मंगलवार, 17 नवंबर 2020

सामान्य प्रकरण

अथ ऋत्विग्वरणम्
यजमानोक्तिः—‘ओमावसोः सदने सीद’।
इस मन्त्र का उच्चारण करके ऋत्विज् को कर्म कराने की इच्छा से स्वीकार करने के लिए प्रार्थना करे।
ऋत्विगुक्तिः—‘ओं सीदामि’।
ऐसा कहके जो उस के लिये आसन बिछाया हो उस पर बैठे।
यजमानोक्तिः—‘अहमद्योक्तकर्मकर्मकरणाय भवन्तं वृणे’।
ऋत्विगुक्तिः—‘वृतोऽस्मि’।
ऋत्विजों के लक्षण—अच्छे विद्वान्, धार्मिक, जितेन्द्रिय कर्म करने में कुशल, निर्लोभ, परोपकारी दुर्व्यसनों से रहित, कुलीन, सुशील, वैदिक मत वाले, वेदवित् एक, दो, तीन अथवा चार का वरण करें।
जो एक हो तो उस का पुरोहित, और जो दो हों तो ऋत्विक्, पुरोहित और 3 तीन हों तो ऋत्विक्, पुरोहित और अध्यक्ष, और जो चार हों तो होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा।
इन का आसन वेदी के चारों ओर, अर्थात् होता का वेदी से पश्चिम आसन पूर्व मुख, अध्वर्यु का उत्तर आसन दक्षिणमुख, उद्गाता का पूर्व आसन पश्चिम मुख, और ब्रह्मा का दक्षिण आसन उत्तर में मुख होना चाहिए और यजमान का आसन पश्चिम में और वह पूर्वाभिमुख, अथवा दक्षिण में आसन पर बैठके उत्तराभिमुख रहे। इन ऋत्विजों को सत्कारपूर्वक आसन पर बैठाना, और वे प्रसन्नतापूर्वक आसन पर बैठें। और उपस्थित कर्म के विना दूसरा कर्म वा दूसरी बात कोई भी न करें।
और अपने-अपने जलपात्र से सब जने, जो कि यज्ञ करने को बैठे हों, वे इन मन्त्रों से तीन-तीन आचमन करें, अर्थात् एक-एक से एक-एक वार आचमन करें। वे मन्त्र ये हैं—
ओम् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा॥1॥ इस से एक।
ओम् अमृतापिधानमसि स्वाहा॥2॥ इस से दूसरा।
ओं सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा॥3॥ इस से तीसरा आचमन करके, तत्पश्चात् नीचे लिखे मन्त्रों से जल करके अंगों का स्पर्श करें—
ओं वाङ्म आस्येऽस्तु॥1॥ इस मन्त्र से मुख।
नसोर्मे प्राणोऽस्तु॥2॥ इस मन्त्र से नासिका के दोनों छिद्र।
ओम् अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु॥3॥ इस मन्त्र से दोनों आँखें।
ओं कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु॥4॥ इस मन्त्र से दोनों कान।
ओं बाह्वोर्मे बलमस्तु॥5॥ इस मन्त्र से दोनों बाहु।
ओम् ऊर्वोर्मऽओजोऽस्तु॥6॥ इस मन्त्र से दोनों जंघा और
ओम् अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु॥
इस मन्त्र से दाहिने हाथ से जल-स्पर्श करके मार्जन करना।

 

पूर्वोक्त समिधाचयन वेदी में करें। पुनः—
ओं भूर्भुवः स्वः॥
इस मन्त्र का उच्चारण करके ब्राह्मण क्षत्रिय वा वैश्य के घर से अग्नि ला, अथवा घृत का दीपक जला, उस से कपूर में लगा, किसी एक पात्र में धर, उस में छोटी-छोटी लकड़ी लगाके यजमान वा पुरोहित उस पात्र को दोनों हाथों से उठा, यदि गर्म हो तो चिमटे से पकड़कर अगले मन्त्र से अग्न्याधान करे। वह मन्त्र यह है—
ओं    भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा।
तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे॥
—यजुः अ॰ 3। मं॰ 5॥
इस मन्त्र से वेदी के बीच में अग्नि को धर, उस पर छोटे-छोटे काष्ठ और थोड़ा कपूर धर, अगला मन्त्र पढ़के व्यजन से अग्नि को प्रदीप्त करे—
ओम् उद्बुध्यस्वाग्ने प्रतिजागृहि त्वमिष्टापूर्त्ते संसृजेथामयं च।
अस्मिन्त्सधस्थेऽअध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत॥
—यजुः अ॰ 15। मं॰ 54॥
जब अग्नि समिधाओं में प्रविष्ट होने लगे, तब चन्दन की अथवा ऊपरलिखित पलाशादि की तीन लकड़ी आठ-आठ अंगुल की घृत में डुबा, उन में से एक-एक निकाल नीचे लिखे एक-एक मन्त्र से एक-एक समिधा को अग्नि में चढ़ावें। वे मन्त्र ये हैं—
ओम् अयं त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा॥
इदमग्नये जातवेदसे इदं न मम॥1॥       —इस मन्त्र से एक
ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्।
आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा॥ इदमग्नये इदं न मम॥2॥
—इस से, और
सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन।
अग्नये जातवेदसे स्वाहा॥ इदमग्नये जातवेदसे इदं न मम॥3॥
—इस मन्त्र से अर्थात् इन दोनों से दूसरी।

