बुधवार, 25 दिसंबर 2019

आध्यात्मिक चर्चा - ६

आध्यात्मिक चर्चा - ६

आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

       पिछली चर्चा में हमने समझा कि आत्मा को कर्म करने के लिए साधन के रूप में शरीर प्राप्त होता है। आत्मा रथी है, शरीर रथ है, बुद्धि सारथी है, मन लगाम है, दश इन्द्रियाँ घोड़े हैं।
यहां अभी हम केवल इस प्रसंग को विस्तार देते है कि शरीर प्रकृति से बनता है और इसको समझने के लिए रथ के स्थान पर (आज के समय में) गाड़ी को लेते हैं ( रथ = गाड़ी ) ।
       हम गाड़ी खरीद कर लाते हैं, चलाते रहते हैं, खराव हो जाने पर मैकेनिक से ठीक करा लेते हैं और फिर चलाते रहते हैं। लेकिन एक दिन ऐसा भी आता है कि जब मैकेनिक कहता है कि अब आपकी गाड़ी ठीक नहीं होगी बहुत पुरानी हो गयी है या ठीक होने लाइक नही है अब इसे  बेचकर नयी ले लीजिए। पुरानी गाड़ी कबाडे़ वाले को देदेते हैं और नयी गाड़ी खरीद लेते हैं । अभी हम नयी गाड़ी के बारे में बात नही करेंगे , अभी देखते हैं पुरानी गाड़ी का क्या होगा। कबाड़े वाला गाड़ी को खोलकर उसके सभी हिस्सों को धातुओं के अनुसार अलग अलग इकट्ठा करता है। लोहा एक तरफ, प्लास्टिक एक तरफ, एल्मोनियम आदि धातुओं को अलग अलग रखता है। फिर कोई तो उन धातुओं को भट्टियों में डालकर शुद्ध करता है और उस उस शुद्ध धातुओं से नया सामन या गाड़ियों के पुर्जे बनाये जाते हैं । अर्थात् गाड़ी की सभी धातुएँ पुनर्चक्रण में काम आती हैं। 
      अब हम शरीर को देखेंगे कि यह शरीर भी गाड़ी की तरह से है क्या? तो हम पायेंगे कि बिल्कुल गाड़ी की तरह ही है। 
        यह शरीर भी खरीदा जाता है इसे खरीदने के लिए कर्म रूपी धन देना पड़ता है। अर्थात् हमारे कर्मों के आधार पर ही हमें शरीर प्राप्त होता है ।(इसकी चर्चा विस्तार से आगे लिखेंगे।) इस शरीर को चलाते रहते हैं तथा खराब होने पर इसे भी गाड़ी की तरह मैकेनिक (डाक्टर) से ठीक कराते रहते हैं । एक दिन इसका मैकेनिक - डाक्टर भी हाथ खड़े कर देता है, और कहता है कि इसे ले जाओ अब यह ठीक नही होगा/होंगे ( वो कोई भी हो सकते हैं हमारे सम्बन्धी) तब हम उन्हें अपने घर ले आते हैं । 
      यहां एक बात बताना बहुत ही आवश्यक है = वृद्धावस्था में उपरोक्त स्थिति बनने पर - जिनकी सन्तान संस्कारित होती है तो अपने वृद्धों की सेवा करती है तथा जिनकी सन्तान संस्कारित नही होती है उनको इस स्थिति से गुजरने पर बहुत कष्ट होता है। इसीलिए वक्त रहते सन्तान को संस्कारित अवश्य करना चाहिए। अपनी बात को और स्पष्ट करने के लिए यहाँ हम दो उदाहरण रखते हैं -

१. एक वृद्ध व्यक्ति ऐसी स्थिति में आगये जिनके लिए डाक्टर ने कह दिया कि अब हम इनका उपचार नही कर सकते, इनको घर ले जाइए और इनकी सेवा कीजिए ये ऐसी स्थिति में हैं कि कुछ दिन के ही हैं। उनके पुत्र उनको घर पर ले गये और सेवा तो पहले से ही कर रहे थे लेकिन अब उन्होंने अपने पिता की सेवा में कुछ ऐसा किया कि उदाहरण बन गया और सभी देखने वालों ने कहा कि हे परमेश्वर ! ऐसी सन्तान सभी को देना। उन्होंने अपने पिता जी की सेवा में घर पर ही वे सारे साधन एकत्रित कर लिए जो एक अच्छी गुणवत्ता वाले चिकित्सालय के आई०सी०यू० में होते हैं, दो डाक्टर लगाये जो एक एक करके दिन रात आवश्यक सेवा देते रहे, इसके साथ साथ पुत्र, पुत्रवधू तथा पुत्रियाँ बारी-बारी से हर समय पिता की सेवा में लगे रहे। परिवारी जनों का बस एक ही उद्देश्य था कि पिता जब तक रहें सुख से रहें। इस उदाहरण को बताने में मुझे भी बहुत अच्छा लगता है क्योंकि यह परिवार मेरे भी निकट है , मेरा यजमान परिवार है उनका नाम है श्री रविन्द्र सिंह चौहान। इनके लिए परमेश्वर से प्रार्थना है कि सदा सुखी रहें, हमेशा वेद मार्ग के अनुगामी रहें।

