे होगी?
उत्तर- वेदानुकूल आचरण करने वाले साधुओं के आचरण से ।
प्रश्न-साधुओं के आचरण के अतिरिक्त धर्म को कैसे जानें।
उत्तर-श्रेष्ठ आचरण करने वाले व्यक्तियों की आत्मा की संतुष्टि के कार्यों से।
     इन चारों प्रश्नों पर थोड़ा-थोड़ा प्रकाश डालते हैं। प्रथम प्रकाश के उत्तर में मनु महाराज का कथन है कि(वेद:अखिल धर्म मूलम्) वेद धर्म का मूल है। क्योंकि वेद परमात्मा का ज्ञान है।
    इस संदर्भ में कुछ कसौटियां इस प्रकार हैं-
१- ईश्वरीय ज्ञान मानव सृष्टि के आरंभ में होना चाहिए।
२- ईश्वरीय ज्ञान पूर्ण होना चाहिए।
३-  ईश्वरीय ज्ञान में ईश्वर के बनाये  संसार के साथ एकरूपता होनी चाहिए।
४- ईश्वरीय ज्ञान विज्ञान के अनुकूल होना चाहिए।
५- ईश्वरीय ज्ञान पक्षपात रहित( मनुष्य मात्र के लिए )होना चाहिए।
      वेद ही उपरोक्त कसौटियों पर खरा उतरता है अतः वेद ज्ञा न ही ईश्वरीय ज्ञान है। इसीलिए वेद ही धर्म है ।
   द्वितीय प्रश्न -जो वेदों को न पढ़ सकें तो धर्म की जानकारी कैसे हो? इस प्रश्न के उत्तर में मनु महाराज कहते हैं कि -( स्मृति शीले च तद्विदाम्) स्मृति आदि से धर्म का ज्ञान प्राप्त होगा ।इस प्रकार के उत्तर पर क्या सभी स्मृतियां धर्म ग्रंथ की श्रेणी में आयेंगी?क्या पुराण धर्म ग्रंथ की श्रेणी में आयेंगे? क्या सांप्रदायिक ग्रंथ भी धर्म ग्रंथ की श्रेणी में आयेंगे? 
     इसका उत्तर यह होगा कि वे ही स्मृतियां या ग्रंथ धर्म ग्रंथों की श्रेणी में आयेंगे  जो वेदानुकूल होंगे। वेद विरुद्ध या स्मृतियाँ धर्म ग्रंथ नहीं हैं।महाराज मनु वेद के दस लक्षण मनुस्मृति में इस प्रकार लिखते हैं-                         धृतिः क्षमा दमोsस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्यासत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।(मनु६/९२)
 महर्षि दयानंद ने संस्कार विधि में इस श्लोक को उद्धृत कर के वहां अहिंसा को भी धर्म का लक्षण मानकर धर्म के ग्यारह  लक्षण कहा है-
१-अहिंसा-किसी से वैर बुद्धि करके उसके अनिष्ट में कभी ना बर्तना।
२-धृतिः- सुख-दुख, हानि-लाभ में व्याकुल होकर धर्म को न छोड़ना, किंतु धैर्य से धर्म ही में स्थिर रहना।
३-क्षमा- निन्दास्तुति, मानापमान को सहन करके धर्म ही करना।
४-दमः- मन को अधर्म से सदा हटाकर धर्म में ही प्रवृत्त करना।
५- अस्तेयम्-  मन,कर्म,वचन से अन्याय और अधर्म से पराये द्रव्य का स्वीकार न करना।
६-शौचम्- राग,द्वेष त्याग से आत्मा और मन को पवित्र रखना तथा जलादि से शरीर को शुद्ध रखना ।
७-इन्द्रियनिग्रह- श्रोत्रादि बाह्यइन्द्रियों को अधर्म से हटाकर धर्म ही मैं चलाना ।
८-धीः-वेदादि सत्य विद्या, ब्रह्मचर्य ,सत्संग करने ,कुसंग-दुर्व्यसन,मद्यपानादि त्याग से बुद्धि को सदा बढ़ाते रहना ।
९-विद्या-जिससे भूमि से लेकर परमेश्वर पर्यंत यथार्थ बोध होता है वह विद्या को प्राप्त करना ।
१०-सत्यम्-सत्य मानना, सत्य बोलना ,सत्य करना।
११-अक्रोध- क्रोधादि दोषों को छोड़कर शान्त्यादि गुणों को ग्रहण करना धर्म कहाता है ।
   महर्षि पतंजलि योग दर्शन में उपरोक्त लक्षणों को योग के अंगों यम और नियम में रखते हैं। इनके बिना योग साधना नहीं की जा सकती।
यम- अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यपरिग्रहा यमाः।
नियम-शौचसन्तोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः।
महर्षि अगस्त्य इन  लक्षणों को ही तीर्थ कहते हैं-
सत्यं तीर्थं क्षमा तीर्थं तीर्थमिन्द्रियनिग्रह:।।
सर्वभूत दया तीर्थं तीर्थमार्जवमेव च।।
दान तीर्थं दमस्तीर्थं संतोषस्तीर्थमुच्यते"।
ब्रह्मचर्यं परं तीर्थं तीर्थं च प्रियवादिता।।
ज्ञान तीर्थं धृतिस्तीर्थं तपस्तीर्थमुदाहृतम्। 
तीर्थानामपि तत्तीर्थं विशुद्धिर्मनसःनरा।।
न जल्पाप्लुतः देहस्य स्नानमित्यभिधीयते।
स स्नातो यो दमस्नातः शुद्धि मनोबलः।।
                   (काशीखण्ड३/२४-३२)

सत्य तीर्थ है,क्षमा तीर्थ है,इंद्रिय संयम तीर्थ है, सब प्राणियों के प्रति दया तीर्थ है,सरलता ,दान ,मन का दमन, संतोष ब्रह्मचर्य ,प्रिय बोलना भी तीर्थ है। ज्ञान, धृति और तपस्या यह सब तीर्थ है, इनमें ब्रह्मचर्य परम तीर्थ है, मन की विशुद्धि तीर्थों का भी तीर्थ है, जल में डुबकी लगाने का नाम ही स्नान नहीं है ,जिसने इंद्रिय संयम रूप स्नान किया बुराहै वहीं स्नान है और जिसका चित्त शुद्ध हो गया वही पवित्र है।
    समाजशास्त्र में इन लक्षणों को मानव मूल्य कहा है अर्थात् यदि व्यक्ति इन लक्षणों को अपने जीवन में धारण करता है तो वह मूल्यवान हो जाता है। प्रसिद्ध हो जाता है,मान सम्मान को प्राप्त करता है।
       सत्य,अहिंसा,धैर्य, परोपकार,संतोष,विद्या, अस्तेय, अक्रोध,समयपालन, प्रेम,उत्साह,निर्भीकता, संयम, पवित्रता आदि मानव मूल्य हैं।
अधर्म के लक्षण:-
महाराज मनु ने अधर्म के भी दस लक्षण लिखे हैं-
परद्रव्येषु अभिध्यानम्,मनसा अनिष्टचिन्तनम्।
वितथ अभिनिवेशश्च,त्रिविध कर्म मानसम्।।(मनु१२/५)
मानसिक कर्मों में से तीन मुख्य अधर्म हैं- परद्रव्य हरण अथवा चोरी का विचार,लोगों के बारे में बुरा चिंतन करना,मन में द्वेष करना,ईर्ष्या करना, मिथ्या निश्चय करना।
पारुष्यमनृतं चैव,पैशून्यं चापि सर्वशः।
असम्बद्ध प्रलापश्च,वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम्।।(मनु१२/६)
वाचिक का धर्म चार हैं- कठोर भाषण (सब समय पर,सब ठौर मृदुभाषण करना यह मनुष्यों को उचित है) किसी अंधे मनुष्य को ओ अंधे! ऐसा कह कर पुकारना नि:सन्देह सत्य है परंतु कठोर होने से अधर्म है, सत्य बोलना, पैशुन्य अर्थात् चुगली करना, असम्बद्ध प्रलाप अर्थात् जानबूझकर कर बातों को उड़ाना।
अदत्तानामुपदानम्,हिंसा चैवाविधानतः।
परदारोपसेवा च ,शारीरं त्रिविधं स्मृतम्।।(मनु१२/७)
शारीरिक अधर्म तीन हैं- चोरी करना ,हिंसा (क्रूर कर्म),व्यभिचार।
     तृतीय प्रश्न उपस्थित होता है,यदि मनुष्य स्मृति आदि धर्म ग्रंथों को न  पढ़ सके तो धर्म का जान कैसे होगा ?मनुष्य स्मृति आदि धर्म ग्रंथों को न पढ़ सकें तो(आचारश्चैव साधूनाम्) साधुओं की आचरण से धर्म की जानकारी करके अपने आचरण को ठीक करें।
        उपरोक्त कथन पर आज समाज में देखने पर बड़ा विचित्र- सा दृश्य सामने आता है।आज साधु कहलाने वाले व्यक्तियों के आचरण बड़े ही गंदे पाए जाते हैं तथा इन को आपस में लड़ते देखा जाता है। चोरी,डकैती,व्यभिचार,रिश्वतखोरी तस्करी आदि कार्यों में लिप्त पाए जाने वाले साधु वेषधारियों का आचरण अपनाने योग्य है क्या? साधु कहलाने वाले आपस में लड़ते हैं। क्या धर्म लड़ाना सिखाता है ? किसकी मानें-
∆   एक कहता है कि जीवों पर दया करना धर्म है ,जबकि दूसरा धर्म के नाम पर निरीह जीवों की हत्या कर देता है।
∆  एक कहता है कि पराई स्त्री को मां, बहन, बेटी के समान समझो, जबकि दूसरा कहता है कि हमारे धर्म (संप्रदाय) को ना मानने वालों की स्त्रियों का अपहरण करो।
 ∆  एक कहता है कि पराये धन को मिट्टी के ढेले के समान समझो, जबकि  दूसरा धर्म के नाम पर लूट कराता है और लूट को पवित्र कहता है ।
∆  एक कहता है कि परमात्मा सभी को न्याय करके कर्मों का फल देता है ,जबकि दूसरा कहता है कि परमात्मा केवल हमारे धर्म( संप्रदाय) के लोगों पर ही दया करता है दूसरे धर्म के व्यक्तियों पर दया नहीं करता।
∆  एक कहता है कि आत्मा अमर है ,जबकि  दूसरा कहता है कि आत्मा शरीर के साथ ही मर जाता है।
∆   एक कहता है कि जो जैसा करेगा वैसा फल प्राप्त करेगा ,जबकि दूसरा पाप से बचने के सरल प्रलोभन दे रहा है । 
∆  एक कहता है के परिवार के सदस्यों को आपस में मिलकर रहना धर्म है ,जबकि  दूसरा तंत्र- मंत्र- यंत्र का जाल बिछाकर परिवार के सदस्यों को आपस में लड़ा देता है ,पड़ोसियों को आपस में लड़ा देता है।
∆   किसके कथन को सत्य मानें ,क्योंकि दोनों ही स्वयं को धर्म का प्रचारक, रक्षक, पोषक( ठेकेदार) कहते हैं।
     उपरोक्त शंकाओं का समाधान तो साधु शब्द से ही हो जाता है ,क्योंकि श्रेष्ठ अर्थात् वेदानुसार आचरण करने वाले व्यक्ति को ही साधु कहते हैं और उनका ही आचरण अपनाने के लिए महाराज मनु कहते हैं। नकली साधुओं ने संसार में वैचारिक प्रदूषण किया है जिससे ही सब समस्याएं उत्पन्न हुई हैं।
   प्रश्न चतुर्थ  उपस्थित होता है कि साधुओं के न मिलने पर धर्म का ज्ञान कैसे होगा? इस प्रश्न के उत्तर में महाराज मनु का कहना है कि (आत्मनतुष्टिः।) आत्मा की संतुष्टि जिन कारणों से होती है वे धर्म होते हैं।
  ऐसा  कहने पर फिर शंकायें होती हैं-
    इस प्रकार तो व्यक्तियों की संख्या के अनुसार आत्मा के प्रिय संतुष्टि के कार्य भी पृथक- पृथक हो जाएंगे, क्या यह सब धर्म होगा ?
   इसी प्रकार दुष्ट संस्कारी,राक्षस संस्कारी, तमोगुणी प्राणी हैं ,बाल्यकाल से ही जो जीव हत्या, मांस भक्षण आदि कार्य करते आ रहे हैं उनमें इन कार्यों के प्रति भय,शंका तथा लज्जा की अनुभूति नहीं होती है क्या उनकी आत्मा के प्रिय को धर्म  माना जायेगा।
   जैसे कोई व्यक्ति सन्ध्योपासना, अग्निहोत्र, विद्या प्राप्ति,शुद्धि और कर्तव्य पालन नहीं करता और    अतीन्द्रियासक्ति,अंधविश्वास, अंधमान्यता आदि से ग्रस्त हैं तो वह चाहेगा कि मैं इन सब बातों के संदर्भ में किसी से कुछ नहीं कहता तो दूसरे भी मुझसे कुछ न कहें। दूसरों के कहने पर वह पीड़ा अनुभव करेगा, क्या उसकी आत्मा की संतुष्टि धर्म है?
इन आपत्तियों के होने पर यह कहा जा सकता है कि सभी की आत्मा प्रिय संतुष्टि करने वाला कार्य धर्म  नहीं होता अपितु सद्गुण संपन्न साधु पुण्यात्मा विद्वानों की आत्मा के प्रिय कार्य ही धर्म हैं अर्थात् जो वेदानुकूल आचरण करते हैं उन्हीं की आत्मा की संतुष्टि के कार्य धर्म कहलाते हैं।
     महर्षि दयानंद सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में लिखते हैं -कि मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जानने वाला है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और विद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है ।अर्थात् जो व्यक्ति स्वार्थी, हठी, दुराग्रही एवं अविद्वान् है उसकी आत्मा का प्रिय धर्म नहीं है अपितु जो परोपकारी ,विद्वान् है उसी की आत्मा की संतुष्टि धर्म है।व्यावहारिक कार्यों के लिए महर्षि पतंजलि योग दर्शन में लिखते हैं- जिन कार्यों के करने से आत्मा में भय,शंका तथा लज्जा होती है वे कार्य अधर्म होते हैं, उन्हें नहीं करना चाहिए ।
 महात्मा चाणक्य ने कहा है-
आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति सः पश्यति।      (चा०नी०१२/१३)
जो अपनी आत्मा की तरह सभी प्राणियों की आत्मा को देखता है वह सही देखता है।
महर्षि व्यास ने कहा -
श्रूयतां धर्म सर्वस्व श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्‌।।
       सुनो धर्म सर्वस्व और सुनकर धारण कर लो, अपनी आत्मा के प्रतिकूल किसी के साथ आचरण मत करो। जैसा अपने लिए चाहते हो वैसा दूसरों के लिए करो यही धर्म अर्थात् हम जैसा- जैसा अपने लिए चाहते हैं वैसा- वैसा ही व्यवहार दूसरों के लिए करें, मैं चाहता हूं कि सब मेरा सम्मान करें तो मुझे भी सब का सम्मान करना चाहिए। मैं चाहता हूं कि मेरी उन्नति होती रहे, मेरी उन्नति में कोई बाधक न बने  तो मैं भी किसी की उन्नति में बाधक न बनूं। मैं चाहता हूं कि मेरा जीवन दुःख रहित हो तो मुझे भी चाहिए कि मैं किसी को दुख न दूं।
चाहता है खैर अपनी काट गर्दन और की,
 ऐसी बातों से सजन मन को लगाना छोड़ दे।
 इस मुबारक पेट में कबरें बनाना छोड़ दे।।
          महर्षि दयानंद सरस्वती ने उसी को मनुष्य का है जो कि आत्मानुसार बर्ते- मनुष्य उसी को कहना जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्य के सुख-दुख और हानि- लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे । इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व  सामर्थ्य से धर्मात्माओं की, चाहे वे महा अनाथ, निर्बल क्यों न हों उनकी रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती, सनाथ ,महाबलवान और गुणवान भी हो उससे भी न डरे।  
अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा करे,इस काम में चाहे उसको कितना ही दारुण दुख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी चले जायें, परन्तु इस मनुष्य रूपी धर्म से पृथक कभी न होवे।ब्रह्मा से लेकर दयानंद पर्यंत ऋषियों ने जो भी संदेश दिया है वह वेद का ही है।
 उपरोक्त आत्मवत्  व्यवहार का चिंतन वेद में इस प्रकार दिया है-
यजुर्वेद में आत्मवत् व्यवहार करने का ही उपदेश है-
यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः।।(यजु४०/३)
    हे मनुष्यो!जिस  परमात्मा, ज्ञान,विज्ञान वा धर्म विशेष कर ध्यान दृष्टि से देखते हुए को सब  प्राणी मात्र अपने तुल्य ही सुख-दुख वाले होते हैं उस परमात्मा आदि में अद्वितीय भाव को अनुकूल योगाभ्यास से देखते हुए योगीजन को कौन मूढावस्था और शोक वा क्लेश होता है अर्थात कुछ भी नहीं ।
भावार्थ- जो विद्वान्, सन्यासी लोग परमात्मा के सहचारी प्राणिमात्र को अपने आत्मा के तुल्य जानते हैं अर्थात् जैसा अपना हित चाहते हैं वैसे ही अन्य में ही वर्तते हैं, एक अद्वितीय परमेश्वर के शरण को प्राप्त होते हैं उनको मोह शोक और लोभादि कदाचित् प्राप्त नहीं होते और जो लोग अपने आत्मा को यथावत् जानकर परमात्मा को जानते हैं वे सदा सुखी होते हैं।
यजुर्वेद में आत्मा के विरुद्ध आचरण करने वालों की गति का वर्णन किया है-
असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः।
तांस्ते प्रेत्यापि गच्छन्ति ये के चात्महनोजनाः।।(४०/३)
   प्रस्तुत विवरण से  स्पष्ट है कि धर्म का यथार्थ ज्ञान हमें वेद से ही हो सकता है ।अन्य किसी मार्ग से नहीं। अतः हमें वेद में वर्णित आचारसंहिता का पालन करना चाहिए।
 वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है।(महर्षि दयानन्द )
 वेद ही अनंत ज्ञान का भण्डार है ।(अनन्ताः वै वेदाः महर्षि याज्ञवल्क्य)
वेद से महान् कोई शास्त्र नहीं है (नास्ति वेदात् परं शास्त्रम् -महर्षि अत्रि)
जो वेद की निन्दा करता है वही नास्तिक कहलाता है। (नास्तिको वेद निन्दकः)।
वेद को पढ़ें-पढा़यें, सुनें- सुनायें, प्राप्त ज्ञान को जीवन में अपनायें तभी मानव जीवन सफल होगा।