ओं तन्त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्धयामसि।
बृहच्छोचा यविष्ठ्य स्वाहा॥ इदमग्नयेऽङ्गिरसे इदं न मम॥4॥
—यजुः अ॰ 3। मं॰ 1, 2, 3॥
इस मन्त्र से तीसरी समिधा की आहुति देवें।
इन मन्त्रों से समिदाधान करके होम का शाकल्य, जो कि यथावत् विधि से बनाया हो, सुवर्ण, चांदी, कांसा आदि धातु के पात्र अथवा काष्ठ-पात्र में वेदी के पास सुरक्षित धरें। पश्चात् उपरिलिखित घृतादि जो कि उष्ण कर छान, पूर्वोक्त सुगन्ध्यादि पदार्थ मिलाकर पात्रों में रखा हो, उसमें से कम से कम 6 मासा भर घृत वा अन्य मोहनभोगादि जो कुछ सामग्री हो, अधिक से अधिक छटांक भर की आहुति देवें, यही आहुति का प्रमाण है।
उस घृत में से चमसा कि जिस में छः मासा ही घृत आवे ऐसा बनाया हो, भरके नीचे लिखे मन्त्र से पांच आहुति देनी—
ओम् अयं त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा॥
इदमग्नये जातवेदसे इदन्न मम॥5॥
तत्पश्चात् वेदी के पूर्व दिशा आदि और अञ्जलि में जल लेके चारों ओर छिड़कावे। उसके ये मन्त्र हैं—
ओम् अदितेऽनुमन्यस्व॥                 —इस मन्त्र से पूर्व।
ओम् अनुमतेऽनुमन्यस्व॥                —इस से पश्चिम।
ओं सरस्वत्यनुमन्यस्व॥                —इस से उत्तर। और—
ओं देव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय।
दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु॥
—यजुः अ॰ 30। मं॰ 1
इस मन्त्र से वेदी के चारों ओर जल छिड़कावे।
इसके पश्चात् सामान्यहोमाहुति गर्भाधानादि प्रधान संस्कारों में अवश्य करें। इस में मुख्य होम के आदि और अन्त में जो आहुति दी जाती हैं, उन में से यज्ञकुण्ड के उत्तर भाग में जो एक आहुति, और यज्ञकुण्ड के दक्षिण भाग में दूसरी आहुति देनी होती है, उस का नाम "आघारावाज्याहुति" कहते हैं। और जो कुण्ड के मध्य में आहुतियां दी जाती हैं, उन का नाम "आज्यभागाहुति" कहते हैं। सो घृतपात्र में से स्रुवा को भर अंगूठा, मध्यमा, अनामिका से स्रुवा को पकड़के—
ओम् अग्नये स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥
इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में।
ओं सोमाय स्वाहा॥ इदं सोमाय इदं न मम॥
इस मन्त्र से वेदी के दक्षिण भाग में प्रज्वलित समिधा पर आहुति देनी। तत्पश्चात्—
ओं प्रजापतये स्वाहा॥ इदं प्रजापतये इदन्न मम॥
ओम् इन्द्राय स्वाहा॥ इदमिन्द्राय इदन्न मम॥
इन दोनों मन्त्रों से वेदी के मध्य में दो आहुति देनी।
उसके पश्चात्=चार आहुति अर्थात् आघारावाज्यभागाहुति देके, जब प्रधान होम अर्थात् जिस-जिस कर्म में जितना-जितना होम करना हो करके, पश्चात् भी पूर्णाहुति पूर्वोक्त चार (आघारावाज्यभागा॰) देवें।
पुनः शुद्ध किये हुए उसी घृतपात्र में से स्रुवा को भरके प्रज्वलित समिधाओं पर व्याहृति की चार आहुति देवें—
ओं भूरग्नये स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥
ओं भुवर्वायवे स्वाहा॥ इदं वायवे इदन्न मम॥
ओं स्वरादित्याय स्वाहा॥ इदमादित्याय इदन्न मम॥
ओं भूर्भुवः स्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः स्वाहा॥ इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः इदं न मम॥
ये चार घी की आहुति देकर स्विष्टकृत् होमाहुति एक ही है, यह घृत की अथवा भात की देनी चाहिये। उस का मन्त्र—
ओं यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं यद्वा न्यूनमिहाकरम्। अग्निष्टत्स्विष्टकृद्विद्यात् सर्वं स्विष्टं सुहुतं करोतु मे। अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समर्द्धयित्रे सर्वान्नः कामान्त्समर्द्धय स्वाहा॥ इदमग्नये स्विष्टकृते इदं न मम॥
इस से एक आहुति करके, प्राजापत्याहुति करें। नीचे लिखे मन्त्र की मन में बोलके देनी चाहिए—
ओं प्रजापतये स्वाहा॥ इदं प्रजापतये इदं न मम॥
इस से मौन करके एक आहुति देकर चार आज्याहुति घृत की देवें।
परन्तु जो नीचे लिखी आहुति चौल, समावर्त्तन और विवाह में मुख्य हैं। वे चार मन्त्र ये हैं—