२. दूसरा उदाहरण नेपाल का है - इस उदाहरण को पढ़कर आप कहेंगे कि हे प्रभो ऐसी सन्तान किसी को नही देना। नेपाल के एक चिकित्सालय में एक फोन आता है कि नौकर के साथ के एक वृद्ध व्यक्ति आरहे हैं उनकी चिकित्सा कीजिए । चिकित्सक वृद्ध व्यक्ति का उपचार आरम्भ कर देते हैं अवस्था कुछ ऐसी थी उनकी दो दिन बाद मृत्यु हो गयी । ध्यान देने की बात यह है जिसने चिकित्सालय में वृद्ध का उपचार कराने के लिए फोन किया था वह उन वृद्ध का बेटा ही है लेकिन देखने तक नहीं आता है और अपने पिता की मृत्यु के बाद भी डाक्टर को फोन पर कहता है कि इनकी अन्त्येष्टि भी करा देना हम आपको उसका भी पैसा देदेंगे।
समाज में संस्कार हीनता बढ़ती जा रही है इसके बढ़ते अभी और अधिक भयानक परिमाण सामने आयेंगे। समाज में नैतिकता का वातावरण तैयार करने के लिए केवल संस्कार की साधन हैं।
        आइये फिर हम अपने प्रसंग पर आते हैं - एक दिन शरीर को छोडकर आत्मा जब चला जाता है तब दो प्रश्न उपस्थित होते हैं कि आत्मा कहां गया? और इस मृत शरीर का क्या करें? ( आत्मा अपने कर्मों के आधार पर परमेश्वर की न्याय व्यवस्था में आगे गति करता है या तो नये शरीर को प्राप्त करता है या मुक्ति में चला जाता है। जिसकी चर्चा आगे करेंगे ।) मृत शरीर के लिए वेद में आदेश है - भस्मान्तं शरीरं (यजु०) मृत शरीर का अन्त्येष्टि कर्म करना होता है इसे ही नरमेध, पुरुषमेध, नरयाग, पुरुषयाग तथा दाह कर्म कहते हैं। मृत शरीर को अग्नि में रख दिया जाता है और अग्नि इस शरीर के सभी पांचों तत्वों (अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश)  को अलग अलग कर देती है । अग्नि अपना भाग ले लेती है, जल वाष्प बनाकर अलग कर देती है , वायु का भाग वायु में मिल जाता है, आकाश का भाग आकाश में मिल जाता है तथा जो पड़ा रह जाता है वह भूमि का भाग है इसीलिए प्राचीन काल में अस्थियों को भूमि में गाड़ा जाता था । अस्थियों को नदियों में विसर्जित करना कुप्रथाहै। इसीलिए एक बात समाज में प्रचलित है कि अमुख व्यक्ति पंच तत्व में विलीन हो गया ।
         अस्थियों से आत्मा का अब कोई सम्बन्ध नहीं रहा जाता है। अस्थियों के नदी में विसर्जित करने से आत्मा की गति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। आत्मा तो अपने कर्मों के आधार पर आगे की गति करता है । यदि ऐसा हो कि केवल अस्थियों के नदियों में विसर्जित करने से ही मुक्ति मिल जाय तो किये गये कर्मों का क्या औचित्य रह जायेगा।

क्रमशः ...

बुधवार, 18 दिसंबर 2019

आध्यात्मिक चर्चा - ५

अध्यात्मिक चर्चा - ५
आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री


पिछली चर्चा में हमने समझा कि आत्मा (जीव) एक अविनाशी और अनादि तत्व है इसका जन्म-मृत्यु नहीं होता है । आत्मा परमात्मा से पृथक सत्ता है। शरीर और आत्मा के संयोग का नाम जन्म कहलाता है और शरीर और आत्मा के साथ साथ चलने का नाम जीवन है तथा शरीर और आत्मा के वियोग का नाम मृत्यु है । शरीर छोड़ने पर आत्मा की क्या गति होती है इस पर आगे चर्चा करेंगे । इस चर्चा में अभी हम शरीर को समझेंगे।
     शरीर के बारे में सामान्यतः एक बात प्रचलित है कि शरीर तो पांच तत्वों - अग्नि, जल , वायु, पृथ्वी और आकाश से बना हुआ है। 
शरीर को ठीक से समझने के लिए आइये कुछ चिन्तन करते हैं। शरीर विज्ञान के ज्ञाता प्राचीन आयुर्वेदाचार्य महर्षि चरक ने अपने शिष्यों को शरीर के विषय में समझाने के लिए एक इतिहास में हुई शरीर विज्ञान की चर्चा सुनाई । एक बार हिमालय के पास हुई परिषद में अनेक महर्षि सम्मिलित हुये। परिषद का विषय - "शरीर और शरीर के रोगों का कारण क्या है?"  था। तथा परिषद के अध्यक्ष भगवान आत्रेय बनाये गये। सर्व प्रथम काशीपति वामक ने उपरोक्त प्रश्न को सभा में रखा जिसपर विभिन्न विद्वानों ने अपने विचार दिये। जिसमें ऋषि कांकायन ने कहा कि शरीर और शरीर के रोगों का कारण परमात्मा है। परमात्मा ही शरीर देता है तथा वही स्वास्थ्य और रोग देता है। इस पर महर्षि भरद्वाज ने इसका कारण स्वाभाविक होना बताया। भद्रकाप्य ने कर्म को, ऋषि हिरण्याक्ष ने धातुओं को तथा ऋषि कौशिक ने माता-पिता को शरीर और शरीर के रोगों का कारण कहा। सभी के विचारों को सुनने के बाद सभाध्यक्ष महर्षि भगवान आत्रेय ने काशिपति के उक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि केवल आहार ही शरीर का कारण होता है और अहितकर आहार का उपयोग ही रोग और रोगों की वृद्धि का कारण होता है। 
       यह बात अधिक ध्यान देने योग्य है कि शरीर आहार (भोजन) से बना है । इस बात पर पुनः शिष्यों ने आचार्य चरक से पूछा कि शरीर आहार से कैसे बना है तो उत्तर में आचार्य चरक कहते हैं कि शरीर का निर्माण माता के गर्भ में होता है और बहुत ही छोटा होता है (लगभग सरसों के दाने के समान छोटा) यह छोटा सा शरीर माता और पिता के रज और शुक्र से मिलकर बनता है तथा रज और शुक्र आहार (भोजन) से बनता है। 
शरीर का विज्ञान समझाते हुए आचार्य कहते हैं कि आहार( जो भी भोजन के रूप में ग्रहण किया जाता है ) से रस बनता है, रस से रक्त बनता है, रक्त से मांस बनता है, मांस से मेद बनता है, मेद से अस्थि (हड्डी) बनती है, अस्थि से मज्जा तथा मज्जा से रज और वीर्य बनता है जिससे सन्तान का शरीर बनता है।
      माता के गर्भ में सन्तान के शरीर का विकास माता के किये भोजन से होता है। परमेश्वर की व्यवस्था में गर्भस्थ शिशु की नाभि माता की नाभि से जुड़ जाती है और उसी से उसका पोषण होता है। माता के किये भोजन का एक हिस्सा रस बनकर गर्भस्थ शिशु का निर्माण करता है।
      जन्म के बाद कुछ समय तक शिशु का पोषण माता का दुग्ध पान करके होता है और वह दुग्ध माता के आहार से बनता है। हमारा शरीर भोजन से ही बनता है और भोजन से ही चलता है।
   अभी तक हमने समझा कि शरीर का निर्माण भोजन से हुआ है और अब समझेंगे कि भोजन का निर्माण पांच तत्वों से ही होता है। भोजन में ठोस पदार्थ पृथ्वी का हिस्सा है, तरल पदार्थ जल का है, उर्जा अग्नि का, गैसीय पदार्थ वायु का व खाली स्थान आकाश का हिस्सा है। यदि हम दर्शन की बात करें तो कहा जा सकता है कि भोजन में जो गन्ध है वह पृथ्वी से आती है क्योंकि "गन्धवती पृथ्वी " अर्थात् पृथ्वी का गुण है गन्ध, और रस जल से आया है, रंग अग्नि का गुण है । अर्थात् शरीर भोजन से बना है और भोजन प्राकृतिक तत्वों से बना है।
          लेकिन यहां एक बात और ध्यान देने योग्य है कि पांचों तत्व तो मिट्टी और लकड़ी आदि में भी हैं तो क्या हम मिट्टी या लकड़ी आदि खा सकते है शरीर बनाने या चलाने के लिए? तो इसका उत्तर होगा कि नहीं। जबकि कुछ जीव परमेश्वर ने ऐसे भी बनाये है जो मिट्टी या लकड़ी आदि खाकर जीवन चलाते हैं। इस विषय में यहां तो बस इतना ही कहेंगे कि मनुष्य को बहुत अच्छे से यह जानकर कि क्या खाना चाहिए और क्या नही खाना चाहिए हितकारी भोजन ही करना चाहिए । जिससे हमें हानि हो वह पादार्थ सेवन नहीं करना चाहिए (इस विषय पर विस्तार से कभी चर्चा करेंगे)‌।
   अभी हमने आयुर्वेद के आधार पर यह जाना कि हमारा शरीर भोजन से बना है और भोजन पांच तत्वों - अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश से मिलकर बना है।
     यमाचार्य शरीर के विषय में नचिकेता को समझाते हैं - 

आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।

इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी, समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, रथ हांकने वाला, और मन को लगाम समझो ।

इंद्रियाणि ह्यानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।।

मनीषियों, विवेकी पुरुषों, ने इंद्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इंद्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं, इन्द्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने भोग करने वाला बताया है ।
प्राचीन भारतीय विचारकों का चिंतन प्रमुखतया आध्यात्मिक प्रकृति का रहा है । ऐहिक सुखों के आकर्षण का ज्ञान उन्हें भी रहा ही होगा । किंतु उनके प्रयास रहे थे कि वे उस आकर्षण पर विजय पायें । उनकी जीवन-पद्धति आधुनिक काल की पद्धति के विपरीत रही । स्वाभाविक भौतिक आकर्षण से लोग स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करें ऐसा वे सोचते रहे होंगे और उपनिषद् आदि ग्रंथ उनकी इसी सोच को प्रदर्शित करते हैं ।
उनके दर्शन के अनुसार अमरणशील आत्मा शरीर के द्वारा इस भौतिक संसार से जुड़ी रहती है और यहां के सुख-दुःखों का अनुभव मन के द्वारा करती हैं । मन का सम्बन्ध बाह्य जगत् से इन्द्रियों के माध्यम से होता है । दर्शन शास्त्र में दस इन्द्रियों की व्याख्या की जाती हैः पाँच ज्ञानेन्द्रियां (आंख, कान, नाक, जीभ तथा त्वचा) और पाँच कर्मेन्द्रियां (हाथ, पांव, मुख, मलद्वार तथा उपस्थ यानी जननेद्रिय, पुरुषों में लिंग एवं स्त्रियों में योनि)।  उक्त श्लोकों के अनुसार क्या कर्तव्य है और क्या नहीं का निर्धारण बुद्धि करती है और मन तदनुसार इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है । इन श्लोकों का सार यह है: भौतिक भोग्य विषयों रूपी मार्गों में विचरण करने वाले इंद्रिय रूपी घोड़ों पर मन रूपी लगाम के द्वारा बुद्धि रूपी सारथी नियंत्रण रखता है ।
यमाचार्य ने शरीर को रथ कहा है इससे अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं जैसे - 
आत्मा को रथ प्राप्त कैसे होता है? 
रथ बनता कैसे है? 
रथ चलता कैसे है? 
रथ से जाना कहां हैं? 
इन प्रश्नों के उत्तर में अभी तो बस इतना ही कहना होगा (विस्तार से आगे चर्चा होगी)- 
आत्मा को रथ (शरीर) कर्मों के आधार पर प्राप्त होता है।
रथ (शरीर) प्राकृतिक पदार्थों से बनता है।
रथ (शरीर) को आत्मा चलाती है। आत्मा बुद्धि पूर्वक मन को इन्द्रिय के साथ जोड़कर कर्म करती है। शरीर साधन है।
रथ (शरीर) रूपी साधन से आत्मा को परमेश्वर के आनन्द को प्राप्त करना है । 
शरीर के सन्दर्भ में उपरोक्त विषयों पर आगे विस्तार से चर्चा करेंगे।
क्रमशः ...

शनिवार, 7 दिसंबर 2019

आध्यात्मिक चर्चा - ४

आध्यात्मिक चर्चा - ४
आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

आज हम नचिकेता के प्रश्न (शरीर के मरने के बाद आत्मा की क्या गति होती है?) पर यमाचार्य के उत्तर का विश्लेषण करेंगे। यमाचार्य नचिकेता को आत्मज्ञान के सन्दर्भ में उपदेश करते है -