                 ।।ओ३म्।।
वेदों में वर्णित आचार संहिता ही धर्म है ।वेदो में विधि और निषेध दो प्रकार के आदेश हैं ।विधि -अर्थात् यह करो ,निषेध- अर्थात् यह न करो ।जो कर्म करने को वेद में आदेश है प्रत्येक व्यक्ति को वही करना चाहिए ।जो कर्म न करने का आदेश है वह हम नहीं करना चाहिए ।वस्तुतः यही धर्म है।
    यदि उपरोक्त प्रकरण को ऐसे समझ में तो अधिक अच्छा होगा कि हमारा प्रत्येक कर्म व्यक्तिगत,पारिवारिक,सामाजिक, राष्ट्रीय तथा वैश्विक कर्म वेद विहित होना चाहिए।
१-व्यक्तिगत धर्म
२-पारिवारिक धर्म
३-व्यापारिक धर्म
४-सामाजिक धर्म
५-राष्ट्रीय धर्म
६-वैश्विक धर्म
व्यक्तिगत धर्म
प्रत्येक व्यक्ति को प्रथम स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहना चाहिए। स्वस्थ रहने के तीन साधन हैं- भोजन ,नींद एवं ब्रह्मचर्य और तीनों को व्यवस्थित करने के लिए आसन और प्राणायाम करना अत्यावश्यक है ।भोजन हमें ऋत् भुक्,मित् भुक्,हित भुक् अर्थात् ऋत(सत्य) ईमानदारी से कमाए धन के द्वारा भोजन करना, आवश्यकता के अनुसार तथा हित अहित विचार करके ही करना चाहिए।
 मानसिक उन्नति के लिए स्वाध्याय गायत्री मंत्र के साथ ईश्वर का ध्यान।
   आत्मिक उन्नति के लिए
१- ईश्वर, जीव, प्रकृति का यथार्थ ज्ञान ।
२- कर्म फल व्यवस्था अर्थात् जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है। यह जानना तथा मानना,तदनुसार कार्य करना।
३- योग साधना करना अर्थात्‌ यम,नियम, आसन, प्राणायाम ,प्रत्याहार,धारणा, ध्यान,समाधि तक जाना।
   अत्यावश्यक कर्म -अपने द्वारा हो रहे प्रदूषण के निवारण के लिए स्वच्छता बनाये रखना,वृक्षारोपण , दैनिक अग्निहोत्रादि  कर्म करना।
पारिवारिक धर्म:-
प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा परिवारजनों के संबंधों का कर्तव्य पालन करना।
  पिता अपने कर्तव्य का पालन करें ,माता अपने कर्तव्य का पालन करें, इसी प्रकार पति ,पत्नी, पुत्र,पुत्री,भाई,बहन, दादा,दादी सभी अपने अपने कर्तव्य का पालन करें।
व्यापारिक धर्म:-
व्यक्ति जिस व्यापार से जुड़ा हो उसे ईमानदारी के साथ करे (खेती,व्यापार,नौकरी, मजदूरी )।
जिस प्रकार एक व्यापारी के द्वारा सामान सही तौलकर देना, सामान का सही होना, (नकली न होना) तथा मूल्य भी उचित रखना ही धर्म है। इसके विपरीत कम तोलना,मिलावट करना तथा अधिक मूल्य लेना अधर्म है। इसी प्रकार अन्य डॉक्टर,इंजीनियर,वकील,अध्यापक,क्लर्क, किसान, मजदूर,धर्माचार्य आदि का  ईमानदारी के साथ कर्तव्य करना ही धर्म है।
सामाजिक धर्म:-
समाज में सुख,शांति एवं समृद्धि हो ऐसा कर्म करना,मिलकर चलना, समाज में फैलने वाली कुरीतियों, अंधविश्वास,पाखण्डों,ठगों से समाज की रक्षा करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य ही धर्म है।
राष्ट्र धर्म:-
राष्ट्र रक्षित तो हम सुरक्षित
राष्ट्र रक्षा प्रत्येक व्यक्ति का आवश्यक धर्म है।प्रत्येक नागरिक को चाहिए कि वह राष्ट्र को हानि पहुंचाने वाले तत्वों  से निपटने के लिए तन,मन और धन  से सहयोग करके प्रयत्न करें। राष्ट्र रक्षा सर्वोपरि धर्म है ।जब राष्ट्र सुरक्षित होगा तो सभी  कर्म आराम से सही-सही होते रहते हैं।
वैश्विक धर्म:-
चूंकि प्रत्येक व्यक्ति विश्व का भी अंग होता है तो सारे संसार को अच्छा बनाया जाए ऐसे प्रयास करने चाहिए।
इत्योम्।।


       

बुधवार, 18 नवंबर 2020

विवाह संस्कार के लिए आवश्यक सामग्री

विवाह संस्कार के लिए आवश्यक सामग्री


१ किलोग्राम - घृत ( घी )

५०० ग्राम - हवन सामग्री ( गुरुकुल कांगड़ी या एम०डी०एच० या आर्य समाज की उत्तम सामग्री होनी चाहिए )


सामग्री में मिलाने हेतु पदार्थ —

१०० ग्राम - बूरा या गुड या शक्कर 

५० ग्राम - जौ या तिल या चावल 

१०० ग्राम - पञ्च मेवा

१०० ग्राम - गिलोय 

५० ग्राम - गुग्गुल 


५ किलोग्राम - समिधा { आम्र आदि की समिधा सूखी होनी चाहिए, समिधा गीली व घुनी ( कीड़ा लगी ) नहीं होनी चाहिए।}


२ नग - यज्ञोपवीत

६ टिक्की - कपूर

१ नग - दियासलाई ( माचिस )

---------- रुई ( दीपक के लिए )

---------- कलावा

---------- दही

---------- शहद

---------- शमीपत्र

---------- खील

---------- फल

---------- सिन्दूर

---------- पुष्प

---------- मिष्ठान

---------- चावल

---------- आम के पत्ते

---------- आटा, हल्दी, रोली यज्ञ कुण्ड ( वेदी ) सज्जा के लिए


२ आसन

२ छोटे तौलिये

१ कलश

१ शूप

१ पाषाण ( पत्थर का टुकड़ा )


यज्ञ पात्र

१ दीपक

१ लोटा

५ थाली

६ कटोरी या आचमनी पात्र

१ बड़ी कटोरी घी के लिए

६ चम्मच

१ परात

१ चिमटा

१ यज्ञकुण्ड


-------- दान तथा दक्षिणा के लिए द्रव्य



यज्ञ( हवन ), कथा, प्रवचन, आदि अनुष्ठानों, नामकरण, मुण्डन, यज्ञोपवीत, विवाह आदि संस्कारों तथा जन्मदिन, गृह प्रवेश, व्यापारिक प्रतिष्ठान शुभारम्भ, वैवाहिक वर्षगांठ, व्यापारोन्नति आदि विभिन्‍न अनुष्ठानों की सफलता हेतु सम्पर्क करें—


आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

                         (वैदिक प्रवक्ता)

अध्यक्ष - आर्य पुरोहित सभा

सहसम्पादक - तपोभूमि मासिक पत्रिका

संचालक - आर्य वीर दल पश्चिमी उत्तर प्रदेश

दूरभाष - ९८९७०६०८२२; ९४११०८२३४०

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मंगलवार, 17 नवंबर 2020

सामान्य प्रकरण

अथ ऋत्विग्वरणम्
यजमानोक्तिः—‘ओमावसोः सदने सीद’।
इस मन्त्र का उच्चारण करके ऋत्विज् को कर्म कराने की इच्छा से स्वीकार करने के लिए प्रार्थना करे।
ऋत्विगुक्तिः—‘ओं सीदामि’।
ऐसा कहके जो उस के लिये आसन बिछाया हो उस पर बैठे।
यजमानोक्तिः—‘अहमद्योक्तकर्मकर्मकरणाय भवन्तं वृणे’।
ऋत्विगुक्तिः—‘वृतोऽस्मि’।
ऋत्विजों के लक्षण—अच्छे विद्वान्, धार्मिक, जितेन्द्रिय कर्म करने में कुशल, निर्लोभ, परोपकारी दुर्व्यसनों से रहित, कुलीन, सुशील, वैदिक मत वाले, वेदवित् एक, दो, तीन अथवा चार का वरण करें।
जो एक हो तो उस का पुरोहित, और जो दो हों तो ऋत्विक्, पुरोहित और 3 तीन हों तो ऋत्विक्, पुरोहित और अध्यक्ष, और जो चार हों तो होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा।
इन का आसन वेदी के चारों ओर, अर्थात् होता का वेदी से पश्चिम आसन पूर्व मुख, अध्वर्यु का उत्तर आसन दक्षिणमुख, उद्गाता का पूर्व आसन पश्चिम मुख, और ब्रह्मा का दक्षिण आसन उत्तर में मुख होना चाहिए और यजमान का आसन पश्चिम में और वह पूर्वाभिमुख, अथवा दक्षिण में आसन पर बैठके उत्तराभिमुख रहे। इन ऋत्विजों को सत्कारपूर्वक आसन पर बैठाना, और वे प्रसन्नतापूर्वक आसन पर बैठें। और उपस्थित कर्म के विना दूसरा कर्म वा दूसरी बात कोई भी न करें।
और अपने-अपने जलपात्र से सब जने, जो कि यज्ञ करने को बैठे हों, वे इन मन्त्रों से तीन-तीन आचमन करें, अर्थात् एक-एक से एक-एक वार आचमन करें। वे मन्त्र ये हैं—
ओम् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा॥1॥ इस से एक।
ओम् अमृतापिधानमसि स्वाहा॥2॥ इस से दूसरा।
ओं सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा॥3॥ इस से तीसरा आचमन करके, तत्पश्चात् नीचे लिखे मन्त्रों से जल करके अंगों का स्पर्श करें—
ओं वाङ्म आस्येऽस्तु॥1॥ इस मन्त्र से मुख।
नसोर्मे प्राणोऽस्तु॥2॥ इस मन्त्र से नासिका के दोनों छिद्र।
ओम् अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु॥3॥ इस मन्त्र से दोनों आँखें।
ओं कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु॥4॥ इस मन्त्र से दोनों कान।
ओं बाह्वोर्मे बलमस्तु॥5॥ इस मन्त्र से दोनों बाहु।
ओम् ऊर्वोर्मऽओजोऽस्तु॥6॥ इस मन्त्र से दोनों जंघा और
ओम् अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु॥
इस मन्त्र से दाहिने हाथ से जल-स्पर्श करके मार्जन करना।

 

पूर्वोक्त समिधाचयन वेदी में करें। पुनः—
ओं भूर्भुवः स्वः॥
इस मन्त्र का उच्चारण करके ब्राह्मण क्षत्रिय वा वैश्य के घर से अग्नि ला, अथवा घृत का दीपक जला, उस से कपूर में लगा, किसी एक पात्र में धर, उस में छोटी-छोटी लकड़ी लगाके यजमान वा पुरोहित उस पात्र को दोनों हाथों से उठा, यदि गर्म हो तो चिमटे से पकड़कर अगले मन्त्र से अग्न्याधान करे। वह मन्त्र यह है—
ओं    भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा।
तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे॥
—यजुः अ॰ 3। मं॰ 5॥
इस मन्त्र से वेदी के बीच में अग्नि को धर, उस पर छोटे-छोटे काष्ठ और थोड़ा कपूर धर, अगला मन्त्र पढ़के व्यजन से अग्नि को प्रदीप्त करे—
ओम् उद्बुध्यस्वाग्ने प्रतिजागृहि त्वमिष्टापूर्त्ते संसृजेथामयं च।
अस्मिन्त्सधस्थेऽअध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत॥
—यजुः अ॰ 15। मं॰ 54॥
जब अग्नि समिधाओं में प्रविष्ट होने लगे, तब चन्दन की अथवा ऊपरलिखित पलाशादि की तीन लकड़ी आठ-आठ अंगुल की घृत में डुबा, उन में से एक-एक निकाल नीचे लिखे एक-एक मन्त्र से एक-एक समिधा को अग्नि में चढ़ावें। वे मन्त्र ये हैं—
ओम् अयं त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा॥
इदमग्नये जातवेदसे इदं न मम॥1॥       —इस मन्त्र से एक
ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्।
आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा॥ इदमग्नये इदं न मम॥2॥
—इस से, और
सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन।
अग्नये जातवेदसे स्वाहा॥ इदमग्नये जातवेदसे इदं न मम॥3॥
—इस मन्त्र से अर्थात् इन दोनों से दूसरी।