ओं भूर्भुवः स्वः। अग्न आयुंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः।
आरे बाधस्व दुच्छुनां स्वाहा॥ इदमग्नये पवमानाय इदन्न मम॥1॥
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्निर्ऋषिः पवमानः पाञ्चजन्यः पुरोहितः।
तमीमहे महागयं स्वाहा॥ इदमग्नये पवमानाय इदन्न मम॥2॥
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्ने पवस्व स्वपा अस्मे वर्चः सुवीर्यम्।
दधद्रयिं मयि पोषं स्वाहा॥ इदमग्नये पवमानाय इदन्न मम॥3॥
—ऋ॰ मं॰ 9। सू॰ 66। मं॰ 19-21॥
ओं भूर्भुवः स्वः। प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव। यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणां स्वाहा॥
इदं प्रजापतये इदन्न मम॥4॥      
—ऋ॰ मं॰ 10। सू॰ 121। मं॰ 10॥
इन से घृत की 4 चार आहुति करके "अष्टाज्याहुति" के निम्नलिखित मन्त्रों से सर्वत्र मङ्गल-कार्यों में 8 आठ आहुति देवें, परन्तु किस-किस संस्कार में कहां-कहां देनी चाहियें, यह विशेष बात उस-उस संस्कार में लिखेंगे। वे आठ आहुति-मन्त्र ये हैं—
ओं त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेळोऽव यासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषांसि प्र मुमुग्ध्यस्मत् स्वाहा॥ इदमग्नीवरुणाभ्याम् इदं न मम॥1॥
ओं स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ। अव यक्ष्व नो वरुणं रराणो वीहि मृळीकं सुहवो न एधि स्वाहा॥ इदमग्नीवरुणाभ्याम् इदं न मम॥2॥                    
—ऋ॰ मं॰ 4। सू॰ 1। मं॰ 4, 5॥
ओम् इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय।
त्वामवस्युराचके स्वाहा॥ इदं वरुणाय इदं न मम॥3॥                 
—ऋ॰ मं॰ 1। सू॰ 25। मं॰ 19॥
ओं तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः। अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा न आयुः प्र मोषीः स्वाहा॥
इदं वरुणाय इदं न मम॥4॥                    
—ऋ॰ मं॰ 1। सू॰ 24। मं॰ 11॥
ओं ये ते शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः।  तेभिर्नो अद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्क्काः स्वाहा॥ इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्क्केभ्यः इदं न मम॥5॥
ओम् अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमयाऽसि।
अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषजं स्वाहा॥
इदमग्नये अयसे इदं न मम॥6॥
ओम् उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय।
अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा॥
इदं वरुणायाऽऽदित्यायादितये च इदं न मम॥7॥
—ऋ॰ मं॰ 1। सू॰ 24। मं॰ 15॥
ओं भवतन्नः समनसौ सचेतसावरेपसौ।
मा यज्ञं हिंसिष्टं मा यज्ञपतिं
जातवेदसौ शिवौ भवतमद्य नः स्वाहा।
इदं जातवेदोभ्याम् इदं न मम॥8॥              
—यजुः अ॰ 5। मं॰ 3॥
सब   संस्कारों में मधुर स्वर से मन्त्रोच्चारण यजमान ही करे। न शीघ्र न विलम्ब से उच्चारण करे, किन्तु मध्य भाग जैसा कि जिस वेद का उच्चारण है, करे। यदि यजमान न पढ़ा हो तो इतने मन्त्र तो अवश्य पढ़ लेवे। यदि कोई कार्यकर्त्ता जड़ मन्दमति काला अक्षर भैंस बराबर जानता हो तो वह शूद्र है। अर्थात् शूद्र मन्त्रोच्चारण में असमर्थ हो तो पुरोहित और ऋत्विज् मन्त्रोच्चारण करें, और कर्म उसी मूढ़ यजमान के हाथ से करावें।
पुनः निम्नलिखित मन्त्र से पूर्णाहुति करें। स्रुवा को घृत से भरके—
ओं सर्वं वै पूर्णं स्वाहा॥
इस मन्त्र से एक आहुति देवें। ऐसे दूसरी और तीसरी आहुति देके, जिस को दक्षिणा देनी हो देवें, वा जिस को जिमाना हो जिमा, दक्षिणा देके सब को विदाकर स्त्रीपुरुष हुतशेष घृत, भात वा मोहनभोग को प्रथम जीमके पश्चात् रुचिपूर्वक उत्तमान्न का भोजन करें।