न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥

यमाचार्य नचिकेता के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि (न हन्यते हन्यमाने शरीरे ) शरीर के मरने के बाद आत्मा नहीं मरता है । वैसे तो संक्षेप में यह उत्तर हो गया लेकिन इतने उत्तर से काम नहीं चलेगा इसीलिए आगे कहते हैं कि (न जायते न म्रियते ) आत्मा न जन्म लेता है और न ही मरता है । ऐसा कहने पर पुनः नया प्रश्न उपस्थित होता है कि संसार में तो जन्म और मृत्यु देखने में आता है और यमाचार्य कह रहे हैं कि आत्मा का जन्म - मृत्यु नही होता है। इस प्रसंग को इस प्रकार समझेंगे कि संसार में ऐसी बहुत सी घटनायें होती है जो होती तो कुछ हैं और कही कुछ जाती हैं । जैसे रेलगाड़ी में यात्रा करने वाला एक दूसरे से कहता है कि देखना भाई कौन सा स्टेशन आगया और उत्तर देने वाला भी कह देता है कि अमुख स्टेशन आगया जबकि प्रश्न भी गलत है और उत्तर भी गलत है क्योंकि स्टेशन नही आता है यात्री स्टेशन पहुंचते हैं इसीलिए यह कहना चाहिए कि हम कौन से स्टेशन पहुंच गये या गाड़ी कौन से स्टेशन पहुंच गयी और उत्तर देने वाला कहना चाहिए कि हम या गाड़ी अमुख स्टेशन पहुंच गये।
     एक और उदाहरण लेते हैं - हम यदि यह प्रश्न करें कि क्या सूर्य - उदय अस्त होता है तो कुछ लोग कहेंगे कि सूर्य उदय - अस्त होता है और कुछ लोग कहेंगे कि सूर्य उदय अस्त नहीं होता है और कुछ तो कहेंगे कि उदय अस्त होते दिखाई नहीं देता है क्या। लेकिन यथार्थ तो यही है सूर्य का उदय और अस्त कभी नहीं होता है लेकिन पृथ्वी के घूमने के कारण सूर्य का उदय अस्त दिखाई देता है वैसे ही जैसे गाड़ी में चलने वाले व्यक्ति को वृक्ष पीछे की ओर दौड़ते दिखते हैं। इसी प्रकार आत्मा का जन्म मृत्यु नही होता आत्मा शरीर में आजाती है तो जन्म सा दिखाई देता है और आत्मा शरीर को छोड़कर चली जाती है तो मृत्यु सी दिखाई देती है। अर्थात् आत्मा और शरीर के संयोग का जन्म है तथा आत्मा और शरीर के वियोग का नाम मृत्यु है। अभी हम आत्मा के विषय में समझ रहे हैं आगे हम शरीर के बारे में विस्तार से जानेंगे।
आत्मा की अमरता के विषय में योगेश्वर श्री कृष्ण जी महाराज अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं -

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।

     आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, जल गला नहीं सकता और वायु सूखा नहीं सकता । अर्थात् आत्मा को किसी भी साधन से नष्ट नहीं किया जा सकता है। आत्मा एक अविनाशी और अनादि तत्व है।
आत्मा के बारे में एक बात अधिक जानने योग्य है ( जो ऐसा मानते हैं कि आत्मा तो परमात्मा में से बनती है, उनको यह बात अधिक ध्यान देकर समझनी चाहिए) यमाचार्य कहते हैं आत्मा किसी कारण से उत्पन्न नहीं हुआ है अर्थात् इसका कोई उपादान कारण नही है‌। आत्मा किसी में से बना नही है और ना ही इसमें से कुछ बनेगा। 
इस विषय पर योगेश्वर श्री कृष्ण महाराज की बात बहुत प्रासंगिक लगती है वे कहते हैं कि -

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्‌ ॥ 

  ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं किसी भी समय में नहीं था, या तू नहीं था अथवा ये समस्त राजा नहीं थे और न ऐसा ही होगा कि भविष्य में हम सब नहीं रहेंगे। अर्थात् हम पहले भी हमेशा थे और आगे भी हमेशा रहेंगे।
ऋग्वेद में अविनाशी व अनादि तत्वों के बिषय इस प्रकार कहा है -

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते |
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति || 

( द्वा ) जो ब्रह्म और जीव दोनों ( सुपर्णा ) चेतनता और पालनादि गुणों से सदृश ( सयुजा ) व्याप्य - व्यापक भाव से संयुक्त ( सखाया ) परस्पर मित्रतायुक्त , सनातन अनादि हैं ; और ( समानम् ) वैसा ही ( वृक्षम् ) अनादि मूलरूप कारण और शाखारूप कार्ययुक्त वृक्ष अर्थात जो स्थूल होकर प्रलय में छिन्न - भिन्न हो जाता है , वह तीसरा अनादि पदार्थ ; इन तीनों के गुण , कर्म और स्वभाव भी अनादि हैं । ( तयोरन्यः ) इन जीव और ब्रह्म में से एक जो जीव है , वह इस वृक्षरूप संसार में पाप पुण्य रूप फलों को ( स्वाद्वत्ति ) अच्छे प्रकार भोगता है , और दूसरा परमात्मा कर्मों के फलों को ( अनश्नन् ) न भोगता हुआ चारों ओर अर्थात् भीतर-बाहर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है । जीव से ईश्वर , ईश्वर से जीव और दोनों से प्रकृति भिन्न-स्वरूप तीनों अनादि हैं ।

यमाचार्य आत्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं - (न) नहीं (जायते)उत्पन्न होता है (न) नहीं (म्रियते) मरता है (वा) या (विपश्चित) चेतनरूप, मेधावी  (अयम्) यह (कुतश्चित्) कहीं से किसी उपादान कारण से (न, बभूव) उत्पन्न नहीं हुआ (कश्चित्) कोई (इससे भी उत्पन्न नहीं हुआ)  (अजः) जन्म नहीं लेता (नित्यः) नित्य (शाश्वत:) अनादि हमेशा रहनेवाला (अयम्) यह (पुराणः) सनातन है (शरीरे) शरीर के (हन्यमाने) नाश होने पर (न, हन्यते)नष्ट नहीं होता ॥
अभी तक हमने समझा कि आत्मा (जीव) एक अविनाशी और अनादि तत्व है इसका जन्म-मृत्यु नही होता है । शरीर और आत्मा के संयोग का नाम जन्म कहलाता है और शरीर और आत्मा के साथ साथ चलने का नाम जीवन है तथा शरीर और आत्मा के वियोग का नाम मृत्यु है । आगे हम शरीर को समझेंगे।
क्रमशः ...

