मंगलवार, 12 मई 2020

आध्यात्मिक चर्चा - २०

आध्यात्मिक चर्चा - २०
                                             आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

         [ आज की चर्चा को पढ़कर आपको यह लगेगा कि वैदिक सिद्धान्तों के विरुद्ध व्यवहार करने से समाज कितनी भयंकर स्थिति में आगया है और अभी भी नहीं सभला या नहीं सभाला गया तो कितने भयंकर परिणाम आयेंगे।
        समाज की इस विनाशकारी स्थिति को देखकर हम सभी को यह भी विचार करना पड़ेगा कि वैदिक सिद्धान्तों के प्रचार के लिए ( जिससे समाज का कल्याण हो सके ) आर्य समाज की कितनी बड़ी आवश्यकता है। ]


       कर्मों का फल जाति, आयु और भोग के रूप में प्राप्त होता है। पिछली चर्चा में आयु और भोग पर थोड़ा विचार विमर्श लिखा, ( भोग पर विस्तार से आगे लिखेंगे ) आज जाति पर लिखते हैं। 

        प्रथम तो यह जानना आवश्यक है कि वर्तमान में जिसके के लिए जाति शब्द प्रयोग किया जा रहा है वह जाति नही हैं बल्कि वैदिक वर्ण व्यवस्था का विकृत स्वरूप है। अर्थात् जाट, गुर्जर, यादव, पण्डित आदि जाति नहीं है यह तो प्राचीन वर्ण व्यवस्था ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य आदि का बिगड़ा हुआ रूप है या वंश परम्परायें हैं। प्राचीन काल में वैदिक मर्यादाओं के कारण योग्यता और कर्म के आधार पर वर्ण प्रदान किये जाते थे जो आज कल जन्म के आधार पर माने जाने लगे हैं, जो कि ठीक नहीं है इससे ऊंच नीच का भेदभाव जैसे अनेक दोष समाज में उपस्थित होकर मानवता की बहुत हानि होती है/होरही है।

      महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज जाति के सन्दर्भ में आर्योद्देश्यरत्नमाला में लिखते है - "जो जन्म से लेकर मरण पर्यन्त बनी रहे, जो अनेक व्यक्तियों में एक रूप से प्राप्त हो, जो ईश्वरकृत अर्थात् मनुष्य, गाय, अश्व और वृक्षादि समूह हैं, वे 'जाति' शब्दार्थ से लिये जाते हैं। 

             न्याय सूत्र यही कहता है -
“समानप्रसवात्मिका जाति:” अर्थात् जिनके जन्म का मूल स्त्रोत सामान हो (उत्पत्ति का प्रकार एक जैसा हो) वह एक जाति बनाते हैं ।

        हर जाति विशेष के प्राणियों में शारीरिक अंगों की समानता पाई जाती है। एक जन्म-जाति दूसरी जाति में कभी भी परिवर्तित नहीं हो सकती है और न ही भिन्न जातियां आपस में सन्तान उत्त्पन्न कर सकती हैं। अतः जाति ईश्वर निर्मित है। जैसे विविध प्राणी हाथी, सिंह, खरगोश इत्यादि भिन्न-भिन्न जातियाँ हैं। इसी प्रकार संपूर्ण मानव समाज एक जाति है।

        शब्दव्युत्पत्ति की दृष्टि से जाति शब्द संस्कृत की 'जनि' (जन) धातु में 'क्तिन्‌' प्रत्यय लगकर बना है।
अर्थात् जाति का अर्थ है उद्भव के आधार पर किया गया वर्गीकरण | 
         इन परिभाषाओं और शब्दव्युत्पत्ति से स्पष्ट है कि 'जाति' शब्द का प्रयोग प्राचीन समय में विभिन्न मानवजातियों के लिये नहीं होता था।

कृपया ध्यान दें -
सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः।
( सति मूले ) अविद्यादि क्लेशों के विद्यमान रहने पर ( तद्-विपाकः ) उस कर्म समुदाय का फल ( जाति-आयुः-भोगाः ) जाति, आयु और भोग होते हैं। अर्थात् कर्माशय ( कर्म समुदाय ) के तीन फल हैं - जाति, आयु, भोग।
जाति = मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़े, मकौड़े आदि का शरीर। 