ओं तन्त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्धयामसि।
बृहच्छोचा यविष्ठ्य स्वाहा॥ इदमग्नयेऽङ्गिरसे इदं न मम॥4॥
—यजुः अ॰ 3। मं॰ 1, 2, 3॥
इस मन्त्र से तीसरी समिधा की आहुति देवें।
इन मन्त्रों से समिदाधान करके होम का शाकल्य, जो कि यथावत् विधि से बनाया हो, सुवर्ण, चांदी, कांसा आदि धातु के पात्र अथवा काष्ठ-पात्र में वेदी के पास सुरक्षित धरें। पश्चात् उपरिलिखित घृतादि जो कि उष्ण कर छान, पूर्वोक्त सुगन्ध्यादि पदार्थ मिलाकर पात्रों में रखा हो, उसमें से कम से कम 6 मासा भर घृत वा अन्य मोहनभोगादि जो कुछ सामग्री हो, अधिक से अधिक छटांक भर की आहुति देवें, यही आहुति का प्रमाण है।
उस घृत में से चमसा कि जिस में छः मासा ही घृत आवे ऐसा बनाया हो, भरके नीचे लिखे मन्त्र से पांच आहुति देनी—
ओम् अयं त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा॥
इदमग्नये जातवेदसे इदन्न मम॥5॥
तत्पश्चात् वेदी के पूर्व दिशा आदि और अञ्जलि में जल लेके चारों ओर छिड़कावे। उसके ये मन्त्र हैं—
ओम् अदितेऽनुमन्यस्व॥                 —इस मन्त्र से पूर्व।
ओम् अनुमतेऽनुमन्यस्व॥                —इस से पश्चिम।
ओं सरस्वत्यनुमन्यस्व॥                —इस से उत्तर। और—
ओं देव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय।
दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु॥
—यजुः अ॰ 30। मं॰ 1
इस मन्त्र से वेदी के चारों ओर जल छिड़कावे।
इसके पश्चात् सामान्यहोमाहुति गर्भाधानादि प्रधान संस्कारों में अवश्य करें। इस में मुख्य होम के आदि और अन्त में जो आहुति दी जाती हैं, उन में से यज्ञकुण्ड के उत्तर भाग में जो एक आहुति, और यज्ञकुण्ड के दक्षिण भाग में दूसरी आहुति देनी होती है, उस का नाम "आघारावाज्याहुति" कहते हैं। और जो कुण्ड के मध्य में आहुतियां दी जाती हैं, उन का नाम "आज्यभागाहुति" कहते हैं। सो घृतपात्र में से स्रुवा को भर अंगूठा, मध्यमा, अनामिका से स्रुवा को पकड़के—
ओम् अग्नये स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥
इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में।
ओं सोमाय स्वाहा॥ इदं सोमाय इदं न मम॥
इस मन्त्र से वेदी के दक्षिण भाग में प्रज्वलित समिधा पर आहुति देनी। तत्पश्चात्—
ओं प्रजापतये स्वाहा॥ इदं प्रजापतये इदन्न मम॥
ओम् इन्द्राय स्वाहा॥ इदमिन्द्राय इदन्न मम॥
इन दोनों मन्त्रों से वेदी के मध्य में दो आहुति देनी।
उसके पश्चात्=चार आहुति अर्थात् आघारावाज्यभागाहुति देके, जब प्रधान होम अर्थात् जिस-जिस कर्म में जितना-जितना होम करना हो करके, पश्चात् भी पूर्णाहुति पूर्वोक्त चार (आघारावाज्यभागा॰) देवें।
पुनः शुद्ध किये हुए उसी घृतपात्र में से स्रुवा को भरके प्रज्वलित समिधाओं पर व्याहृति की चार आहुति देवें—
ओं भूरग्नये स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥
ओं भुवर्वायवे स्वाहा॥ इदं वायवे इदन्न मम॥
ओं स्वरादित्याय स्वाहा॥ इदमादित्याय इदन्न मम॥
ओं भूर्भुवः स्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः स्वाहा॥ इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः इदं न मम॥
ये चार घी की आहुति देकर स्विष्टकृत् होमाहुति एक ही है, यह घृत की अथवा भात की देनी चाहिये। उस का मन्त्र—
ओं यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं यद्वा न्यूनमिहाकरम्। अग्निष्टत्स्विष्टकृद्विद्यात् सर्वं स्विष्टं सुहुतं करोतु मे। अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समर्द्धयित्रे सर्वान्नः कामान्त्समर्द्धय स्वाहा॥ इदमग्नये स्विष्टकृते इदं न मम॥
इस से एक आहुति करके, प्राजापत्याहुति करें। नीचे लिखे मन्त्र की मन में बोलके देनी चाहिए—
ओं प्रजापतये स्वाहा॥ इदं प्रजापतये इदं न मम॥
इस से मौन करके एक आहुति देकर चार आज्याहुति घृत की देवें।
परन्तु जो नीचे लिखी आहुति चौल, समावर्त्तन और विवाह में मुख्य हैं। वे चार मन्त्र ये हैं—

ओं भूर्भुवः स्वः। अग्न आयुंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः।
आरे बाधस्व दुच्छुनां स्वाहा॥ इदमग्नये पवमानाय इदन्न मम॥1॥
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्निर्ऋषिः पवमानः पाञ्चजन्यः पुरोहितः।
तमीमहे महागयं स्वाहा॥ इदमग्नये पवमानाय इदन्न मम॥2॥
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्ने पवस्व स्वपा अस्मे वर्चः सुवीर्यम्।
दधद्रयिं मयि पोषं स्वाहा॥ इदमग्नये पवमानाय इदन्न मम॥3॥
—ऋ॰ मं॰ 9। सू॰ 66। मं॰ 19-21॥
ओं भूर्भुवः स्वः। प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव। यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणां स्वाहा॥
इदं प्रजापतये इदन्न मम॥4॥      
—ऋ॰ मं॰ 10। सू॰ 121। मं॰ 10॥
इन से घृत की 4 चार आहुति करके "अष्टाज्याहुति" के निम्नलिखित मन्त्रों से सर्वत्र मङ्गल-कार्यों में 8 आठ आहुति देवें, परन्तु किस-किस संस्कार में कहां-कहां देनी चाहियें, यह विशेष बात उस-उस संस्कार में लिखेंगे। वे आठ आहुति-मन्त्र ये हैं—
ओं त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेळोऽव यासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषांसि प्र मुमुग्ध्यस्मत् स्वाहा॥ इदमग्नीवरुणाभ्याम् इदं न मम॥1॥
ओं स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ। अव यक्ष्व नो वरुणं रराणो वीहि मृळीकं सुहवो न एधि स्वाहा॥ इदमग्नीवरुणाभ्याम् इदं न मम॥2॥                    
—ऋ॰ मं॰ 4। सू॰ 1। मं॰ 4, 5॥
ओम् इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय।
त्वामवस्युराचके स्वाहा॥ इदं वरुणाय इदं न मम॥3॥                 
—ऋ॰ मं॰ 1। सू॰ 25। मं॰ 19॥
ओं तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः। अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा न आयुः प्र मोषीः स्वाहा॥
इदं वरुणाय इदं न मम॥4॥                    
—ऋ॰ मं॰ 1। सू॰ 24। मं॰ 11॥
ओं ये ते शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः।  तेभिर्नो अद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्क्काः स्वाहा॥ इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्क्केभ्यः इदं न मम॥5॥
ओम् अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमयाऽसि।
अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषजं स्वाहा॥
इदमग्नये अयसे इदं न मम॥6॥
ओम् उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय।
अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा॥
इदं वरुणायाऽऽदित्यायादितये च इदं न मम॥7॥
—ऋ॰ मं॰ 1। सू॰ 24। मं॰ 15॥
ओं भवतन्नः समनसौ सचेतसावरेपसौ।
मा यज्ञं हिंसिष्टं मा यज्ञपतिं
जातवेदसौ शिवौ भवतमद्य नः स्वाहा।
इदं जातवेदोभ्याम् इदं न मम॥8॥              
—यजुः अ॰ 5। मं॰ 3॥
सब   संस्कारों में मधुर स्वर से मन्त्रोच्चारण यजमान ही करे। न शीघ्र न विलम्ब से उच्चारण करे, किन्तु मध्य भाग जैसा कि जिस वेद का उच्चारण है, करे। यदि यजमान न पढ़ा हो तो इतने मन्त्र तो अवश्य पढ़ लेवे। यदि कोई कार्यकर्त्ता जड़ मन्दमति काला अक्षर भैंस बराबर जानता हो तो वह शूद्र है। अर्थात् शूद्र मन्त्रोच्चारण में असमर्थ हो तो पुरोहित और ऋत्विज् मन्त्रोच्चारण करें, और कर्म उसी मूढ़ यजमान के हाथ से करावें।
पुनः निम्नलिखित मन्त्र से पूर्णाहुति करें। स्रुवा को घृत से भरके—
ओं सर्वं वै पूर्णं स्वाहा॥
इस मन्त्र से एक आहुति देवें। ऐसे दूसरी और तीसरी आहुति देके, जिस को दक्षिणा देनी हो देवें, वा जिस को जिमाना हो जिमा, दक्षिणा देके सब को विदाकर स्त्रीपुरुष हुतशेष घृत, भात वा मोहनभोग को प्रथम जीमके पश्चात् रुचिपूर्वक उत्तमान्न का भोजन करें।

मङ्गलकार्य
अर्थात् गर्भाधानादि संन्यास-संस्कार पर्यन्त पूर्वोक्त और निम्नलिखित सामवेदोक्त वामदेव्यगान अवश्य करें। वे मन्त्र ये हैं—
ओं भूर्भुवः स्वः। कया नश्चित्र आ भुवदूती सदावृधः सखा।
कया शचिष्ठया वृता॥1॥
ओं भूर्भुवः स्वः। कस्त्वा सत्यो मदानां मंहिष्ठो मत्सदन्धसः। दृडा चिदारुजे वसु॥2॥
ओं भूर्भुवः स्वः। अभी षु णः सखीनामविता जरितॄणाम्।
शतं भवास्यूतये॥3॥
महावामदेव्यम्
काऽ५या। नश्चा३ यित्रा३ आभुवात्। ऊ। ती सदावृधः। सखा। औ३ होहायि। कया२३ शचायि। ष्ठयौहो३। हुम्मा२। वाऽ२र्तो३ऽ५हायि॥ (1)॥
काऽ५स्त्वा। सत्यो३मा३दानाम्। मा। हिष्ठोमात्सादन्ध। सा औ३हो हायि। दृढा २ ३ चिदा। रुजौहो३। हुम्मा२। वाऽ३सो ३ ऽ ५ हायि॥ (2)॥
आऽ५भी। षुणाः३ सा३खीनाम्। आ। विता जरायि तॄ। णाम्। औ २ ३ हो हायि। शता२३म्भवा। सियौहो३ हुम्मा२। ताऽ२ यो३ऽ५हायि॥ (3)॥
—साम॰ उत्तरार्चिके। अध्याये 1। खं॰ 3। मं॰ 1, 2, 3॥
यह महावामदेव्यगान होने के पश्चात् गृहस्थ स्त्रीपुरुष कार्यकर्त्ता सद्धर्मी लोकप्रिय परोपकारी सज्जन विद्वान् वा त्यागी पक्षपात रहित संन्यासी, जो सदा विद्या की वृद्धि और सब के कल्याणार्थ वर्तनेवाले हों उनको नमस्कार, आसन, अन्न, जल, वस्त्र, पात्र, धन आदि के दान से उत्तम प्रकार से यथासामर्थ्य सत्कार करें। पश्चात् जो कोई देखने ही के लिये आये हों, उन को भी सत्कारपूर्वक विदा कर दें। अथवा जो संस्कार-क्रिया को देखना चाहें, वे पृथक्-पृथक् मौन करके बैठे रहें, कोई बातचीत हल्ला-गुल्ला न करने पावें। सब लोग ध्यानावस्थित प्रसन्नवदन रहें। विशेष कर्मकर्त्ता और कर्म करानेवाले शान्ति धीरज और विचारपूर्वक क्रम से कर्म करें और करावें।
यह सामान्यविधि अर्थात् सब संस्कारों में कर्त्तव्य है॥

विवाह संस्कार विधि

अथ विवाहसंस्कारविधिं वक्ष्यामः


विधि विवाह संस्कार के लिए प्रथम ही सब सामग्री जोड़ रखनी चाहिए।

       यज्ञशाला, वेदी, ऋत्विक्, यज्ञपात्र, शाकल्य आदि सब सामग्री शुद्ध करके रखनी उचित है। 

 जिस समय वर वधू के घर में प्रवेश करे, उसी समय वधू और कार्यकर्त्ता मधुपर्क आदि से वर का निम्नलिखित प्रकार से आदर-सत्कार करें— उस की रीति यह है कि वर वधू के घर में प्रवेश करके पूर्वाभिमुख खड़ा रहे और वधू तथा कार्यकर्त्ता वर के समीप उत्तराभिमुख खड़े रहके, वधू और कार्यकर्त्ता— 

ओ३म् साधु भवानास्तामर्चयिष्यामो भवन्तम्॥

साधु भवान् आस्ताम् अर्चयिष्यामः भवन्तम्॥

( भवान् ) आप ( साधु ) अच्छे प्रकार ( आस्ताम् ) विराजिये। ( भवन्तम् अर्चयिष्यामः ) हम आपका स्वागत सत्कार करते हैं

इस वाक्य को बोलें। उस पर वर— 

ओ३म् अर्चय॥

आपका सत्कार स्वीकार है

ऐसा प्रत्युत्तर देवे। पुनः जो वधू और कार्यकर्त्ता ने वर के लिये उत्तम आसन सिद्ध कर रखा हो, उस को वधू हाथ में ले वर के आगे खड़ी रहके— 

ओ३म् विष्टरो विष्टरो विष्टरः प्रतिगृह्यताम्॥

यह उत्तम आसन आप ग्रहण कीजिए।

वर— 

ओ३म् प्रतिगृह्णामि॥

स्वीकार करता हूं

इस वाक्य को बोलके वधू के हाथ से आसन ले, बिछा उस पर सभामण्डप में पूर्वाभिमुख बैठके, वर— 

ओ३म् वर्ष्मोऽस्मि समानानामुद्यतामिव सूर्यः।

इमं तमभितिष्ठामि यो मा कश्चाभिदासति॥

वर्ष्मोऽस्मि समानानाम् उद्यताम् इव सूर्यः।

इमं तम् अभितिष्ठामि यो मा कः च अभिदासति॥

( समानानाम् ) जो मेरे समकक्ष हैं उनमें ( वर्ष्मोऽस्मि ) मैं तेजस्वी हूं, ( उद्यताम् ) जो जीवन में उदित हो रहे हैं उनमें मैं ( सूर्य इव ) सूर्य के समान हूँ, ( यः मा ) जो मुझे ( कः च आभिदासति ) कोई भी नीचा दिखाना चाहता है ( इमम् तम् ) उसको‌ मैं ( अभितिष्ठामि‌ ) नीचे बैठा देता हूं, उस पर चढ़ बैठता हूँ । 

इस मन्त्र को बोले। तत्पश्चात् कार्यकर्त्ता एक सुन्दर पात्र में पूर्ण जल भरके कन्या के हाथ में देवे और कन्या— 

ओ३म् पाद्यं पाद्यं पाद्यं प्रतिगृह्यताम्॥

यह शुद्ध जल हाथ, पैर धोने के लिए लीजिए

इस वाक्य को बोलके वर के आगे धरे। पुनः वर— 

ओ३म् प्रतिगृह्णामि॥

लाइए, लेता हूँ

इस वाक्य को बोलके कन्या के हाथ से उदक ले पग-प्रक्षालन* करे और उस समय—

[*यदि घर का प्रवेशक द्वार पूर्वाभिमुख हो तो वर उत्तराभिमुख और वधू तथा कार्यकर्त्ता पूर्वाभिमुख खड़े रहके, यदि ब्राह्मण वर्ण हो तो प्रथम दक्षिण पग पश्चात् बायां, और अन्य क्षत्रियादि वर्ण हो तो प्रथम बायाँ पग धोवे, पश्चात् दाहिना।]

ओ३म् विराजो दोहोऽसि विराजो दोहमशीय मयि पाद्यायै विराजो दोहः॥

विराजः दोहः असि विराजः दोहम् अशीय मयि पाद्यायै विराजो दोहः॥

हे जल! तू ( विराजः ) विविध प्रकार से प्रकाशमान पदार्थों का ( दोहः ) दुहा हुआ रस है, ऐसे ( विराजो दोहः ) शोभायमान रस का मैं ( अशीय ) सेवन करूं। मेरा सौभाग्य है कि ( विराजो दोहः ) शोभायमान पदार्थों का यह सार रूप जब ( मयि पाद्यायै ) मुझे अपने पांव धोने के लिए मिल रहा है।

इस मन्त्र को बोले। तत्पश्चात् फिर भी कार्यकर्त्ता दूसरा शुद्ध लोटा पवित्र जल से भर कन्या के हाथ में देवे। पुनः कन्या— 

ओ३म् अर्घोऽर्घोऽर्घः प्रतिगृह्यताम्॥

यह मुखप्रक्षालनार्थ जल है, लीजिए

इस वाक्य को बोलके वर के हाथ में देवे। और वर— 

ओ३म् प्रतिगृह्णामि॥

लाइये, लेता हूँ।

इस वाक्य को बोलके कन्या के हाथ से जलपात्र लेके, उस से मुखप्रक्षालन करे और उसी समय वर मुख धोके— 

ओ३म् आप स्थ युष्माभिः सर्वान् कामानवाप्नवानि॥

आपः स्थ युष्माभिः सर्वान् कामान् अवाप्नवानि॥

( आप स्थ ) आप जो जल हो ( युष्माभिः सर्वान् कामान् ) आप द्वारा अपनी कामनाओं को ( अवाप्नवानि ) प्राप्त करूं।

ओ३म् समुद्रं वः प्रहिणोमि स्वां योनिमभिगच्छत। अरिष्टा अस्माकं वीरा मा परासेचि मत्पयः॥

समुद्रं वः प्रहिणोमि स्वाम् योनिं अभिगच्छत। अरिष्टाः अस्माकं वीराः मा परासेचि मत् पयः॥

( वः ) तुम जनों को ( समुद्रं ) आकाश में ( प्रहिणोमि ) भेजता हूं ( स्वाम् योनिं अभिगच्छत ) अपने कारण भूत मेघ में परिणत हो जाओ ( अस्माकं वीराः ) हमारी वीर संतानें ( अरिष्टाः ) रोग तथा दुःख रहे हों ( मत् ) मुझसे ( पयः ) जल ( मा ) मत ( परासेचि ) परे हो