शनिवार, 30 नवंबर 2019

आध्यात्मिक चर्चा - २

आध्यात्मिक चर्चा - २
आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

पिछली चर्चा में हमने देखा कि आचार्य यम के द्वारा नचिकेता को आत्मज्ञान के बदले में संसार का वैभव मांगने को कहा तो नचिकेता संसार का वैभव यह कहकर ठुकरा देता है कि -
० संसार का वैभव स्थिर नहीं है, आज है कल नहीं।
० भोग से रोग होते हैं शक्ति क्षीण होती है।
० आयु कितनी भी मांग लू एक दिन वह भी समाप्त हो जायेगी।
० धन से मनुष्य कभी सन्तुष्ट नहीं होता, पहले थोड़े की कामना करता है उसके मिलने पर कामना बढ़ती जाती है।
० हे आचार्य ! आपसे अच्छा मुझे समझाने वाला कोई नही मिलेगा इसीलिए आत्मज्ञान के अतिरिक्त मैं कोई और भिन्न प्रश्न नही मांगता । कृपया मेरा कल्याण कीजिए।

     उपरोक्त कथन पर  महाराज मनु ने भी कहा -
न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्ध्दते ॥
यह निश्चय है कि जैसे अग्नि में इन्धन और घी डालने से बढ़ता जाता है वैसे ही कामों के उपभोग से काम शान्त कभी नहीं होता किन्तु बढ़ता ही जाता है। इसलिये मनुष्य को विषयासक्त कभी न होना चाहिये।
राजा भर्तृहरि वैराग्य शतक में इस ऐसा ही कहते है -
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।।
कालो न यातो वयमेव याताः तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।।
    भोगों को हमने नहीं भोगा, बल्कि भोगों ने ही हमें ही भोग लिया । तपस्या हमने नहीं की, बल्कि हम खुद तप गए । काल (समय) कहीं नहीं गया बल्कि हम स्वयं चले गए । इस सभी के बाद भी मेरी कुछ पाने की तृष्णा नहीं गयी ( भोगों की इच्छा कमजोर नही हुई ) बल्कि हम स्वयं जीर्ण हो गए ।।
       कहावतें हैं -
०  कि मनुष्य एक साथ ही भगवान् तथा धन को प्रेम नहीं कर सकता "Ye cannot serve God and a mammon."
   ०  ऊँट के लिए सुई में से गुजरना धनिक द्वारा परमात्मा के राज्य में प्रवेश करने की अपेक्षा सरल है।" For it is easier for a camel to go through a needle’s eye than for a richman to enter into the kingdom of God."
  ० आद्यात्मिक साधक के मार्ग में धन की तृष्णा एवं धन का अभिमान बाधक हैं। उसे सादगी और संतोष से जीवन-यापन करना चाहिए।
  ० धन की लिप्सा मनुष्य को पाप में प्रवृत्त कर देती है।
  ० धन का प्रभाव धन के अभाव से अधिक दुःखदायक होता है।
  ० धन का लोभ मनुष्य को भटकाकर अशान्त बना देता है तथा धन की प्रचुरता मनुष्य को मदान्ध बना देती है।
कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय,
या खाए बौराए जग, वा पाए बौराए।
    यहाँ एक कनक से तात्पर्य भांग से है तथा दूसरे कनक का अर्थ स्वर्ण है
तात्पर्य है कि स्वर्ण अथवा धन के लोभ का मद ( नशा ) भांग के मद से भी सौ गुना अधिक बावरा बना देता है। भांग को खाने से नशा चढ़ता है जबकि स्वर्ण अर्थात् सोने को प्राप्त करने से लालच का नशा मानव को पागल कर देता है ।।
   धन की प्रचुरता प्रायः मनुष्य को विलासिता, दुर्व्यसन, अपराध, हिंसा और अशान्ति की ओर ले जाती है।

    वास्तव में धन में दोष नहीं है, धन की लिप्सा एवं आसक्ति में दोष होता है। मनुष्य धन के सदुपयोग से दीन दुःखी जन की सेवा आदि लोक-कल्याण के कार्य कर सकता है। अतः हमें त्यागपूर्वक भोग करना चाहिए। 
यजुर्वेद में लिखा है -
ईशा वास्यमिदँ सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम् ॥
   अर्थात्  हे मनुष्य ! तू जो प्रकृति से लेकर पृथ्वी पर्यन्त सब जड़ चेतन जगत है वह ईश्वर ( सकल ऐश्वर्य से सम्पन्न, सर्वशक्तिमान परमात्मा) के द्वारा आच्छादित अर्थात् सब ओर से अभिव्यप्त किया हुआ है। इसीलिए त्याग पूर्वक उपभोग कर। और यह धन किसका है अर्थात् किसी का नही यह तो उपभोग के लिए परमेश्वर से प्राप्त होता है; अतः किसी के भी धन वा वस्तुमात्र की अभिलाषा मत कर अपितु पुरुषार्थ कर।
उपरोक्त विषय पर महात्मा चाणक्य का कथन है -

सन्तोषस्त्रिषु  कर्तव्यः  स्वदारे   भोजने  धने  |
त्रिषु  चैव  न  कर्तव्योऽध्ययने  जपदानयोः    ||
     मानव का यह  कर्तव्य है कि इन तीन स्थितियों में वह सदैव संतुष्ट रहे  - (१) अपनी पत्नी के साहचर्य से (२) पवित्र कर्म से प्राप्त भोजन से, तथा (३) पुरुषार्थ से प्राप्त धन से | परन्तु इन तीन स्थितियों में कभी भी संतुष्ट नहीं होना चाहिये - (१) विद्याध्ययन (२ ) मन्त्र जाप से  ईश्वर की आराधाना  तथा  (३)  समाज के कल्याण हेतु दान करना |

     परिश्रम और सच्चाई से धन अर्जित करना, जो भी प्राप्त हो जाय उसमें सन्तोष करना तथा उसका सदुपयोग करना विवेकसम्मत है।
यह एक तथ्य है कि मनुष्य सब कुछ यहीं एकत्रित करता है और सब कुछ यहीं छोड़कर सहसा चला जाता हैं। यदि सब कुछ छूटना है तो हम उसे स्वयं ही छोड़ दें अर्थात् उसके ममत्व, स्वामित्व और आसक्ति के भाव को छोड़कर भारमुक्त हो जाएँ। सब धन परमात्मा का ही है। अतः 'इदं न मम' (यह मेरा नहीं है। ) की भावना को शिरोधार्य करके धन का उपभोग एवं सदुपयोग करना सब प्रकार से श्रेष्ठ है।

       निश्चय ही आत्मज्ञान की अपेक्षा धन अत्यन्त तुच्छ है। बृहदारण्यक उपनिषद् जब मैत्रेयी के सम्मुख याज्ञवल्क्य ऋषि ने भौतिक सुख-सामग्री देने का प्रस्ताव रखा तो मैत्रेयी ने पूछा -
यन्नु म इयं भगोः सर्वा पृथिवी वित्तेन पूर्णा स्यात् कथं तेनाहं अमृता स्यामिति।
अगर सारी पृथिवी धन-धान्य से भरपूर होकर मुझे प्राप्त हो जाय तो क्या मुझे अमरत्व की प्राप्ति हो  जाएगी ?