       यहां बहुत अच्छे से यह समझना है कि योग दर्शन में जाति का अर्थ शरीर से है मनुष्य, पशु आदि। और यह भी पूर्णतया स्पष्ट है कि यह जाति ( मनुष्य, पशु, पक्षी  आदि का शरीर ) भी आत्मा को कर्मों के आधार प्राप्त होता है। यह विषय बहुत विस्तार चाहता है इसीलिए विषय को स्पष्ट करने के लिए यह जानना भी बहुत आवश्यक है कि इसके बारे में संसार में क्या क्या मान्यतायें प्रचलित हैं और उनसे क्या क्या हानि हो सकती हैं।

         आप संसार के विभिन्न लोगों से पूछिये कि मरने के बाद क्या होगा ( शरीर के सन्दर्भ में ) ? अर्थात् किसका शरीर मिलेगा? या आत्मा किस योनि में जायेगा ? तो आपको विभिन्न उत्तर मिलेंगे। आज आप उनका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कीजिए तब आपको पता चलेगा कि वैदिक सिद्धान्तों की कितनी आवश्यकता है।

० एक मानसिकता = संसार में कुछ लोग ऐसे है जो यह कहते हैं कि आत्मा को प्रत्येक बार एक जैसा ही शरीर मिलता है अर्थात् यदि आत्मा ने मनुष्य का शरीर छोड़ा है तो अगले बार भी उसे मनुष्य का शरीर ही मिलेगा। और मनुष्य में भी पुरुष का शरीर छोड़ा है तो पुरुष का और यदि स्त्री का शरीर छोड़ा है तो स्त्री का शरीर ही प्राप्त होगा। कुत्ते का शरीर छोड़ा है कुत्ते का शरीर ही मिलेगा। पक्षी का शरीर छोड़ा है तो पक्षी का ही शरीर मिलेगा।
         आप चिंतन करेंगे यहां पर अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं। जैसे - 
- कोई आत्मा मनुष्य शरीर को पाकर जीवन भर पाप कर्म ही करता रहे तो भी क्या उसे अगले बार मनुष्य का शरीर प्राप्त होगा ? 
      अगला प्रश्न और भी मनोवैज्ञानिक है यदि कोई मनुष्य ऐसा विचार कर ले, ऐसा पूर्ण विश्वास कर ले, कि मैं अगले बार निश्चित रूप से मनुष्य ही बनुंगा तो वह शेष जीवन में कैसे ( पाप या पुण्य ) काम करेगा ?
         इस प्रश्न का मनोवैज्ञानिक उत्तर ढूंढा जाय तो उत्तर मिलेगा कि जो मनुष्य अपने मस्तिष्क में ऐसा निश्चय कर लेगा कि मैं हर बार मनुष्य ही मनुंगा तो वह शेष जीवन में पापाचरण ही करेगा। क्योंकि पुण्य कर्म का तो कोई औचित्य ही नहीं रह जायेगा।