इन मन्त्रों को बोले। तत्पश्चात् वेदी के पश्चिम बिछाये हुए उसी शुभासन पर पूर्वाभिमुख बैठे।

तत्पश्चात् कार्यकर्त्ता एक सुन्दर उपपात्र जल से पूर्ण भर, उस पर आचमनी रख, कन्या के हाथ में देवे। और उस समय कन्या— 

ओ३म् आचमनीयमाचमनीयमाचमनीयं प्रतिगृह्यताम्॥

आचमन के‌लिए जल स्वीकार करें

इस वाक्य को बोलके वर के सामने करे। और वर— 

ओ३म् प्रतिगृह्णामि॥

धन्यवाद, ग्रहण करता हूँ।

इस वाक्य को बोलके कन्या के हाथ में से जलपात्र को ले सामने धर, उस में से दाहिने हाथ में जल, जितना अंगुलियों के मूल तक पहुंचे उतना लेके, वर— 

ओ३म् आ मागन् यशसा संसृज वर्चसा। तं मा कुरु प्रियं प्रजानामधिपतिं पशूनामरिष्टिं तनूनाम्॥

आ मा अगन् यशसा संसृज वर्चसा। तं मा कुरु प्रियम् प्रजानाम् अधिपतिम् पशूनाम् अरिष्टिं तनूनाम्॥

हे जलो! तुम ( मा आ अगन् ) चारों और से मुझे प्राप्त हुए हो।( यशसा )  यश और ( वर्चसा ) कान्ति से ( संसृज ) मुझे संयुक्त करो, मेरा नव सृजन करो।( तम् मा ) उस तुम्हारा आश्रय करने वाले मुझे ( प्रजानां प्रियम् ) पुत्रपौत्रादिकों,  बन्धु-बान्धवों का प्रिय, ( पशूनाम् ) पश्वादि धनसम्पत्ति का ( अधिपतिम् ) स्वामी और ( तनूनाम् अरिष्टिं कुरु ) शरीर से निरोग बनाओ। मेरे शरीर मन इन्द्रिय रूप जीवन को स्वस्थ करो।

हे परमात्मन् ! जलों के द्वारा आप मुझे प्राप्त हों। मुझे 'यश' और 'वर्च' से भर दें। मुझे सबका प्रिय मित्र, संपत्ति का स्वामी कर दें। और तनु - मानसिक शारीरिक नीरोगता दीजिए।

इस मन्त्र से एक आचमन। इसी प्रकार दूसरी और तीसरी वार इसी मन्त्र को पढ़के दूसरा और तीसरा आचमन करे।

तत्पश्चात् कार्यकर्त्ता मधुपर्क* का पात्र कन्या के हाथ में देवे और कन्या—

[*मधुपर्क उस को कहते हैं—जो दही में घी वा शहद मिलाया जाता है। उस का परिमाण—12 बारह तोले दही में 4 चार तोले शहद अथवा 4 चार तोले घी मिलाना चाहिए, और यह मधुपर्क कांसे के पात्र में होना उचित है।]

ओ३म् मधुपर्को मधुपर्को मधुपर्कः प्रतिगृह्यताम्॥

यह मधुपर्क है कृपया इसे ग्रहण कीजिए

ऐसी विनति वर से करे और वर— 

ओ३म् प्रतिगृह्णामि॥

धन्यवाद, ग्रहण करता हूं।

इस वाक्य को बोलके कन्या के हाथ से ले और उस समय— 

ओ३म् मित्रस्य त्वा चक्षुषा प्रतीक्षे॥

( त्वा ) तुझे ( मित्रस्य ) मित्र की ( चक्षुषा ) दृष्टि से ( प्रतीक्षे ) देखता हूं।

इस मन्त्रस्थ वाक्य को बोलके मधुपर्क को अपनी दृष्टि से देखे और— 

ओ३म् देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यां प्रति गृह्णामि॥

देवस्य त्वा सवितुः प्रसवे अश्विनः बाहुभ्याम् पूष्णोः हस्ताभ्याम् प्रतिगृह्णामि॥

( सवितुः देवस्य प्रसवे ) सूर्य देव का जब उदय होता है तब जो ( अश्विनः बाहुभ्याम् ) संसार का आशुगमन करने वाले अश्विदेव की भुजाओं से तथा ( पूष्णो हस्ताभ्याम् ) संसार का पोषण करने वाले भगवान के हाथों से धारण होता है उन्हीं भुजाओं और हाथों के सामर्थ्य का अनुगमन करते हुए मैं तुझे ( प्रतिगृह्णामि ) ग्रहण करता हूं

इस मन्त्र को बोलके मधुपर्क के पात्र को वाम हाथ में लेवे और— 

ओ३म् भूर्भुवः स्वः। मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः॥1॥

भूः भुवः स्वः। मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीः नः सन्तु ओषधीः॥1॥

हे ( भूः भुवः स्वः ) सच्चिदानन्दमय भगवन् ! ( ऋतायते ) ऋतमय, सत्यमय जीवन बिताने वाले के लिए ( वाता ) वायु ( मधु ) मधुर वहें ( सिन्धवः ) नदियों के जल ( मधुक्षरन्ति ) मीठे बहें ( नः ओषधयः माध्वीः ) हमारे लिए औषधियां मधुर रसभरी ( सन्तु ) हों।

ओ३म् भूर्भुवः स्वः। मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवं रजः। मधु द्यौरस्तु नः पिता॥2॥

भूः भुवः स्वः। मधु नक्तम् उत् उषसः मधुमत् पार्थिवं रजः। मधु द्यौः अस्तु नः पिता॥2॥

हे ( भूः भुवः स्वः ) सच्चिदानन्दमय भगवन् ! ( नक्तं उषसः ) हमारे लिए रात्रियां  तथा उषाएं ( मधु ) मीठी हों ( पार्थिवं रजः ) पृथ्वी का प्रत्येक कण ( मधुमत् ) मिठास भरा हो ( द्यौः पिता ) अन्तरिक्ष जो धूप, वर्षा, सर्दी से हमारा पालन करता है वह ( मधु ) हमारे लिए मधुर हो।

ओ३म् भूर्भुवः स्वः। मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाँ अस्तु सूर्यः। माध्वीर्गावो भवन्तु नः॥3॥

भूः भुवः स्वः। मधुमान् नः वनस्पतिः मधुमान् अस्तु सूर्यः। माध्वीः गावः भवन्तु नः॥3॥

हे ( भूः भुवः स्वः ) सच्चिदानन्दमय भगवन् ! ( नः वनस्पतिः मधुमान् ) हमारे लिए वनस्पतियां मिठास भरी हों ( सूर्यः नः मधुमान् अस्तु ) सूर्य हमारे लिए सुखद हो ( गावः नः माध्वीः भवन्तु ) गवादि पशु हमारे लिए मधुर हों।

इन 3 तीन मन्त्रों से मधुपर्क की ओर अवलोकन करे।

ओ३म् नमः श्यावास्यायान्नशने यत्त आविद्धं तत्ते निष्कृन्तामि॥

नमः श्यावास्याय अन्नशने यत्त आविद्धं तत् ते निष्कृन्तामि॥

( श्तावास्याय ) श्याव अर्थात् मिश्रित है आस्य अर्थात मुख जिसका ऐसे मधुपर्क के लिए ( नमः ) मेरा नमस्कार हो ( अन्नशने ) अन्न की तरह अशन अर्थात् भोजन होता है जिसका ऐसे हे मधुपर्क ( यत्ते आविद्धं ) तेरे में जो आविद्ध अर्थात् मिलावट है उसे ( निष्कृन्तामि ) काटकर ( निकालकर ) फेंक रहा हूं। भावार्थ यह है कि यह मधुपर्क शुद्ध है इसमें मिलावट नहीं है।

इस मन्त्र को पढ़, दाहिने हाथ की अनामिका और अङ्गुष्ठ से मधुपर्क को तीन वार बिलोवे और उस मधुपर्क में से वर— 

ओ३म् वसवस्त्वा गायत्रेण च्छन्दसा भक्षयन्तु॥

वसवः त्वा गायत्रेण च्छन्दसा भक्षयन्तु॥

हे मधुपर्क ! ( वसवः ) वसुसंज्ञक विद्वान् स्त्री पुरुष ( गायत्रेण छन्दसा ) वेद में प्रतिपादित किये गायत्री आदि छन्दों से अथवा गायत्री मन्त्र से निकले आनन्ददायक अर्थ के साथ ( त्वा ) तुझे ( भक्षयन्तु )खावें।

—इस मन्त्र से पूर्व दिशा।

ओ३म् रुद्रास्त्वा त्रैष्टुभेन च्छन्दसा भक्षयन्तु॥

रुद्राः त्वा त्रैष्टुभेन च्छन्दसा भक्षयन्तु॥

हे मधुपर्क ! ( रुद्राः ) रुद्रसंज्ञक विद्वान् स्त्री पुरुष ( त्रैष्टुभेन छन्दसा ) वेद में प्रतिपादित किये त्रुष्टुप आदि छन्दों से अथवा त्रुष्टुप छन्द से निकले आनन्ददायक अर्थ के साथ ( त्वा ) तुझे ( भक्षयन्तु )खावें।

—इस मन्त्र से दक्षिण दिशा।

ओ३म् आदित्यास्त्वा जागतेन च्छन्दसा भक्षयन्तु॥

आदित्याः त्वा जागतेन च्छन्दसा भक्षयन्तु॥

हे मधुपर्क ! ( आदित्याः ) आदित्यसंज्ञक विद्वान् स्त्री पुरुष ( जागतेन छन्दसा ) वेद में प्रतिपादित किये जगती आदि छन्दों से अथवा जगती छन्दों से निकले आनन्ददायक अर्थ के साथ ( त्वा ) तुझे ( भक्षयन्तु )खावें।

—इस मन्त्र से पश्चिम दिशा, और

ओ३म् विश्वे त्वा देवा आनुष्टुभेन च्छन्दसा भक्षयन्तु॥

विश्वे त्वा देवा आनुष्टुभेन च्छन्दसा भक्षयन्तु॥

हे मधुपर्क ! ( विश्वे देवाः ) सब विद्याओं में प्रविष्ट ( निष्णात ) उपदेशक, विद्वान् स्त्री पुरुष ( आनुष्टुभेन छन्दसा ) वेद में प्रतिपादित किये अनुष्टुप आदि छन्दों से अथवा अनुष्टुप छन्दों से निकले आनन्ददायक अर्थ के साथ ( त्वा ) तुझे ( भक्षयन्तु )खावें।

—इस मन्त्र से उत्तर दिशा में थोड़ा-थोड़ा छोड़े, अर्थात् छींटे देवे।

ओ३म् भूतेभ्यस्त्वा परिगृह्णामि॥

भूतेभ्यः त्वा परिगृह्णामि॥

( भूतेभ्यः ) अन्य प्राणियों के लिए भी अथवा अपने शरीर को बनाने वाले पञ्च भूतों के नाम से, उनके उपयोग के लिए ( त्वा )तुझे ( परिगृह्णामि ) ग्रहण करता हूँ।

इस मन्त्रस्थ वाक्य को बोलके पात्र के मध्य भाग में से लेके ऊपर की ओर तीन वार फेंकना। तत्पश्चात् उस मधुपर्क के तीन भाग करके तीन कांसे के पात्रों में धर, भूमि में अपने सम्मुख तीनों पात्र रखे। रखके—

ओ३म् यन्मधुनो मधव्यं परमं रूपमन्नाद्यम्। तेनाहं मधुनो मधव्येन परमेण रूपेणान्नाद्येन परमो मधव्योऽन्नादोऽसानि॥

यत् मधुनः मधव्यम् परमम् रूपम् अन्नाद्यम्। तेन अहम् मधुनः मधव्येन परमेण रूपेण अन्नाद्येन परमः मधव्यः अन्नादः असानि॥

( यत् मधुनः ) जो पुष्पों के रस शहद का ( मधव्यम् ) मिठास ( परमम् ) उत्कृष्टता = विशेषता से युक्त है ( रूपम् ) दर्शनीय = साफ है, और ( अन्नाद्यम् ) अन्न की तरह उपभोग करने योग्य है, ( तेन मधुनः ) मधु के उसी ( माव्येन ) माधुर्योपयोगी ( अन्नाद्येन ) अन्न के तुल्य खाने योग्य ( परमेण रूपेण ) सुन्दर स्वरूप से, मैं ( परमः ) पवित्र, सर्वोत्कृष्ट, ( मधव्यः ) मधुरभाषी या मधुर स्वभाव वाला ( अन्नादः ) अन्न को खाने वाला = भोक्ता ( असानि ) होऊं।

भाव यह है कि - "जो पुष्प-अन्न-वनस्पतियों का 'मधव्य परमरूप' है मेरे लिए वही अन्नाद्य भोज्य है।"

इस मन्त्र को एक-एक वार बोलके एक-एक भाग में से वर थोड़ा-थोड़ा प्राशन करे वा सब प्राशन करे। जो उन पात्रों में शेष उच्छिष्ट मधुपर्क रहा हो, वह किसी अपने सेवक को देवे वा जल में डाल देवे। तत्पश्चात्— 

ओ३म् अमृतापिधानमसि स्वाहा॥

ओं सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा॥

इन दो मन्त्रों से दो आचमन, अर्थात् एक से एक और दूसरे से दूसरा वर करे। तत्पश्चात् वर चक्षुरादि इन्द्रियों का जल से स्पर्श करे।

ओ३म् वाङ्म आस्येऽस्तु॥1॥ 

इस मन्त्र से मुख।

ओ३म् नसोर्मे प्राणोऽस्तु॥2॥ 

इस मन्त्र से नासिका के दोनों छिद्र।

ओ३म् अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु॥3॥ 

इस मन्त्र से दोनों आँखें।

ओ३म् कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु॥4॥ 

इस मन्त्र से दोनों कान।

ओ३म् बाह्वोर्मे बलमस्तु॥5॥ 

इस मन्त्र से दोनों बाहु।

ओ३म् ऊर्वोर्मऽओजोऽस्तु॥6॥ 

इस मन्त्र से दोनों जङ्घा और

ओ३म् अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु॥

इस मन्त्र से दाहिने हाथ से जल-स्पर्श करके मार्जन करना।


 पश्चात् कन्या— 

ओ३म् गौर्गौर्गौः प्रतिगृह्यताम्॥

हे वर ! बुद्धि-धनधान्यादि की प्रतिनिधिरूप इस गौ को स्वीकार कीजिए

इस वाक्य से वर की विनति करके अपनी शक्ति के योग्य वर को गोदानादि द्रव्य, जो कि वर के योग्य हो, अर्पण करे। और वर— 

ओ३म् प्रतिगृह्णामि॥

मैं स्वीकार करता हूँ

इस वाक्य से उस को ग्रहण करे। इस प्रकार मधुपर्क विधि यथावत् करके, वधू और कार्यकर्त्ता वर को सभामण्डपस्थान से घर में ले जाके शुभ आसन पर पूर्वाभिमुख बैठाके, वर के सामने पश्चिमाभिमुख वधू को बैठावे।

[*यदि सभामण्डप स्थापन न किया हो तो जिस घर में मधुपर्क हुआ हो उस से दूसरे घर में वर को ले जावे।]

और कार्यकर्त्ता उत्तराभिमुख बैठके— 

ओ३म् अमुक* गोत्रोत्पन्नामिमाममुकनाम्नीम्** अलङ्कृतां कन्यां प्रतिगृह्णातु भवान्॥

अमुक गोत्रोत्पन्नाम् इमाम् अमुक नाम्नीम् अलङ्कृतां कन्यां प्रतिगृह्णातु भवान्॥

अमुक गोत्र में उत्पन्न अमुक‌ नाम की सुशोभित कन्या का आप प्रतिग्रहण कीजिए।

[*"अमुक" इस पद के स्थान में जिस गोत्र और कुल में वधू उत्पन्न हुई हो उस का उच्चारण अर्थात् उस का नाम लेना।

**"अमुकनाम्नीम्" इस स्थान पर वधू का नाम द्वितीया विभक्ति के एकवचन से बोलना।]

इस प्रकार बोलके वर का हाथ चत्ता अर्थात् हथेली ऊपर रखके, उसके हाथ में वधू का दक्षिण हाथ चत्ता ही रखना, और वर— 

ओ३म् प्रतिगृह्णामि॥ 

स्वीकार करया हूँ ।

ऐसा बोलके— 

ओ३म् जरां गच्छ परिधत्स्व वासो भवा कृष्टीनामभिशस्तिपावा। शतं च जीव शरदः सुवर्चा रयिं च पुत्राननुसंव्ययस्वायुष्मतीदं परिधत्स्व वासः॥