याज्ञवल्क्य ऋषि ने उत्तर दिया - यथैवोपकरणावतां जीवितं तथैव ते जीवितं स्यात् अमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेन।
     जैसे साधन-सम्पन्न व्यक्तियों का जीवन होता है, वैसा तेरा जीवन हो जायेगा, परन्तु अमर-आनन्द तुझे प्राप्त नहीं होगा।
   यह सुनकर मैत्रेयी ने जो उत्तर दिया, वह आज के भौतिकवादी युग को चुनौती है। उसने कहा,

येनाहं नामृता स्याम् किमहं तेन कुर्याम्।
     जिस मार्ग पर चलने से मुझे अमरत्व की प्राप्ति न होगी, उस पर चल कर मैं क्या करूँगी ?"
       इसलिए आज इस बात की अत्यधिक आवश्यकता होने लगी है कि अध्यात्म के मार्ग पर अनुसरण किया जाये और जीवन सुन्दर और सुखमय बनाया जाए। जीवन का उद्देश्य तो अमृतस्वरूप आत्मा को जानकर अमृतत्व प्राप्त करना है। उपनिषदों में अनेक स्थलों पर अमृतत्व की चर्चा है। जीवनकाल में आत्मतत्त्व को जानकर अमृतत्व प्राप्त करना ही उत्तम धन है। यही मानव की सर्वोच्च उपलब्धि भी है।

अभी तक कुछ विद्वानों के माध्यम से यह समझने का प्रयास किया कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है। हमें कौन सा पथ चयन करना हैं। आगे हम समझेंगे कि वैदिक काल के लोग किस पथ का अनुसरण करते थे और आज के व्यक्ति ने कौन सा पथ चयन किया है।

क्रमशः ...

आध्यात्मिक चर्चा - ३

आध्यात्मिक चर्चा - ३
आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

पिछली चर्चा में हमने समझा कि दो मार्ग हैं।
- एक संसार के वैभव पाने का  भौतिक मार्ग और दूसरा परमेश्वर के आनन्द को पाने का आध्यात्मिक मार्ग इस  विषय में उपनिषद में कहा है कि जीवन के दो पथ होते है - श्रेय मार्ग और प्रेय मार्ग इन्हें ही प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग भी कहा जाता है।

अजीर्यताममृतानामुपेत्य जीर्यन् मर्त्यः व्कधःस्थः प्रजानन्।
अभिध्यायन् वर्णरतिप्रमोदानदीर्घे जीविते को रमेत ॥
नचिकेता कुमारावस्था में ही बुद्धि की परिपक्वता एवं जिज्ञासा की गहनता का परिचय देता है। वह यमदेव से कहता है कि जीर्ण हो जानेवाला तथा मृत्यु को प्राप्त होनेवाला, मृत्युलोक में रहनेवाला, कौन मनुष्य जीर्ण न होनेवाले अमृतस्वरूप महात्माओं का संग पाकर भी भौतिक भोगों का चिन्तन करते हुए दीर्घकाल तक जीवित रहने में रुचि लेगा? यमराज जैसे महात्मा का सान्निध्य पाकर भी भोगों का चिन्तन करने की मूर्खता कौन विवेकशील मनुष्य करेगा? मृत्युलोक में रहनेवाले मरणधर्मा मनुष्य के लिए यमराज के सान्निध्य में आकर आत्मज्ञान की प्राप्ति से बढ़कर अन्य कौन-सा सौभाग्य हो सकता है? नचिकेता ने आत्मज्ञान के लिए आवश्यक वैराग्यभाव को प्रदर्शित करके स्वयं को उपदेश का सच्चा अधिकारी सिद्ध कर दिया। यह प्रसिद्ध ही है कि विषय-वासना और भौतिक वस्तुओं की तृष्णा से ग्रसित मनुष्य आत्मज्ञान की साधना नहीं कर सकता। नचिकेता सत्य का गंभीर अनुसंधाता है तथा संसार के सुखभोगों को तुच्छ समझकर उनका परित्याग करने पर दृढ़ है। वह मात्र दीर्घजीवी नहीं, दिव्यजीवी होना चाहता है।