मङ्गलकार्य
अर्थात् गर्भाधानादि संन्यास-संस्कार पर्यन्त पूर्वोक्त और निम्नलिखित सामवेदोक्त वामदेव्यगान अवश्य करें। वे मन्त्र ये हैं—
ओं भूर्भुवः स्वः। कया नश्चित्र आ भुवदूती सदावृधः सखा।
कया शचिष्ठया वृता॥1॥
ओं भूर्भुवः स्वः। कस्त्वा सत्यो मदानां मंहिष्ठो मत्सदन्धसः। दृडा चिदारुजे वसु॥2॥
ओं भूर्भुवः स्वः। अभी षु णः सखीनामविता जरितॄणाम्।
शतं भवास्यूतये॥3॥
महावामदेव्यम्
काऽ५या। नश्चा३ यित्रा३ आभुवात्। ऊ। ती सदावृधः। सखा। औ३ होहायि। कया२३ शचायि। ष्ठयौहो३। हुम्मा२। वाऽ२र्तो३ऽ५हायि॥ (1)॥
काऽ५स्त्वा। सत्यो३मा३दानाम्। मा। हिष्ठोमात्सादन्ध। सा औ३हो हायि। दृढा २ ३ चिदा। रुजौहो३। हुम्मा२। वाऽ३सो ३ ऽ ५ हायि॥ (2)॥
आऽ५भी। षुणाः३ सा३खीनाम्। आ। विता जरायि तॄ। णाम्। औ २ ३ हो हायि। शता२३म्भवा। सियौहो३ हुम्मा२। ताऽ२ यो३ऽ५हायि॥ (3)॥
—साम॰ उत्तरार्चिके। अध्याये 1। खं॰ 3। मं॰ 1, 2, 3॥
यह महावामदेव्यगान होने के पश्चात् गृहस्थ स्त्रीपुरुष कार्यकर्त्ता सद्धर्मी लोकप्रिय परोपकारी सज्जन विद्वान् वा त्यागी पक्षपात रहित संन्यासी, जो सदा विद्या की वृद्धि और सब के कल्याणार्थ वर्तनेवाले हों उनको नमस्कार, आसन, अन्न, जल, वस्त्र, पात्र, धन आदि के दान से उत्तम प्रकार से यथासामर्थ्य सत्कार करें। पश्चात् जो कोई देखने ही के लिये आये हों, उन को भी सत्कारपूर्वक विदा कर दें। अथवा जो संस्कार-क्रिया को देखना चाहें, वे पृथक्-पृथक् मौन करके बैठे रहें, कोई बातचीत हल्ला-गुल्ला न करने पावें। सब लोग ध्यानावस्थित प्रसन्नवदन रहें। विशेष कर्मकर्त्ता और कर्म करानेवाले शान्ति धीरज और विचारपूर्वक क्रम से कर्म करें और करावें।
यह सामान्यविधि अर्थात् सब संस्कारों में कर्त्तव्य है॥

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