जरां गच्छ परिधत्स्व वासो भवा कृष्टीनाम् अभिशस्तिपावा। शतं च जीव शरदः सुवर्चा रयिं च पुत्रान् अनुसंव्ययस्व आयुष्मति इदम् परिधत्स्व वासः॥

हे कन्ये ( जरां जच्छ ) वृद्धावस्था तक मेरे साथ बनी रहना ( वासः परिधत्स्व ) यह वस्त्र जो मैं तुझे भेंट कर रहा हूं उसे पहन ( कृष्टीनाम् ) कृषि का व्यवसाय करने वालों में ( वा=वै ) निश्चय से ( अभिशस्तिपावा ) प्रशंसा पाने वाली ( भव ) होना ( च ) और ( शरदः शतम् जीव ) सौ वर्ष तक जीना ( आयुष्मति ) हे दीर्घ आयु वाली ( सुवर्चा ) वर्चस्ववाली होकर ( रयिं च पुत्रान् च ) धन तथा पुत्रों को ( अनुसंव्ययस्व ) मर्यादा में सीमित रखना ( इदम् ) यह ( वासः ) वस्त्र ( परिधत्स्व ) पहन।

इस मन्त्र को बोलके वधू को उत्तम वस्त्र देवे। तत्पश्चात्— 

ओ३म् या अकृन्तन्नवयन् या अतन्वत याश्च देवीस्तन्तूनभितो ततन्थ। तास्त्वा देवीर्जरसे संव्ययस्वायुष्मतीदं परिधत्स्व वासः॥

याः अकृन्तम् अवयन् याः अतन्वत याः च देवीः तन्तून् अभितः ततन्थ। ताः त्वा देवीः जरसे संव्ययस्व आयुष्मति इदम् परिधत्स्व वासः॥

( याः ) जिन देवियों ने ( अकृन्तन् ) इन सूतों को काता है ( अवयन् ) बुना है ( याः अतन्वत ) इसे लम्बा-चौड़ा बनाया है ( याः च देवीः ) और जिन देवियों ने ( तन्तून् ) इस वस्त्र के तन्तुओं को ( अभितः ) चारों ओर से ( ततन्थ ) गूंथ दिया है ( ताः त्वा देवीः ) उन देवियों से ( जरसे ) जरा तक ( संव्ययस्व ) मर्यादा से समय व्यय करना, हे ( आयुष्मति इदम् वासः परिधत्स्व ) आयुष्मति! इस वस्त्र को पहन।

इस मन्त्र को बोलके वधू को वर उपवस्त्र देवे और उन वस्त्रों को वधू ले के दूसरे घर में एकान्त में जा उन्हीं वस्त्रों को धारण कर और उपवस्त्र को यज्ञोपवीतवत् धारण करे।

ओ३म् परिधास्यै यशोधास्यै दीर्घायुत्वाय जरदष्टिरस्मि। शतं च जीवामि शरदः पुरूची रायस्पोषमभिसंव्ययिष्ये॥

परिधास्यै यशोधास्यै दीर्घायुत्वाय जरदष्टिः अस्मि। शतं च जीवामि शरदः पुरूची रायः पोषम् अभि संव्ययिष्ये॥

( परिधास्यै ) वस्त्र के परिधान के लिए ( यशोधास्यै ) यश के आधान के लिए ( दीर्घायुत्वाय ) दीर्घ जीवन के लिये ( जरदष्टिः अस्मि ) वृद्धावस्था तक जीने की मेरी इच्छा है ( पुरूची ) आगे आगे बढ़ने वाली ( शतं शरदः जीवामि ) सौ वर्ष तक जीवित रहूं ( रायः ) धन ( पोषम् ) पोषण को ( अभि संव्ययिष्ये ) मर्यादा में रखूंगा।

इस मन्त्र को पढ़के वर आप अधोवस्त्र धारण करे। और—

ओ३म् यशसा मा द्यावापृथिवी यशसेन्द्राबृहस्पती।

यशो भगश्च माविन्दद्यशो मा प्रतिपद्यताम्॥

यशसा मा द्यावापृथिवी यशसा इन्द्रा बृहस्पति।

यशः भगः च मा विन्दत् यशः मा प्रतिपद्यताम्॥

( मा ) मुझे ( द्यावापृथिवी ) द्यु और पृथिवी से ( यशसा प्रतिपद्यताम् ) यश प्राप्त हो ( इन्द्रा बृहस्पति ) धन-धान्य ऐश्वर्य वालों तथा ज्ञान वालों से यश प्राप्त हो ( यशः भगः च ) मुझे यश और ऐश्वर्य ( विन्दत् ) प्राप्त हो ( यशः मा प्रतिपद्यताम् ) मुझे सब तरफ से यश ही यश प्राप्त हो।

इस मन्त्र को पढ़के द्विपट्टा (दुपट्टा) धारण करे।

इस प्रकार वधू वस्त्र-परिधान करके जब तक संभले, तब तक कार्यकर्त्ता अथवा दूसरा कोई यज्ञमण्डप में जा कुण्ड के समीपस्थ हो इन्धन और कर्पूर वा घृत से कुण्ड के अग्नि को प्रदीप्त करे और आहुति के लिए सुगन्ध डाला हुआ घी बटलोई में करके कुण्ड के अग्नि पर गरम कर, कांसे के पात्र में रक्खे और स्रुवादि होम के पात्र तथा जलपात्र इत्यादि सामग्री यज्ञकुण्ड के समीप जोड़कर रक्खे।

और वरपक्ष का एक पुरुष शुद्ध वस्त्र धारण कर, शुद्ध जल से पूर्ण एक कलश को लेके यज्ञकुण्ड की परिक्रमा कर कुण्ड के दक्षिण भाग में उत्तराभिमुख हो कलशस्थापन, अर्थात् भूमि पर अच्छे प्रकार अपने आगे धरके, जब तक विवाह का कृत्य पूरण न हो जाय, तब तक उत्तराभिमुख बैठा रहे।

और उसी प्रकार वर के पक्ष का दूसरा पुरुष हाथ में दण्ड लेके कुण्ड के दक्षिणभाग में कार्य-समाप्ति पर्यन्त उत्तराभिमुख बैठा रहे।

और इसी प्रकार सहोदर वधू का भाई अथवा सहोदर न हो तो चचेरा भाई, मामा का पुत्र अथवा मौसी का लड़का हो, वह चावल वा जुआर की धाणी और शमी वृक्ष के सूखे पत्ते इन दोनों को मिला कर शमीपत्रयुक्त धाणी की 4 चार अञ्जलि एक शुद्ध सूप में रखके, धाणीसहित सूप लेके यज्ञकुण्ड के पश्चिमभाग में पूर्वाभिमुख बैठा रहे।

तत्पश्चात् कार्यकर्त्ता एक सपाट शिला, जो कि सुन्दर चिकनी हो उस को तथा वधू और वर को कुण्ड के समीप बैठाने के लिए दो कुशासन वा यज्ञिय तृणासन अथवा यज्ञिय वृक्ष की छाल के, जो कि प्रथम से सिद्ध कर रक्खे हों, उन आसनों को रखवावे।

तत्पश्चात् वस्त्र धारण की हुई कन्या को कार्यकर्त्ता वर के सम्मुख लावे और उस समय वर और कन्या—

ओ३म् समञ्जन्तु विश्वे देवाः समापो हृदयानि नौ।

सं मातरिश्वा सं धाता समु देष्ट्री दधातु नौ*॥1॥

समञ्जन्तु विश्वे देवाः सम् आपः हृदयानि नौ।

सम् मातरिश्वा सम् धाता समु देष्ट्री दधातु नौ ॥1॥

 वर और कन्या बोलें कि (विश्वे देवाः) इस यज्ञशाला में बैठे हुए विद्वान् लोगो ! आप हम दोनों को (समञ्जन्तु) निश्चय करके जानें कि मैं अपनी प्रसन्नतापूर्वक इस वर वा इस वधू को गृहाश्रम में एकत्र रहने के लिए एक-दूसरे का स्वीकार करते हैं कि (नौ) हमारे दोनों के (हृदयानि) हृदय (आपः) जल के समान (सम्) शान्त और मिले हुए रहेंगे। जैसे (मातरिश्वा) प्राणवायु हम को प्रिय है, वैसे (सम्) हम दोनों एक-दूसरे से सदा प्रसन्न रहेंगे। जैसे (धाता) धारण करनेहारा परमात्मा सब में (सम्) मिला हुआ सब जगत् को धारण करता है, वैसे हम दोनों एक-दूसरे को धारण करेंगे। जैसे (समुदेष्ट्री) उपदेश करनेहारा श्रोताओं से प्रीति करता है, वैसे (नौ) हमारे दोनों का आत्मा एक-दूसरे के साथ दृढ़ प्रेम को (दधातु) धारण करे॥1॥


भारतीय नर नारि दोनों का घर में समान अधिकार।

एक दूसरे के पूरक बन करते विपुल शक्ति संचार ।।

जैसे दो पहिये दोनों ओर चला रहे गाड़ी अनिवार।

त्यों दोनों मिल सदा चलाते ये गृहस्थ का कारोबार।।

दोनों दोनों को सुख देते रहते स्व सुख कामना हीन।

स्वार्थ न‌ होने से‌ दोनों का चित्त न होता कभी मलीन।।

दोनों दोनों का ही आदर करते करते सदा सद् व्यवहार।

प्रेरित करते दोनों प्रभु की ओर परस्पर बारम्बार ।।

जहाँ त्याग है वहीं प्रेम है प्रेम स्वयं ही है सुखधाम।

त्याग प्रेम सुखमय भारत, नर नारि का गृहस्थ अभिराम।।


इस मन्त्र को बोलें। तत्पश्चात् वर अपने दक्षिण हाथ से वधू का दक्षिण हाथ पकड़के—

ओ३म् यदैषि मनसा दूरं दिशोऽनुपवमानो वा।

हिरण्यपर्णो वैकर्णः स त्वा मन्मनसां करोतु असौ*॥2॥

यत् ऐषि मनसा दूरम् दिशोऽनु पवमानः वा।

हिरण्यपर्णो वैकर्णः सः त्वा मन्मनसाम् करोतु असौ*॥2॥

*(असौ) इस पद के स्थान में कन्या का नाम उच्चारण करना है। हे वरानने वा वरानन ! (यत्) जो तू (मनसा) अपनी इच्छा से मुझ को जैसे (पवमानः) पवित्र वायु (वा) जैसे (हिरण्यपर्णो वैकर्णः) तेजोमय जल आदि को किरणों से ग्रहण करनेवाला सूर्य (दूरम्) दूरस्थ पदार्थों और (दिशोऽनु) दिशाओं को प्राप्त होता है, वैसे तू प्रेमपूर्वक अपनी इच्छा से मुझ को प्राप्त होती वा होता है। उस (त्वा) तुझ को (सः) वह परमेश्वर (मन्मनसाम्) मेरे मन के अनुकूल (करोतु) करे और हे (वीर) जो आप मन से मुझ को (ऐषि) प्राप्त होते हो उस आप को जगदीश्वर मेरे मन के अनुकूल सदा रक्खे॥2॥

इस मन्त्र को बोलके, उस को लेके घर के बाहर मण्डपस्थान में कुण्ड के समीप हाथ पकड़े हुए दोनों आवें और वधू तथा वर—

ओ३म् भूर्भुवः स्वः। अघोरचक्षुरपतिघ्न्येधि शिवा पशुभ्यः सुमनाः सुवर्चाः। वीरसूर्देवृकामा स्योना शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे*॥3॥

भूः भुवः स्वः। अघोरचक्षुः अपतिघ्नि एधि शिवा पशुभ्यः सुमनाः सुवर्चाः। वीरसूः देवृकामा स्योना शम् नः भव द्विपदे शम् चतुष्पदे*॥3॥

*हे वरानने ! (अपतिघ्नि) पति से विरोध न करनेहारी तू जिस के (ओम्) अर्थात् रक्षा करनेवाला, (भूः) प्राणदाता, (भुवः) सब दुःखों को दूर करेनहारा, (स्वः) सुखस्वरूप और सब सुखों के दाता आदि नाम हैं, उस परमात्मा की कृपा और अपने उत्तम पुरुषार्थ से हे (अघोरचक्षुः) प्रियदृष्टि स्त्री (एधि) हो, (शिवा) मङ्गल करनेहारी (पशुभ्यः) सब पशुओं को सुखदाता (सुमनाः) पवित्रान्तःकरणयुक्त प्रसन्नचित्त (सुवर्चाः) सुन्दर शुभ गुण, कर्म, स्वभाव और विद्या से सुप्रकाशित (वीरसूः) उत्तम वीर पुरुषों को उत्पन्न करनेहारी (देवृकामा) देवर की कामना करती हुई अर्थात् नियोग की भी इच्छा करनेहारी (स्योना) सुखयुक्त होके (नः) हमारे (द्विपदे) मनुष्यादि के लिये (शम्) सुख करनेहारी (भव) सदा हो। और (चतुष्पदे) गाय आदि पशुओं को भी (शम्) सुख देनेहारी हो। वैसे मैं तेरा पति भी वर्त्ता करूँ॥3॥

ओ३म् भूर्भुवः स्वः। सा नः पूषा शिवतमामैरय सा न ऊरू उशती विहर।

यस्यामुशन्तः प्रहराम शेफं यस्यामु कामा बहवो निविष्ट्यै॥

भूः भुवः स्वः। सा नः पूषा शिवतमाम् ऐरय सा नः ऊरू उशती विहर। यस्याम् उशन्तः प्र हराम शेफम् यस्याम् उ कामाः बहवः निविष्ट्यै॥

( सा, पूषा ) वह प्रसिद्ध जगत का पोषक-परमात्मा ( नः ) हमारे प्रति ( शिवतमाम् ) अत्यन्त कल्याणकारिणी तुम्हें ( कन्या को ) ( ऐरय ) प्रवृत्त करे अर्थात् हम में प्रीतियुक्त बनावे। जिससे कि ( सा ) वह कन्या ( नः ) हमारे लिये ( उशती ) सुखादि की इच्छा करती हुई ( ऊरू विहर ) स्वयं आनन्द को प्राप्त हो ( यस्याम् ) और जिसके कि ( उशन्तः ) सुखादि की इच्छा करते हुए हम ( शेफम् प्र, हराम ) आनन्द को प्राप्त हों और ( यस्याम्, उ ) जिस स्त्री में ही ( बहवः कामाः ) बहुत से धर्म, पुत्र, रमणादि रूप अभिलषणीय विषय ( निविष्ट्यै ) अग्निहोत्रादि द्वारा अन्तः करण शुद्धिपूर्वक वैराग्य के लिए होते हैं

इन 4 चार मन्त्रों को वर बोलके, दोनों वर वधू यज्ञकुण्ड की प्रदक्षिणा करके, कुण्ड के पश्चिम भाग में प्रथम स्थापन किये हुए आसन पर पूर्वाभिमुख वर के दक्षिण भाग में वधू और वधू के वाम भाग में वर बैठके, वधू—

ओ३म् प्र मे पतियानः पन्थाः कल्पतां शिवा अरिष्टा पतिलोकं गमेयम्॥

( मे ) मेरा ( पतियानः ) पति को प्राप्त होने का  ( पन्थाः ) मार्ग ( प्रकल्पताम् ) बनाइये, मैं ( शिवा ) कल्याणकारी ( अरिष्टा ) दुःख तथा रोग रहित होती हुई ( पतिलोकम् ) पति के घर को ( गमेयम् ) जाऊं।

इस मन्त्र को बोले।

तत्पश्चात् यज्ञकुण्ड के समीप दक्षिण भाग में उत्तराभिमुख पुरोहित की स्थापना करनी। तत्पश्चात्

ओम् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा॥1॥ 

ओम् अमृतापिधानमसि स्वाहा॥2॥ 

ओं सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा॥3॥ 

इत्यादि तीन मन्त्रों से प्रत्येक मन्त्र से एक-एक आचमन, वैसे तीन आचमन वर-वधू और पुरोहित और कार्यकर्त्ता करके, हस्त और मुख-प्रक्षालन एक शुद्धपात्र में करके दूर रखवा दें। हाथ और मुख पोंछके यज्ञकुण्ड में

ओं    भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा।

तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे॥

—यजुः अ॰ 3। मं॰ 5॥

इस मन्त्र से अग्न्याधान 

ओम् अयं त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा॥

इदमग्नये जातवेदसे इदं न मम॥1॥       

( —इस मन्त्र से एक )

ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्।

आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा॥ इदमग्नये इदं न मम॥2॥

( —इस से, और )

सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन।

अग्नये जातवेदसे स्वाहा॥ इदमग्नये जातवेदसे इदं न मम॥3॥

( —इस मन्त्र से अर्थात् इन दोनों से दूसरी। )

ओं तन्त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्धयामसि।

बृहच्छोचा यविष्ठ्य स्वाहा॥ इदमग्नयेऽङ्गिरसे इदं न मम॥4॥

—यजुः अ॰ 3। मं॰ 1, 2, 3॥

( इस मन्त्र से तीसरी समिधा की आहुति देवें। )

इत्यादि मन्त्रों से समिदाधान, और 

ओम् अदितेऽनुमन्यस्व॥                 (—इस मन्त्र से पूर्व।)

ओम् अनुमतेऽनुमन्यस्व॥                (—इस से पश्चिम।)

ओं सरस्वत्यनुमन्यस्व॥                (—इस से उत्तर।)

इत्यादि 3 तीन मन्त्रों से कुण्ड के तीन ओर, और 

ओं देव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय।

दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु॥

—यजुः अ॰ 30। मं॰ 1 

इस मन्त्र से कुण्ड के चारों ओर दक्षिण हाथ की अञ्जलि से शुद्ध जल सेचन करके, कुण्ड में डाली हुई समिधा प्रदीप्त हुए पश्चात् वधू-वर      पुरोहित और   कार्यकर्त्ता आघारावाज्यभागाहुति 4 चार घी की देवें। 

ओम् अग्नये स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥

इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में।

ओं सोमाय स्वाहा॥ इदं सोमाय इदं न मम॥

इस मन्त्र से वेदी के दक्षिण भाग में प्रज्वलित समिधा पर आहुति देनी। तत्पश्चात्—

ओं प्रजापतये स्वाहा॥ इदं प्रजापतये इदन्न मम॥

ओम् इन्द्राय स्वाहा॥ इदमिन्द्राय इदन्न मम॥

इन दोनों मन्त्रों से वेदी के मध्य में दो आहुति देनी।

तत्पश्चात् व्याहृति आहुति 4 चार घी की 

ओं भूरग्नये स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥

ओं भुवर्वायवे स्वाहा॥ इदं वायवे इदन्न मम॥

ओं स्वरादित्याय स्वाहा॥ इदमादित्याय इदन्न मम॥

ओं भूर्भुवः स्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः स्वाहा॥ इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः इदं न मम॥

और अष्टाज्याहुति 8 आठ, 

ओं त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेळोऽव यासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषांसि प्र मुमुग्ध्यस्मत् स्वाहा॥ इदमग्नीवरुणाभ्याम् इदं न मम॥1॥

ओं स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ। अव यक्ष्व नो वरुणं रराणो वीहि मृळीकं सुहवो न एधि स्वाहा॥ इदमग्नीवरुणाभ्याम् इदं न मम॥2॥                    

—ऋ॰ मं॰ 4। सू॰ 1। मं॰ 4, 5॥

ओम् इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय।

त्वामवस्युराचके स्वाहा॥ इदं वरुणाय इदं न मम॥3॥                 

—ऋ॰ मं॰ 1। सू॰ 25। मं॰ 19॥

ओं तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः। अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा न आयुः प्र मोषीः स्वाहा॥

इदं वरुणाय इदं न मम॥4॥                    

—ऋ॰ मं॰ 1। सू॰ 24। मं॰ 11॥

ओं ये ते शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः।  तेभिर्नो अद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्क्काः स्वाहा॥ इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्क्केभ्यः इदं न मम॥5॥

ओम् अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमयाऽसि।

अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषजं स्वाहा॥

इदमग्नये अयसे इदं न मम॥6॥

ओम् उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय।

अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा॥

इदं वरुणायाऽऽदित्यायादितये च इदं न मम॥7॥

—ऋ॰ मं॰ 1। सू॰ 24। मं॰ 15॥

ओं भवतन्नः समनसौ सचेतसावरेपसौ।

मा यज्ञं हिंसिष्टं मा यज्ञपतिं

जातवेदसौ शिवौ भवतमद्य नः स्वाहा।

इदं जातवेदोभ्याम् इदं न मम॥8॥              

—यजुः अ॰ 5। मं॰ 3॥

ये सब मिलके 16 सोलह आज्याहुति देके प्रधान होम का प्रारम्भ करें।

प्रधान होम के समय वधू अपने दक्षिण हाथ को वर के दक्षिण स्कन्धे पर स्पर्श करके 

ओं भूर्भुवः स्वः। अग्न आयुंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः।

आरे बाधस्व दुच्छुनां स्वाहा॥ इदमग्नये पवमानाय इदन्न मम॥1॥

ओं भूर्भुवः स्वः। अग्निर्ऋषिः पवमानः पाञ्चजन्यः पुरोहितः।

तमीमहे महागयं स्वाहा॥ इदमग्नये पवमानाय इदन्न मम॥2॥

ओं भूर्भुवः स्वः। अग्ने पवस्व स्वपा अस्मे वर्चः सुवीर्यम्।

दधद्रयिं मयि पोषं स्वाहा॥ इदमग्नये पवमानाय इदन्न मम॥3॥

—ऋ॰ मं॰ 9। सू॰ 66। मं॰ 19-21॥

ओं भूर्भुवः स्वः। प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव। यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणां स्वाहा॥

इदं प्रजापतये इदन्न मम॥4॥      

—ऋ॰ मं॰ 10। सू॰ 121। मं॰ 10॥ 

इत्यादि 4 चार मन्त्रों से अर्थात् एक-एक से एक-एक मिलके 4 चार आज्याहुति क्रम से करें। और—

ओ३म् भूर्भुवः स्वः। त्वमर्यमा भवसि यत्कनीनां नाम स्वधावन्गुह्यं बिभर्षि। अञ्जन्ति मित्रं सुधितं न गोभिर्यद्दम्पती समनसा कृणोषि स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥

इस मन्त्र को बोलके 5 पांचवीं आज्याहुति देनी। तत्पश्चात्—


ओ३म् ऋताषाड् ऋतधामाग्निर्गन्धर्वः। स न इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट्॥ इदमृताषाहे ऋतधाम्नेऽग्नये गन्धर्वाय इदन्न मम॥1॥


ओ३म् ऋताषाडृतधामाग्निर्गन्धर्वस्तस्यौषधयोऽप्सरसो मुदो नाम। ताभ्यः स्वाहा॥ इदमोषधिभ्योऽप्सरोभ्यो मुद्भ्यः इदन्न मम॥2॥


ओ३म् संहितो विश्वसामा सूर्यो गन्धर्वः। स न इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट्॥ इदं संहिताय विश्वसाम्ने सूर्याय गन्धर्वाय इदन्न मम॥3॥


ओ३म् संहितो विश्वसामा सूर्यो गन्धर्वस्तस्य मरीचयोऽप्सरस आयुवो नाम। ताभ्यः स्वाहा॥ इदं मरीचिभ्योऽप्सरोभ्य आयुभ्यः इदन्न मम॥4॥


ओ३म् सुषुम्णः सूयर्रश्मिश्चन्द्रमा गन्धर्वः। स न इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट्॥ इदं सुषुम्णाय सूर्यरश्मये चन्द्रमसे गन्धर्वाय इदन्न मम॥5॥


ओ३म् सुषुम्णः सूर्यरश्मिश्चन्द्रमा गन्धर्वस्तस्य नक्षत्राण्यप्सरसो भेकुरयो नाम। ताभ्यः स्वाहा॥ इदं नक्षत्रेभ्योऽप्सरोभ्यो भेकुरिभ्यः इदन्न मम॥6॥


ओ३म् इषिरो विश्वव्यचा वातो गन्धर्वः। स न इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट्॥ इदमिषिराय विश्वव्यचसे वाताय गन्धर्वाय इदन्न मम॥7॥


ओ३म् इषिरो विश्वव्यचा वातो गन्धर्वर्स्तस्यापो अप्सरस ऊर्ज्जो नाम ताभ्यः स्वाहा॥ इदमद्भ्योऽप्सरोभ्यऽऊर्ग्भ्यः इदन्न मम॥8॥


ओ३म् भुज्युः सुपर्णो यज्ञो गन्धर्वः। स न इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट्॥ इदं भुज्यवे सुपर्णाय यज्ञाय गन्धर्वाय इदन्न मम॥9॥


ओ३म् भुज्युः सुपर्णो यज्ञो गन्धर्वस्तस्य दक्षिणा अप्सरस स्तावा नाम। ताभ्यः स्वाहा॥ इदं दक्षिणाभ्योऽप्सरोभ्यः स्तावाभ्यः इदन्न मम॥10॥


ओ३म् प्रजापतिर्विश्ववर्मा मनो गन्धर्वः। स न इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट्॥ इदं प्रजापतये विश्वकर्मणे मनसे गन्धर्वाय इदन्न मम॥11॥


ओ३म् प्रजापतिर्विश्वकर्मा मनो गन्धर्वस्तस्य ऋक्सामान्यप्सरस एष्टयो नाम। ताभ्यः स्वाहा॥ इदमृक्सामेभ्योऽप्सरोभ्य एष्टिभ्यः इदन्न मम॥12॥


इन 12 बारह मन्त्रों से 12 बारह आज्याहुति देनी।

तत्पश्चात् जयाहोम करना—


ओ३म् चित्तं च स्वाहा॥ इदं चित्ताय इदन्न मम॥1॥


ओ३म् चित्तिश्च स्वाहा॥ इदं चित्त्यै इदन्न मम॥2॥


ओ३म् आकूतं च स्वाहा॥ इदमाकूताय इदन्न मम॥3॥


ओ३म् आकूतिश्च स्वाहा॥ इदमाकूत्यै इदन्न मम॥4॥


ओ३म् विज्ञातं च स्वाहा॥ इदं विज्ञाताय इदन्न मम॥5॥


ओ३म् विज्ञातिश्च स्वाहा॥ इदं विज्ञात्यै इदन्न मम॥6॥


ओ३म् मनश्च स्वाहा॥ इदं मनसे इदन्न मम॥7॥


ओ३म् शक्वरीश्च स्वाहा॥ इदं शक्वरीभ्यः इदन्न मम॥8॥


ओ३म् दर्शश्च स्वाहा॥ इदं दर्शाय इदन्न मम॥9॥


ओ३म् पौर्णमासं च स्वाहा॥ इदं पौर्णमासाय इदन्न मम॥10॥


ओ३म् बृहच्च स्वाहा॥ इदं बृहते इदन्न मम॥11॥


ओ३म् रथन्तरं च स्वाहा॥ इदं रथन्तराय इदन्न मम॥12॥


ओ३म् प्रजापतिर्जयानिन्द्राय वृष्णे प्रायच्छदुग्रः पृतना जयेषु।

तस्मै विशः समनमन्त सर्वाः स उग्रः स इहव्यो बभूव स्वाहा॥ इदं प्रजापतये जयानिन्द्राय इदन्न मम॥13॥


इन मन्त्रों से प्रत्येक से एक-एक करके जयाहोम की 13 तेरह आज्याहुति देनी।

तत्पश्चात् अभ्यातन होम करना। इसके मन्त्र ये हैं—


ओ३म् अग्निर्भूतानामधिपतिः स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्यां स्वाहा॥ इदमग्नये भूतानामधिपतये इदन्न मम॥1॥


ओ३म् इन्द्रो ज्येष्ठानामधिपतिः स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्यां स्वाहा॥ इदमिन्द्राय ज्येष्ठानामधिपतये इदन्न मम॥2॥


ओ३म् यमः पृथिव्याऽअधिपतिः स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्यां स्वाहा॥ इदं यमाय पृथिव्या अधिपतये इदन्न मम॥3॥


ओ३म् वायुरन्तरिक्षस्याधिपतिः स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्यां स्वाहा॥ इदं वायवे अन्तरिक्षस्याधिपतये इदन्न मम॥4॥


ओ३म् सूर्यो दिवोऽधिपतिः स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्यां स्वाहा॥ इदं सूर्याय दिवोऽधिपतये इदन्न मम॥5॥


ओ३म् चन्द्रमा नक्षत्राणामधिपतिः स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्यां स्वाहा॥ इदं चन्द्रमसे नक्षत्राणामधिपतये इदन्न मम॥6॥


ओ३म् बृहस्पतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिः स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्यां स्वाहा॥

इदं बृहस्पतये ब्रह्मणोऽधिपतये इदन्न मम॥7॥


ओ३म् मित्रः सत्यानामधिपतिः स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्यां स्वाहा॥ इदं मित्राय सत्यानामधिपतये इदन्न मम॥8॥


ओ३म् वरुणोऽपामधिपतिः स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्यां स्वाहा॥ इदं वरुणायापामधिपतये इदन्न मम॥9॥


ओ३म् समुद्रः स्रोत्यानामधिपतिः स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्यां स्वाहा॥

इदं समुद्राय स्रोत्यानामधिपतये इदन्न मम॥10॥


ओ३म् अन्नं साम्राज्यानामधिपतिः स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्यां स्वाहा॥ इदमन्नाय साम्राज्यानामधिपतये इदन्न मम॥11॥


ओ३म् सोमऽओषधीनामधिपतिः स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्यां स्वाहा॥ इदं सोमाय ओषधीनामधिपतये इदन्न मम॥12॥


ओ३म् सविता प्रसवानामधिपतिः स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्यां स्वाहा॥ इदं सवित्रे प्रसवानामधिपतये इदन्न मम॥13॥


ओ३म् रुद्रः पशूनामधिपतिः स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्यां स्वाहा॥ इदं रुद्राय पशूनामधिपतये इदन्न मम॥14॥


ओ३म् त्वष्टा रूपाणामधिपतिः स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्यां स्वाहा॥ इदं त्वष्ट्रे रूपाणामधिपतये इदन्न मम॥15॥


ओ३म् विष्णुः पर्वतानामधिपतिः स मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्यां स्वाहा॥ इदं विष्णवे पर्वतानामधिपतये इदन्न मम॥16॥


ओ३म् मरुतो गणानामधिपतयस्ते मावन्त्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्यां स्वाहा॥ इदं मरुद्भ्यो गणानामधिपतिभ्यः इदन्न मम॥17॥


ओ३म् पितरः पितामहाः परेऽवरे ततास्ततामहा इह मावन्त्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्यां स्वाहा॥ इदं पितृभ्यः पितामहेभ्यः परेभ्योऽवरेभ्य-स्ततेभ्यस्ततामहेभ्यश इदन्न मम॥18॥


इस प्रकार अभ्यातन होम की अठारह आज्याहुति दिये पीछे, पुनः—


ओ३म् अग्निरैतु प्रथमो देवतानां सोऽस्यै प्रजां मुञ्चतु मृत्युपाशात्। तदयं राजा वरुणोऽनुमन्यतां यथेयं स्त्री पौत्रमघन्न रोदात् स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥1॥


ओ३म् इमामग्निस्त्रायतां गार्हपत्यः प्रजामस्यै नयतु दीर्घमायुः। अशून्योपस्था जीवतामस्तु माता पौत्रमानन्दमभिविबुध्यतामियं स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥2॥


ओ३म् स्वस्ति नोऽग्ने दिवा पृथिव्या विश्वानि धेह्ययथा यजत्र। यदस्यां मयि दिवि जातं प्रशस्तं तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रं स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥3॥


ओ३म् सुगन्नु पन्थां प्रदिशन्न एहि ज्योतिष्मध्ये ह्यजरन्नऽआयुः। अपैतु मृत्युरमृतं म आगाद् वैवस्वतो नोऽअभयं कृणोतु स्वाहा॥ इदं वैवस्वताय इदन्न मम॥4॥


ओ३म् परं मृत्योऽअनु परेहि पन्थां यत्र नोऽअन्य इतरो देवयानात्। चक्षुष्मते शृण्वते ते ब्रवीमि मा नः प्रजां रीरिषो मोत वीरान्त्स्वाहा॥ इदं मृत्यवे इदन्न मम॥5॥


ओ३म् द्यौस्ते पृष्ठं रक्षतु वायुरूरू अश्विनौ च। स्तनन्धयस्ते पुत्रान्त्सविताभिरक्षत्वावाससः परिधानाद् बृहस्पतिर्विश्वे देवा अभिरक्षन्तु पश्चात्स्वाहा॥ इदं विश्वेभ्यो देवेभ्यः इदन्न मम॥6॥


ओ३म् मा ते गृहेषु निशि घोष उत्त्थादन्यत्र त्वद्रुदत्यः संविशन्तु मा त्वं रुदत्युरऽआवधिष्ठा जीवपत्नी पतिलोके विराज पश्यन्ती प्रजां सुमनस्यमानां स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥7॥