यस्मिन्निदं विचिकित्सन्ति मृत्यो यत्साम्पराये महति ब्रूहि नस्तत्।
योऽयं वरो गूढमनुप्रविष्टो नान्यं तस्मान्नचिकेता वृणीते ॥
नचिकेता अपने निश्चय पर दृढ़ है तथा कोई प्रलोभन उसे विचलित नहीं कर सकता। यमराज जैसे उपदेष्टा के सान्निध्य का स्वर्णिम अवसर प्राप्त करके वह उसे खोना नहीं चाहता। यमराज ने जितने भी प्रलोभन प्रस्तुत किए, नचिकेता ने उन सबको तुच्छ एवं हेय कह दिया। आत्मतत्त्व के ज्ञान से बढ़कर अन्य कुछ भी नहीं हो सकता। नचिकेता का तृतीय वर गूढ है और गंभीर विवेचना की अपेक्षा करता है।
        भौतिक सुखों के नाना प्रलोभनों से उत्तीर्ण नचिकेता को आत्मज्ञान का योग्य अधिकारी समझकर यमाचार्य विद्या और अविद्या के भेद का कथन करते हैं -
अन्यच्छ्रेयोऽन्यदुतैव प्रेयस्ते उभे नानार्थे पुरुषं सिनीतः ।
तयोः श्रेय आददानस्य साधु भवति हीयतेऽर्थाद्य उ प्रेयो वृणीते ।।
   हे नचिकेता ! अतिशय प्रशंसित कल्याण का मार्ग अर्थात् मोक्ष प्राप्ति का साधन रूप कर्म लौकिक अभ्युदय की अपेक्षा विलक्षण और दूसरा है और अतिशय प्रिय लगने वाला लौकिक स्त्रीधनैश्वर्यादि अभ्युदय का मार्ग मोक्ष मार्ग से भिन्न ही है वे श्रेय और प्रेय दोनों भिन्न-भिन्न प्रायोजन वाले मनुष्य को कर्म-फल रुप रस्सियों से बांधते हैं। उन दोनों में से कल्याणकारी मोक्ष-मार्ग को ग्रहण करने वाले का अच्छा फल होता है और जो अत्यन्त प्रिय वस्तुओं को स्वीकार करता है वह मनुष्य जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष रूप प्रायोजन से भ्रष्ट हो जाता है।
श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः ।
श्रेयो हि धीरोऽभि प्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते ।।
   मनुष्य को श्रेय = कल्याण मार्ग और प्रेय = अतिशय प्रिय धनैश्वर्यादि का मार्ग ये दोनों प्राप्त होते हैं अर्थात् संसार में दोनों मार्ग देखने में आते हैं परन्तु विवेकी विद्वान् पुरुष उन दोनों मार्गों को शास्त्रों के अनुशीलन से शुद्ध हुई बुद्धि से निश्चय कर प्रेयमार्ग से कल्याण मार्ग को निश्चय से सर्वथा स्वीकार करता है तथा मन्द बुद्धि पुरुष अथवा अविवेकी पुरुष भौतिक सुखों के साधनों के योग = उपार्जन और क्षेम = उनके रक्षण के कारण अत्यन्त प्रिय लगने लगने वाले भोगों के मार्ग को ही स्वीकार करता है।
       प्राचीन भारत  का जब अध्ययन करते हैं तो पता चलता है कि अधिकतर लोग श्रेय मार्ग पर चलने वाले ही होते थे।
       प्रत्येक व्यक्ति साधना का जीवन व्यतीत करते थे। उदाहरण के रुप में हम मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी महाराज का जीवन देख सकते हैं जिन्होंने सत्य, न्याय और कर्तव्य पालन करते हुए अपने जीवन को कल्याण मार्ग पर ही रखा चक्रवर्ती राज्य को भी तुच्छ समझा , साथ की हम भ्राता भरत जी का जीवन भी इसी मार्ग का अनुगामी पाते हैं। योगेश्वर श्री कृष्ण जी महाराज तो आध्यात्मिक मार्ग दर्शाते हैं धन-ऐश्वर्य तथा राज्यादि को सामान्य समझते हैं ( देश का दुर्भाग्य है कि ऐसे महान योगी के बारे में अज्ञानता के कारण गलत मान्यतायें भी प्रचारित की जाती हैं)
     गुरुवर स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी महाराज विश्व कल्याण की भावना से साधना का जीवन जीते है।
        महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज के जीवन से कितने की लोगों को कल्याण मार्ग मिलता है , ऋषिवर संसार के वैभव को अनेक बार ठुकरा देते हैं विरुद्ध वातावरण होते हुए भी उन्हें साधना और विश्व कल्याण के मार्ग पर चलने से कोई भी बाधा नहीं रोक पायी।
  कल्याण मार्ग का पथिक हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती जी महाराज तथा अनेक विद्वान और क्रान्तिकारियों का जीवन हम सभी के लिए प्रेरक बन गया है।
आज हमें इनके आदर्शों पर चल कर अपने जीवनों को कल्याण मार्ग पर ले जाना चाहिए। लेकिन आज तो अधिकतर लोग प्रेय मार्ग पर चलने वाले हैं इसीलिए केवल संसार के वैभव को ही पाने का उद्यम करते है।

इनमें से भी ऐसे लोग कम हैं जो पुरुषार्थ से धन अर्जित करते है और अधिक लोग ऐसे हैं जो किसी भी अनैतिक साधन से धन इकट्ठा करते हैं।

० धन के लिए पशु-पक्षियों को काटकर बिक्री कर देते, आजकल तो मनुष्यों का भी मांस बिक रहा है।
० धन के लिए मनुष्यों को मारकर लूट की जाती है तथा धन वैभव पाने के लिए सम्बन्धियों के साथ साथ  माता-पिता और रक्त सम्बन्धियों को भी मौत के घाट उतार दिया जाता है ।
० उपयोगी सामान और पशुओं की चोरी तो बहुत समय से होती हैं अब तो फिरोती के लिए मनुष्यों का अपहरण कर लिया जाता है, तथा एक अनैतिक कार्य ने तो हमें बहुत ही दुःखी किया है वह यह है कि छोटे बच्चों का अपहरण करके फिरोती नहीं मागीं जाती बल्कि उनके आन्तरिक अंगों को निकाल कर बेच दिया जाता है यह कितना जघन्य अपराध है लेकिन धन पाने के लिए यह सब भी हो रहा है।
० रिश्वतखोरी का हाल तो आप सब जानते हैं अब तो इसकी भी नयी नयी तकनीकें विकसित हो  गई हैं जिनसे दूसरे का धन अधिक से अधिक ठगा जासके।
० कमीशन का दौर तो ऐसा चला कि जिसमें सारा समाज बहुत अच्छे से जकड़ गया है। आपातकाल में मुझे कानपुर से दिल्ली तक बस से यात्रा करनी थी बस तक पहुंचने के लिए ऑटोरिक्शा लिया उसे मार्गव्यय भी दिया लेकिन बस वाले से भी ऑटोरिक्शा वाले ने एक सवारी का कमीशन भी ले लिया । जब मैंने बस में बैठने से पहले किराया पूछा। मुझे किराया अधिक लगा तो मैं बस में नही बैठा तो इस पर बस वाला बहुत नाराज हो गया । जब मैंने नाराजगी का कारण पूछा तो बताया कि आपका यात्रा का कमीशन रिक्शा वाले को दिया है उसका क्या । तब हमने उससे कहा कि यह आपका विषय है।
मित्रो ! हो सकता है कि ऐसा आपके साथ भी हुआ होगा । हां वह अलग बात है कि यात्रा में नही हुआ हो किसी अन्य स्थान पर हुआ हो क्योंकि इस कमीशन की माया से कोई भी विभाग अछूता नही रहा है । इसका जाल चिकित्सा, शिक्षा, न्याय, यात्रा, सभी प्रकार के क्रिय-विक्रय आदि में सर्वव्यापक होगया है।
० मिलावट इस तरह हुई है कि अब बाजार में कोई भी सामान विश्वास के साथ नहीं मिलता है। मिलावटी सामान शुद्ध से भी शुद्ध लगता है । आश्चर्य तो तब होता है कि जब बिना पशुओं के दूध तैयार हो जाता है और बिना दूध के मावा तैयार हो जाता है। एक समय था जब बाजार में घी वाली दुकान पर जाकर कहा जाता था की घी चाहिए तो दुकानदार कहता था कि कितना देदूं, लेकिन आज यदि कहोगे कि घी चाहिए तो दुकानदार कहेगा कि कौन सा और कितना चाहिए अर्थात् एक समय था जब  घी के नाम पर एक देशी घी ही होता था और वह भी शुद्ध ही होता था लेकिन आज मिलावटी घी है और अनेक प्रकार का है। पिसे हुये मसालों में अखाद्य रंग मिला हुया है जोकि हानिकारक कैमिकल युक्त है। काली मिर्च में पपीते के बीज मिले हैं। धनिये में भूसा और बुरादा तथा गोबर तक मिला हुआ है। लाल मिर्च में गेरू और रंग मिला हुआ है। दूध में यूरिया, साबुन व एसिड, नमक में चॉक पाउडर, हल्दी में डाई वाला कलर, देसी घी में वनस्पति तेल, स्टार्च आदि की मिलावट होरही है।
     अनेक अनैतिक तरीकों से धन कमाने वाला स्वयं को बहुत चतुर समझता है लेकिन यथार्थ इससे बिल्कुल अलग है = एक तो यह कि सुख का सच्चा साधन विद्या और सत्य व्यवहार ही है और दूसरा किये हुए कर्म का भुगतान अवश्य ही करना होता है इस सन्दर्भ में हम आगे विस्तार से लिखेंगे। अभी तो हम नचिकेता के प्रश्न आत्मा की गति पर विचार करेंगे।