० दूसरी मानसिकता = संसार में कुछ लोग ऐसे हैं जो यह मानते हैं आत्मा शरीर को छोड़कर जाता है तो चौरासी लाख योनियों के बाद फिर मनुष्य का शरीर प्राप्त करता है अर्थात् अभी अगले बार मनुष्य का शरीर प्राप्त नहीं होगा पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद फिर जाकर मनुष्य का शरीर प्राप्त होगा। आइए इस मानसिकता का भी विश्लेषण करते हैं। यहां भी कुछ प्रश्न उपस्थित होते हैं। जैसे -
     जो आत्मा मनुष्य शरीर को पाकर जीवन भर पुण्य कर्म ही करता रहे तो भी क्या उसे अगले बार मनुष्य का शरीर प्राप्त नहीं होगा ?
   अगला प्रश्न मनोवैज्ञानिक है। यदि कोई मनुष्य ऐसा निश्चय कर ले कि कैसे भी मैं अगले बार मनुष्य नहीं बनूंगा तो वह शेष जीवन में पाप करेगा या पुण्य करेगा ?
     इस प्रश्न के उत्तर में विश्लेषणात्मक रूप से कहा जा सकता है कि जो मनुष्य ऐसा मान बैठता है कि मैं अगले बार मनुष्य का शरीर प्राप्त नहीं करूंगा या मनुष्य नहीं बनूंगा तो वह निश्चित रूप से शेष जीवन में पाप ही करेगा। क्योंकि यहां भी पुण्य कर्मों का कोई औचित्य नहीं रह जाता है।
      ऐसी ही अनेक मान्यतायें संसार में प्रचलित है। यहां एक मान्यता का और उल्लेख करते हैं।
० अगली मानसिकता = ऐसे भी लोग संसार में हैं जो यह मानते हैं कि अगला तो जन्म होता ही नहीं है। यदि उनसे यह पूछा जाए कि अगला जन्म नहीं होता है तो क्या होता है ? कुछ तो होता होगा ? इस पर उनका कहना है कि या तो जन्नत ( स्वर्ग ) मिलता है या दोजख ( नरक ) मिलता है। यदि उनसे फिर प्रश्न किया जाए की जन्नत या दोजख कैसे मिलता है? किस आधार पर मिलता है? तो उनका कहना है कि जो हमारी बात मानते हैं उनको जन्नत मिलता है, जो हमारी बात नहीं मानते हैं उनको दोजख मिलता है।
   अब आप स्वयं ही निर्णय कीजिए कि इन बातों को मनोवैज्ञानिक अध्ययन करने पर कितने विनाशकारी परिणाम आते हैं। लोग जन्नत पाने के लिए पशुओं और अन्य जीवों के साथ साथ मनुष्यों को भी मार देते हैं। 

          उपरोक्त विचारधाराओं के समझने के बाद आपके मन में प्रश्न होगा कि सही विचारधारा क्या है? सैद्धान्तिक रूप से क्या सही है? इस पर आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज ने सत्यार्थ प्रकाश में वेद का प्रमाण देते हुए उल्लेख किया है - 

द्वे सृती अशृणवं पितृणामहं देवानामुत मर्त्यानाम्।
ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरं च। ( यजुर्वेद १९/४७ )
      इस संसार में हम दो प्रकार के जन्मों को सुनते हैं। एक मनुष्य शरीर का धारण करना और दूसरा नीच गति से पशु, पक्षी, कीट, पतङ्ग, वृक्ष आदि का होना। 
      इसमें मनुष्य शरीर के तीन भेद हैं - एक पितृ अर्थात् ज्ञानी होना, दूसरा देव अर्थात् सब विद्याओं को पढ़कर विद्वान होना, तीसरा मर्त्य अर्थात् साधारण मनुष्य का शरीर धारण करना। 
    इनमें प्रथम गति अर्थात् मनुष्यशरीर पुण्यात्माओं और पुण्यपाप तुल्य वालों को होता है, और दूसरा जो जीव अधिक पाप करते हैं उनके लिये है। इन्हीं भेदों से सब जगत के जीव अपने अपने पुण्य और पापों के फल भोग रहे हैं। जीवों को माता और पिता के शरीर में प्रवेश करके जन्मधारण करना, पुनः शरीर को छोड़ना, फिर जन्म को प्राप्त होना, बारम्बार होता है‌।
 यहां पूर्णतया स्पष्ट है कि -
पुण्य अधिक = मनुष्य शरीर
पुण्य पाप समान = मनुष्य शरीर
पाप अधिक = मनुष्येतर शरीर अर्थात् मनुष्य शरीर को छोड़कर अन्य शरीर ( पशु, पक्षी, कीट, पतङ्गादि )

        इस मान्यता पर आप कितने भी प्रश्न करेंगे तो उत्तर ठीक ही आयेगा।
शरीर कर्मों के आधार पर प्राप्त होगा। हर बार यदि पुण्य कर्म अधिक होंगे तो हर बार मनुष्य का शरीर मिल जायेगा। यदि पाप अधिक होंगे तो मनुष्य का शरीर नहीं मिलेगा। इसीलिए सभी पुण्य कर्म करने के लिए ही प्रयास करेंगे। पाप कर्मों से बचेंगे। इसी स  संसार का कल्याण होगा। इसीलिए इसी सिद्धान्त के प्रचार की महती आवश्यकता है।

क्रमशः ...

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