ओ३म् अप्रजस्यं पौत्रमर्त्यं पाप्मानमुत वाऽअघम्।  शीर्ष्णस्रजमिवोन्मुच्य द्विषद्भ्यः प्रतिमुञ्चामि पाशं स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥8॥

इन प्रत्येक मन्त्रों से एक-एक आहुति करके आठ आज्याहुति दीजिये।

तत्पश्चात् 

ओं भूरग्नये स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥

ओं भुवर्वायवे स्वाहा॥ इदं वायवे इदन्न मम॥

ओं स्वरादित्याय स्वाहा॥ इदमादित्याय इदन्न मम॥

ओं भूर्भुवः स्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः स्वाहा॥ इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः इदं न मम॥

इत्यादि 4 चार मन्त्रों से 4 चार आज्याहुति दीजिये।

ऐसे होम करके वर आसन से उठ पूर्वाभिमुख बैठी वधू के सम्मुख पश्चिमाभिमुख खड़ा रहकर अपने वामहस्त से वधू का दहिना हाथ चत्ता धरके ऊपर को उचाना। और अपने दक्षिण हाथ से वधू के  उठाये हुए दक्षिण हस्ताञ्जलि अंगुष्ठासहित चत्ती ग्रहण करके, वर—

ओ३म् गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथासः।

भगो अर्यमा सविता पुरन्धिर्मह्यं त्वादुर्गार्हपत्याय देवाः*॥1॥

गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तम् मया पत्या जरदष्टिः यथा असः।

भगः अर्यमा सविता पुरन्धिः मह्यम् त्वा अदुः गार्हपत्याय देवाः॥1॥

[* हे वरानने ! जैसे मैं (सौभगत्वाय) ऐश्वर्य सुसन्तानादि सौभाग्य की बढ़ती के लिये (ते) तेरे (हस्तम्) हाथ को (गृभ्णामि) ग्रहण करता हूं, तू (मया) मुझ (पत्या) पति के साथ (जरदष्टिः) जरावस्था को प्राप्त सुखपूर्वक (आसः) हो तथा हे वीर ! मैं सौभाग्य की वृद्धि के लिये आपके हस्त को ग्रहण करती हूं। आप मुझ पत्नी के साथ वृद्धावस्था पर्यन्त प्रसन्न और अनुकूल रहिये। आप को मैं और मुझ को आप आज से पति-पत्नी भाव करके प्राप्त हुए हैं। (भगः) सकल ऐश्वर्ययुक्त (अर्यमा) न्यायकारी (सविता) सब जगत् की उत्पत्ति का कर्त्ता (पुरन्धिः) बहुत प्रकार के जगत् का धर्त्ता परमात्मा और (देवाः) ये सब सभामण्डप में बैठे हुए विद्वान् लोग (गार्हपत्याय) गृहाश्रम कर्म के अनुष्ठान के लिये (त्वा) तुझ को (मह्यम्) मुझे (अदुः) देते हैं। आज से मैं आप के हस्ते और आप मेरे हाथ बिक चुके हैं, कभी एक-दूसरे का अप्रियाचरण न करेंगे॥1॥]

ओ३म् भगस्ते हस्तमग्रभीत् सविता हस्तमग्रभीत्।

पत्नी त्वमसि धर्मणाहं गृहपतिस्तव*॥2॥

भगः ते हस्तम् अग्रभीत् सविता हस्तम् अग्रभीत्।

पत्नी त्वम् असि धर्मणा अहम् गृहपतिः तव ॥2॥

[* हे प्रिये ! (भगः) ऐश्वर्ययुक्त मैं (ते) तेरे (हस्तम्) हाथ को (अग्रभीत्) ग्रहण करता हूं। तथा (सविता) धर्मयुक्त मार्ग में प्रेरक मैं तेरे (हस्तम्) हाथ को (अग्रभीत्) ग्रहण कर चुका हूं। (त्वम्) तू (धर्मणा) धर्म से मेरी (पत्नी) भार्या (असि) है, और (अहम्) मैं धर्म से (तव) तेरा (गृहपतिः) गृहपति हूं। अपने दोनों मिलके घर के कामों की सिद्धि करें। और जो दोनों का अप्रियाचरण व्यभिचार है, उस को कभी न करें। जिस से घर के सब काम सिद्ध, उत्तम सन्तान, ऐश्वर्य और सुख की बढ़ती सदा होती रहे॥2॥]

ओ३म् ममेयमस्तु पोष्या मह्यं त्वादाद् बृहस्पतिः।

मया पत्या प्रजावति शं जीव शरदः शतम्*॥3॥

मम इयम् अस्तु पोष्या मह्यम् त्वा अदात् बृहस्पतिः।

मया पत्या प्रजावति शं जीव शरदः शतम् ॥3॥

[*हे अनघे ! (बृहस्पतिः) सब जगत् के पालन करनेहारे परमात्मा ने जिस (त्वा) तुझ को (मह्यम्) मुझे (अदात्) दिया है, (इदम्) यही तू जगत् भर में मेरी (पोष्या) पोषण करने योग्य पत्नी (अस्तु) हो। हे (प्रजावति !) तू (मया पत्या) मुझ पति के साथ (शतम्) सौ (शरदः) शरद् ऋतु अर्थात् शतवर्ष पर्यन्त (शं जीव) सुखपूर्वक जीवन धारण कर। वैसे ही वधू भी वर से प्रतिज्ञा करावे—‘हे भद्रवीर! परमेश्वर की कृपा से आप मुझे प्राप्त हुए हो। मेरे लिये आपके विना इस जगत् में दूसरा पति अर्थात् स्वामी पालन करनेहारा सेव्य इष्टदेव कोई नहीं है। न मैं आप से अन्य दूसरे किसी को मानूंगी। जैसे आप मेरे सिवाय दूसरी किसी स्त्री से प्रीति न करोगे, वैसे मैं भी किसी दूसरे पुरुष के साथ प्रीतिभाव से न वर्त्ता करूंगी। आप मेरे साथ सौ वर्ष पर्यन्त आनन्द से प्राण धारण कीजिये’॥3॥]

ओ३म् त्वष्टा वासो व्यदधाच्छुभे कं बृहस्पतेः प्रशिषा कवीनाम्।

तेनेमां नारीं सविता भगश्च सूर्यामिव परि धत्तां प्रजया*॥4॥

त्वष्टा वासो व्यदधात् शुभे कम् बृहस्पतेः प्रशिषा कवीनाम्।

तेन इमाम् नारीम् सविता भगः च  सूर्याम् इव परि धत्ताम् प्रजया ॥4॥

[* हे शुभानने ! जैसे (बृहस्पतेः) इस परमात्मा की सृष्टि में और उस की तथा (कवीनाम्) आप्त विद्वानों की (प्रशिषा) शिक्षा से दम्पती होते हैं, (त्वष्टा) जैसे बिजुली सब को व्याप्त हो रही है, वैसे तू मेरी प्रसन्नता के लिये (वासः) सुन्दर वस्त्र, और (शुभे) आभूषण तथा (कम्) मुझ से सुख को प्राप्त हो। इस मेरी और तेरी इच्छा को परमात्मा (व्यदधात्) सिद्ध करे। जैसे (सविता) सकल जगत् की उत्पत्ति करनेहारा परमात्मा (च) और (भगः) पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त (प्रजया) उत्तम प्रजा से (इमाम्) इस तुझ (नारीम्) मुझ नर की स्त्री को (परिधत्ताम्) आच्छादित शोभायुक्त करे, वैसे मैं (तेन) इस सब से (सूर्याम् इव) सूर्य की किरण के समान तुझ को वस्त्र और भूषणादि से सुशोभित सदा रक्खूंगा। तथा हे प्रिय ! आप को मैं इसी प्रकार सूर्य के समान सुशोभित आनन्द अनुकूल प्रियाचरण करके (प्रजया) ऐश्वर्य वस्त्राभूषण आदि से सदा आनन्दित रक्खूंगी॥4॥

ओ३म् इन्द्राग्नी द्यावापृथिवी मातरिश्वा मित्रावरुणा भगो अश्विनोभा।

बृहस्पतिर्मरुतो ब्रह्म सोम इमां नारीं प्रजया वर्धयन्तु*॥5॥

इन्द्राग्नी द्यावापृथिवी मातरिश्वा मित्रावरुणा भगः अश्विना उभा।

बृहस्पतिः मरुतः ब्रह्म सोमः इमां नारीम् प्रजया वर्धयन्तु॥5॥

[*हे मेरे सम्बन्धी लोगो ! जैसे (इन्द्राग्नी) बिजुली और प्रसिद्ध अग्नि, (द्यावापृथिवी) सूर्य और भूमि, (मातरिश्वा) अन्तरिक्षस्थ वायु, मित्रावरुणा) प्राण और उदान तथा (भगः) ऐश्वर्य (अश्विना) सद्वैद्य और सत्योपदेशक (उभा) दोनों, (बृहस्पतिः) श्रेष्ठ, न्यायकारी, बड़ी प्रजा का पालन करनेहारा राजा, (मरुतः) सभ्य मनुष्य, (ब्रह्म) सब से बड़ा परमात्मा, और (सोमः) चन्द्रमा तथा सोमलतादि ओषधिगण सब प्रजा की वृद्धि और पालन करते हैं, वैसे (इमां नारीम्) इस मेरी स्त्री को (प्रजया) प्रजा से बढ़ाया करते हैं, वैसे तुम भी (वर्धयन्तु) बढ़ाया करो। जैसे मैं इस स्त्री को प्रजा आदि से सदा बढ़ाया करूंगा, वैसे स्त्री भी प्रतिज्ञा करे कि मैं भी इस मेरे पति को सदा आनन्द ऐश्वर्य और प्रजा से बढ़ाया करूंगी। जैसे ये दोनों मिलके प्रजा को बढ़ाया करते हैं, वैसे तू और मैं मिलके गृहाश्रम के अभ्युदय को बढ़ाया करें॥5॥ ]

ओ३म् अहं वि ष्यामि मयि रूपमस्या वेददित् पश्यन्मनसा कुलायम्।

न स्तेयमद्मि मनसोदमुच्ये स्वयं श्रथ्नानो वरुणस्य पाशान्*॥6॥

अहम् विष्यामि मयि रूपम् अस्याः वेदत् इत् पश्यन् मनसा कुलायम्। न स्तेयम् अद्मि मनसा उदमुच्ये स्वयम् श्रथ्नानः वरुणस्य पाशान् ॥6॥

[*हे कल्याणक्रोडे ! जैसे (मनसा) मन से (कुलायम्) कुल की वृद्धि को (पश्यन्) देखता हुआ (अहम्) मैं (अस्याः) इस तेरे (रूपम्) रूप को (विष्यामि) प्रीति से प्राप्त और इस में प्रेम द्वारा व्याप्त होता हूं, वैसे यह तू मेरी वधू (मयि) मुझ में प्रेम से व्याप्त होके अनुकूल व्यवहार को (वेदत्) प्राप्त होवे। जैसे मैं (मनसा) मन से भी इस तुझ वधू के साथ (स्तेयम्) चोरी को (उद्मुच्ये) छोड़ देता हूं, और किसी उत्तम पदार्थ का चोरी से (नाद्मि) भोग नहीं करता हूं, (स्वयम्) आप (श्रथ्नानः) पुरुषार्थ से शिथिल होकर भी (वरुणस्य) उत्कृष्ट व्यवहार में विघ्नरूप दुर्व्यसनी पुरुष के (पाशान्) बन्धनों को दूर करता रहूं, वैसे (इत्) ही यह वधू भी किया करे। इसी प्रकार वधू भी स्वीकार करे कि—मैं भी इसी प्रकार आप से वर्त्ता करूंगी॥6॥]

इन पाणिग्रहण के 6 छह मन्त्रों को बोलके, पश्चात् वर वधू की हस्ताञ्जलि पकड़के उठावे और उस को साथ लेके जो कुण्ड की दक्षिण दिशा में प्रथम स्थापन किया था, उस को वही पुरुष जो कलश के पास बैठा था, वर-वधू के साथ उसी कलश को ले चले। यज्ञकुण्ड की दोनों प्रदक्षिणा करके

ओ३म् अमोऽहमस्मि सा त्वं सा त्वमस्यमोऽहम्। सामाहमस्मि ऋक्त्वं द्यौरहं पृथिवी त्वं तावेव विवहावहै सह रेतो दधावहै॥ प्रजां प्रजनयावहै पुत्रान् विन्दावहै बहून् ते सन्तु जरदष्टयः॥ संप्रियौ रोचिष्णू सुमनस्यमानौ। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतम्*॥7॥

अमः अहम् अस्मि सा त्वम् सा त्वम् असि अमः अहम्। साम अहम् अस्मि ऋक् त्वम् द्यौः अहम् पृथिवी त्वम् तावेव विवहावहै सह रेतः दधावहै॥ प्रजां प्रजनयावहै पुत्रान् विन्दावहै बहून् ते सन्तु जरदष्टयः॥ संप्रियौ रोचिष्णू सुमनस्यमानौ। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतम् ॥7॥

[* हे वधू ! जैसे (अहम्) मैं (अमः) ज्ञानवान् ज्ञानपूर्वक तेरा ग्रहण करनेवाला (अस्मि) होता हूं, वैसे (सा) सो (त्वम्) तू भी ज्ञानपूर्वक मेरा ग्रहण करनेहारी (असि) है। जैसे (अहम्) मैं अपने पूर्ण प्रेम से तुझ को (अमः) ग्रहण करता हूं, वैसे (सा) सो मैंने ग्रहण की हुई (त्वम्) तू मुझ को भी ग्रहण करती है। (अहम्) मैं (साम) सामवेद के तुल्य प्रशंसित (अस्मि) हूं। हे वधू ! तू (ऋक्) ऋग्वेद के तुल्य प्रशंसित है, (त्वम्) तू (पृथिवी) पृथिवी के समान गर्भादि गृहाश्रम के व्यवहारों को धारण करनेहारी है और मैं (द्यौः) वर्षा करनेहारे सूर्य के समान हूं। वह तू और मैं (तावेव) दोनों ही (विवहावहै) प्रसन्नतापूर्वक विवाह करें, (सह) साथ मिलके (रेतः) वीर्य को (दधावहै) धारण करें। (प्रजाम्) उत्तम प्रजा को (प्रजनयावहै) उत्पन्न करें, (बहून्) बहुत (पुत्रान्) पुत्रों को (विन्दावहै) प्राप्त होवें। (ते) वे पुत्र (जरदष्टयः) जरावस्था के अन्त तक जीवनयुक्त (सन्तु) रहें, (संप्रियौ) अच्छे प्रकार [एक] दूसरे से प्रसन्न, (रोचिष्णू) एक-दूसरे में रुचियुक्त, (सुमनस्यमानौ) अच्छे प्रकार विचार करते हुए (शतम्) सौ [शरदः] शरद्ऋतु अर्थात् शत वर्ष पर्यन्त एक-दूसरे को प्रेम की दृष्टि से (पश्येम) देखते रहें (शतं शरदः) सौ वर्ष पर्यन्त आनन्द से (जीवेम) जीते रहें और (शतं शरदः) सौ वर्ष पर्यन्त प्रिय वचनों को (वृणुयाम) सुनते रहें॥7॥]

इन प्रतिज्ञा-मन्त्रों से दोनों प्रतिज्ञा करके—

पश्चात् वर वधू के पीछे रहके, वधू के दक्षिण ओर समीप में जा उत्तराभिमुख खड़ा रहके, वधू की दक्षिणाञ्जलि अपनी दक्षिणाञ्जलि से पकड़के दोनों खड़े रहें। और वह पुरुष पुनः कुण्ड के दक्षिण में कलश लेके वैसे बैठे। तत्पश्चात् वधू की माता अथवा भाई जो प्रथम चावल और ज्वार की धाणी सूप में रखी थी, उस को बायें हाथ में लेके दाहिने हाथ से वधू का दक्षिण पग उठवाके पत्थर की शिला पर चढ़वावे। और उस समय वर—

ओ३म् आरोहेममश्मानमश्मेव त्वं स्थिरा भव।

अभितिष्ठ पृतन्यतोऽवबाधस्व पृतनायतः॥1॥

आरोह इमम् अश्मानम् अश्मा इव त्वं स्थिरा भव।

अभितिष्ठ पृतन्यतः अवबाधस्व पृतनायतः॥1॥

इस मन्त्र को बोले।

तत्पश्चात् वधू वर कुण्ड के समीप आके पूर्वाभिमुख दोनों खड़े रहें और यहां वधू दक्षिण ओर रहके अपनी हस्ताञ्जलि को वर की हस्ताञ्जलि पर रक्खे।

तत्पश्चात् वधू की मां वा भाई, जो बायें हाथ में धाणी का सूपड़ा पकड़के खड़ा रहा हो, वह धाणी का सूपड़ा भूमि पर धर अथवा किसी के हाथ में देके, जो वधू-वर की एकत्र की हुई अर्थात् नीचे वर की और ऊपर वधू की हस्ताञ्जलि है, उस में प्रथम थोड़ा घृत सिंचन करके, पश्चात् प्रथम सूप में से दाहिने हाथ की अञ्जलि से दो वार लेके वरवधू की एकत्र की हुई अञ्जलि में धाणी डाले। पश्चात् उस अञ्जलिस्थ धाणी पर थोड़ा सा घी सिंचन करे। पश्चात् वधू वर की हस्ताञ्जलि सहित अपनी हस्ताञ्जलि को आगे से नमाके—

ओ३म् अर्यमणं देवं कन्या अग्निमयक्षत। स नो अर्यमा देवः प्रेतो मुञ्चतु मा पतेः स्वाहा॥ इदमर्यम्णे अग्नये इदन्न मम॥1॥

ओ३म् इयं नार्युपब्रूते लाजानावपन्तिका। आयुष्मानस्तु मे पतिरेधन्तां ज्ञातयो मम स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥2॥

ओ३म् इमाँल्लाजानावपाम्यग्नौ समृद्धिकरणं तव। मम तुभ्यं च संवननं तदग्निरनुमन्यतामियं स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥3॥

इन 3 तीन मन्त्रों में एक-एक मन्त्र से एक-एक वार थोड़ी-थोड़ी धाणी की आहुति तीन वार प्रज्वलित ईंधन पर देके, वर—

ओ३म् सरस्वति प्रेदमव सुभगे वाजिनीवति। यान्त्वा विश्वस्य भूतस्य प्रजायामस्याग्रतः। यस्यां भूतं समभवद् यस्यां विश्वमिदं जगत्। तामद्य गाथां गास्यामि या स्त्रीणामुत्तमं यशः॥1॥

इस मन्त्र को बोलके अपने जमणे हाथ की हस्ताञ्जलि से वधू की हस्ताञ्जलि पकड़के, वर—

ओ३म् तुभ्यमग्रे पर्यवहन्त्सूर्यां वहतुना सह।

पुनः पतिभ्यो जायां दा अग्ने प्रजया सह॥1॥

ओ३म् कन्यला पितृभ्यः पतिलोकं यतीयमप दीक्षामयष्ट। कन्या उत त्वया वयं धारा उदन्या इवातिगाहेमहि द्विषः॥2॥

इन मन्त्रों को पढ़ यज्ञकुण्ड की प्रदक्षिणा करके, यज्ञकुण्ड के पश्चिम भाग में पूर्व की ओर मुख करके थोड़ी देर दोनों खड़े रहें।

तत्पश्चात् पूर्वोक्त प्रकार कलश सहित यज्ञकुण्ड की प्रदक्षिणा कर, पुनः दो वार इसी प्रकार, अर्थात् सब मिलके 4 चार परिक्रमा करके, अन्त में यज्ञकुण्ड के पश्चिम में थोड़ा खड़ा रहके, उक्त रीति से तीन वार क्रिया पूरी हुए पश्चात् यज्ञकुण्ड के पश्चिम भाग में पूर्वाभिमुख वधू-वर खड़े रहें। पश्चात् वधू की मां अथवा भाई उस सूप को तिरछा करके उस में बाकी रही हुई धाणी को वधू की हस्ताञ्जलि में डाल देवे। पश्चात् वधू—

ओ३म् भगाय स्वाहा॥ इदं भगाय इदन्न मम॥

इस मन्त्र को बोलके प्रज्वलित अग्नि पर वेदी में उस धाणी की एक आहुति देवे। पश्चात् वर वधू को दक्षिण भाग में रखके कुण्ड के पश्चिम पूर्वाभिमुख बैठके—

ओ३म् प्रजापतये स्वाहा॥ इदं प्रजापतये इदन्न मम॥

इस मन्त्र को बोलके स्रुवा से एक घृत की आहुति देवे।

तत्पश्चात् एकान्त में जाके वधू के बंधे हुये केशों को वर—

ओ३म् प्र त्वा मुञ्चामि वरुणस्य पाशाद् येन त्वाबध्नात् सविता सुशेवः। ऋतस्य योनौ सुकृतस्य लोकेऽरिष्टां त्वा सह पत्या दधामि॥1॥

ओ३म् प्रेतो मुञ्चामि नामुतः सुबद्धाममुतस्करम्। यथेयमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रा सुभगासति॥2॥

इन दोनों मन्त्रों को बोलके प्रथम वधू के केशों को छोड़ना।

तत्पश्चात् सभामण्डप में आके ‘सप्तपदी-विधि’ का आरम्भ करे। इस समय वर के उपवस्त्र के साथ वधू के उत्तरीय वस्त्र की गांठ देनी, इसे ‘जोड़ा’ कहते हैं। वधू-वर दोनों जने आसन पर से उठके वर अपने दक्षिण हाथ से वधू की दक्षिण हस्ताञ्जलि पकड़के

यज्ञकुण्ड के उत्तरभाग में जावें। तत्पश्चात् वर अपना दक्षिण हाथ वधू के दक्षिण स्कन्धे पर रखके दोनों समीप-समीप उत्तराभिमुख खड़े रहें। तत्पश्चात् वर—

मा सव्येन दक्षिणमतिक्राम॥

ऐसा बोलके वधू को उस का दक्षिण पग उठवाके चलने के लिए आज्ञा देनी। और—

ओ३म् इष एकपदी भव सा मामनुव्रता भव विष्णुस्त्वा नयतु पुत्रान् विन्दावहै बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥

इस मन्त्र को बोलके वर अपने साथ वधू को लेकर ईशान दिशा में एक पग* चले और चलावे।

[*इस पग धरने का विधि ऐसा है कि वधू प्रथम अपना जमणा पग उठाके ईशानकोण की ओर बढ़ाके धरे। तत्पश्चात् दूसरे बायें पग को उठाके जमणे पग की पटली तक धरे। अर्थात् जमणे पग के थोड़ा सा पीछे बायां पग रक्खे। इसी को एक पगला गिणना। इसी प्रकार अगले छः मन्त्रों से भी क्रिया करनी। अर्थात् 1-1 मन्त्र से 1-1 पग ईशान दिशा की ओर धरना।]

ओ३म् ऊर्ज्जे द्विपदी भव सा मामनुव्रता भव विष्णुस्त्वा नयतु पुत्रान् विन्दावहै बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥

इस मन्त्र से दूसरा।

[*जो ‘भव’ के आगे मन्त्र में पाठ है, सो छः मन्त्रों के इस ‘भव’ पद के आगे पूरा बोलके पग धरने की क्रिया करनी।]

ओ३म् रायस्पोषाय त्रिपदी भव सा मामनुव्रता भव विष्णुस्त्वा नयतु पुत्रान् विन्दावहै बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥

इस मन्त्र से तीसरा।

ओ३म् मयोभवाय चतुष्पदी भव सा मामनुव्रता भव विष्णुस्त्वा नयतु पुत्रान् विन्दावहै बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥

इस मन्त्र से चौथा।

ओ३म् प्रजाभ्यः पञ्चपदी भव सा मामनुव्रता भव विष्णुस्त्वा नयतु पुत्रान् विन्दावहै बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥

इस मन्त्र से पांचवां।

ओ३म् ऋतुभ्यः षट्पदी भव सा मामनुव्रता भव विष्णुस्त्वा नयतु पुत्रान् विन्दावहै बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥

 इस मन्त्र से छठा। और—

ओ३म् सखे सप्तपदी भव सा मामनुव्रता भव विष्णुस्त्वा नयतु पुत्रान् विन्दावहै बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥

इस मन्त्र से सातवां पग चलना।

इस रीति से इन 7 सात मन्त्रों से 7 सात पग ईशान दिशा में चलाके वर-वधू दोनों गांठ बंधे हुए शुभासन पर बैठें।

तत्पश्चात् प्रथम से जो जल के कलश को लेके यज्ञकुण्ड के दक्षिण की ओर में बैठाया था, वह पुरुष उस पूर्व-स्थापित जलकुम्भ को लेके वधू वर के समीप आवे। और उस में से थोड़ा सा जल लेके वधू-वर के मस्तक पर छिटकावे। और वर—

ओ३म् आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता नऽ ऊर्जे दधातन।

महे रणाय चक्षसे॥1॥


ओ३म् यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः।

उशतीरिव मातरः॥2॥


ओ३म् तस्माऽ अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ।

आपो जनयथा च नः॥3॥


ओ३म् आपः शिवाः शिवतमाः शान्ताः शान्ततमास्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्॥4॥

इन 4 चार मन्त्रों को बोले। तत्पश्चात् वधू-वर वहां से उठके—

ओ३म् तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतं प्र ब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्॥1॥

इस मन्त्र को पढ़के सूर्य का अवलोकन करें।

तत्पश्चात् वर वधू के दक्षिण स्कन्धे पर अपना दक्षिण हाथ लेके उस से वधू का हृदय स्पर्श करके—

ओ३म् मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनु चित्तं ते अस्तु।

मम वाचमेकमना जुषस्व प्रजापतिष्ट्वा नियुनक्तु मह्यम्॥*

[*हे वधू ! (ते) तेरे (हृदयम्) अन्तःकरण और आत्मा को (मम) मेरे (व्रते) कर्म के अनुकूल (दधामि) धारण करता हूं। (मम) मेरे (चित्तमनु) चित्त के अनुकूल (ते) तेरा (चित्तम्) चित्त सदा (अस्तु) रहे। (मम) मेरी (वाचम्) वाणी को तू (एकमनाः) एकाग्रचित्त से (जुषस्व) सेवन किया कर। (प्रजापतिः) प्रजा का पालन करनेवाला परमात्मा (त्वा) तुझ को (मह्यम्) मेरे लिये (नियुनक्तु) नियुक्त करे।]

इस मन्त्र को बोले और उसी प्रकार वधू भी अपने दक्षिण हाथ से वर के हृदय का स्पर्श करके इसी ऊपर लिखे हुए मन्त्र को बोले*।

[*वैसे ही हे प्रिय वीर स्वामिन् ! आपका हृदय, आत्मा और अन्तःकरण मेरे प्रियाचरण कर्म में धारण करती हूं। मेरे चित्त के अनुकूल आपका चित्त सदा रहे। आप एकाग्र होके मेरी वाणी का जो कुछ मैं आपसे कहूं, उसका सेवन सदा किया कीजिए, क्योंकि आज से प्रजापति परमात्मा ने आप को मेरे आधीन किया है जैसे मुझ को आपके आधीन किया है, अर्थात् इस प्रतिज्ञा के अनुकूल दोनों वर्ता करें, जिस से सर्वदा आनन्दित और कीर्तिमान्, पतिव्रता और स्त्रीव्रत होके सब प्रकार के व्यभिचार, अप्रियभाषणादि को छोड़के परस्पर प्रीतियुक्त रहें।]

तत्पश्चात् वर वधू के मस्तक पर हाथ धरके—

ओ३म् सुमङ्गलीरियं  वधूरिमां      समेत  पश्यत ।

सौभाग्यमस्यै दत्त्वा याथास्तं वि परेतन॥

इस मन्त्र को बोलके कार्यार्थ आये हुए लोगों की ओर अवलोकन करना और इस समय सब लोग—

‘ओ३म् सौभाग्यमस्तु। ओ३म् शुभं भवतु॥’

इस वाक्य से आशीर्वाद देवें।

तत्पश्चात् वधू-वर यज्ञकुण्ड के समीप पूर्ववत् बैठके, पुनः दोनों 

ओं यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं यद्वा न्यूनमिहाकरम्। अग्निष्टत्स्विष्टकृद्विद्यात् सर्वं स्विष्टं सुहुतं करोतु मे। अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समर्द्धयित्रे सर्वान्नः कामान्त्समर्द्धय स्वाहा॥ इदमग्नये स्विष्टकृते इदं न मम॥ 

इस स्विष्टकृत् मन्त्र से होमाहुति अर्थात् एक आज्याहुति और 

 ओं भूरग्नये स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥

ओं भुवर्वायवे स्वाहा॥ इदं वायवे इदन्न मम॥

ओं स्वरादित्याय स्वाहा॥ इदमादित्याय इदन्न मम॥

ओं भूर्भुवः स्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः स्वाहा॥ इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः इदं न मम॥

इत्यादि 4 चार मन्त्रों से एक-एक से एक-एक आहुति करके 4 चार आज्याहुति देवें। और इस विवाह का विधि पूरा हुआ।


आशीर्वाद

स्वस्ति प्रजाभ्य परिपालयन्ताम्

न्यायेन मार्गेण महीं महीशाः।

वरकन्ययेभ्यो शुभमस्तु नित्यं

लोकाः समस्ताः सुखिनो भवन्तु।।


सर्वेषां स्वस्तिर्भवतु

सर्वेषां शान्तिर्भवतु।

सर्वेषां मङ्गलम्भवतु

लोकाः समस्ताः सुखिनो भवन्तु।।


सब का सविता कवि का कविता दिन का दिनकर रखवाला है।

रवि धरणी पत्नी पति का होता सम्बन्ध निराला है।।


जल से जलज, जलज से जल, जल जलज से शोभा है जलधर की।

निशि से शशि, शशि से निशि, निशि शशि से शोभा है अम्बर की।।


मणि से मणी, मणी से मणि, मणि मणी से शोभा है सिर की।

वर से वरणी, वरणी से वर, वर वरणी से शोभा है घर की।।


सत्यम् पन्था मनु चरेम अरु सूर्य चन्द्र सम चलें सदा।

सत्यमेव जयते जीवन के आदर्शों में ढ़लें सदा।।


चिरञ्जीव ……. के आचरण से गृह सौरभ सुमन बसन्त खिलें।

आयुष्मति ……. देवी सौभाग्यवती दुहिता आयु पर्यन्त मिलें।।



आयुष्कामः यशस्कामः पुत्रकामस्तथैव च। 

आरोग्यं धनकामश्च सर्वे कामा भवन्तु ते।।


सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः।

सफलाः सन्तु यजमानस्य कामाः।

पूर्णाः सन्तु यजमानस्य कामाः।


‘ओ३म् सौभाग्यमस्तु। 

ओ३म् शुभं भवतु॥’




विदाई समय उपदेश 

सुनले पुत्री ध्यान से वचन कहूं अनमोल। 

निज जीवन में पालना हृदय तराजू तोल।।

लाओगी आचरण में तब सुख मिले अपार। 

कलह कष्ट सब दूर हों सुखी रहे परिवार।। 

वाणी मीठी बोलना जो सबके मन भाय। 

प्रेम बड़े परिवार में कलह निकट नहीं आय।।

निज स्वामी को जानना देव गुरु भगवान। 

पिता समझकर स्वसुर की करना  उनका मान।। 

सेवा करना सास की अपनी मात समान ।

नित उनकी आशीष ले होगा तो कल्याण ।।

देवर को चित्त धारना निज अनुज समान ।

ननद जिठानी का कभी करना मत अपमान ।।

पर पुरुष को जानना भ्राता पिता समान ।

निश्चय ही तुम पाओगी दूध पुत धन धाम ।।

दया क्षमा और शीलता परसेवा और दान ।

जान इन्हें कर्तव्य तू करियो मत अभिमान ।।

धर्म ग्रन्थ पढ़ना सदा इन्हें न जाना भूल ।

पाश्चात्य सभ्यता पर कभी ध्यान न देना भूल।। 

पञ्च यज्ञ जो कर्म है इन्हें न जाना भूल ।

करना श्रद्धा प्रेम से नित्य समय अनुकूल ।।

नित्य प्रति उठकर मांगना ईश्वर से यह दान ।

सुखी बसें परिवार सब सन्तति हों गुणवान ।।

देता हूँ आशीष यह बेटी तुझको आज ।

जोड़ी ये चिरंजीव हो करे धर्म के काज।।

सुख सम्पत्ति और ज्ञान से भरा रहे भण्डार ।

विद्या बुद्धि तेज की वृद्धि रहे अपार ।।

सदा सुखी सम्पन्न हो यह जोड़ी अजर अमर। 

सदा बना रहे प्रेम सा धाम स्वर्ग सा तेरा हुआ।





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आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

                      (वैदिक प्रवक्ता)

महामन्त्री - आर्य वीर दल पश्चिमी उत्तर प्रदेश

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