क्रमशः ...









रविवार, 24 नवंबर 2019

आध्यात्मिक चर्चा - २

आध्यात्मिक चर्चा - २
आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

पिछली चर्चा में हमने देखा कि आचार्य यम के द्वारा नचिकेता को आत्मज्ञान के बदले में संसार का वैभव मांगने को कहा तो नचिकेता संसार का वैभव यह कहकर ठुकरा देता है कि -
० संसार का वैभव स्थिर नहीं है, आज है कल नहीं।
० भोग से रोग होते हैं शक्ति क्षीण होती है।
० आयु कितनी भी मांग लू एक दिन वह भी समाप्त हो जायेगी।
० धन से मनुष्य कभी सन्तुष्ट नहीं होता, पहले थोड़े की कामना करता है उसके मिलने पर कामना बढ़ती जाती है।
० हे आचार्य ! आपसे अच्छा मुझे समझाने वाला कोई नही मिलेगा इसीलिए आत्मज्ञान के अतिरिक्त मैं कोई और भिन्न प्रश्न नही मांगता । कृपया मेरा कल्याण कीजिए।

     उपरोक्त कथन पर  महाराज मनु ने भी कहा -
न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्ध्दते ॥ 
यह निश्चय है कि जैसे अग्नि में इन्धन और घी डालने से बढ़ता जाता है वैसे ही कामों के उपभोग से काम शान्त कभी नहीं होता किन्तु बढ़ता ही जाता है। इसलिये मनुष्य को विषयासक्त कभी न होना चाहिये।
राजा भर्तृहरि वैराग्य शतक में इस ऐसा ही कहते है - 
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।।
कालो न यातो वयमेव याताः तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।। 
    भोगों को हमने नहीं भोगा, बल्कि भोगों ने ही हमें ही भोग लिया । तपस्या हमने नहीं की, बल्कि हम खुद तप गए । काल (समय) कहीं नहीं गया बल्कि हम स्वयं चले गए । इस सभी के बाद भी मेरी कुछ पाने की तृष्णा नहीं गयी ( भोगों की इच्छा कमजोर नही हुई ) बल्कि हम स्वयं जीर्ण हो गए ।। 
       कहावतें हैं -
 ०  कि मनुष्य एक साथ ही भगवान् तथा धन को प्रेम नहीं कर सकता "Ye cannot serve God and a mammon."
   ०  ऊँट के लिए सुई में से गुजरना धनिक द्वारा परमात्मा के राज्य में प्रवेश करने की अपेक्षा सरल है।" For it is easier for a camel to go through a needle’s eye than for a richman to enter into the kingdom of God." 
  ० आद्यात्मिक साधक के मार्ग में धन की तृष्णा एवं धन का अभिमान बाधक हैं। उसे सादगी और संतोष से जीवन-यापन करना चाहिए।
  ० धन की लिप्सा मनुष्य को पाप में प्रवृत्त कर देती है।
  ० धन का प्रभाव धन के अभाव से अधिक दुःखदायक होता है।
  ० धन का लोभ मनुष्य को भटकाकर अशान्त बना देता है तथा धन की प्रचुरता मनुष्य को मदान्ध बना देती है। 
कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय,
या खाए बौराए जग, वा पाए बौराए।
    यहाँ एक कनक से तात्पर्य भांग से है तथा दूसरे कनक का अर्थ स्वर्ण है 
तात्पर्य है कि स्वर्ण अथवा धन के लोभ का मद ( नशा ) भांग के मद से भी सौ गुना अधिक बावरा बना देता है। भांग को खाने से नशा चढ़ता है जबकि स्वर्ण अर्थात् सोने को प्राप्त करने से लालच का नशा मानव को पागल कर देता है ।। 
   धन की प्रचुरता प्रायः मनुष्य को विलासिता, दुर्व्यसन, अपराध, हिंसा और अशान्ति की ओर ले जाती है।

    वास्तव में धन में दोष नहीं है, धन की लिप्सा एवं आसक्ति में दोष होता है। मनुष्य धन के सदुपयोग से दीन दुःखी जन की सेवा आदि लोक-कल्याण के कार्य कर सकता है। अतः हमें त्यागपूर्वक भोग करना चाहिए।  
यजुर्वेद में लिखा है -
ईशा वास्यमिदँ सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम् ॥
   अर्थात्  हे मनुष्य ! तू जो प्रकृति से लेकर पृथ्वी पर्यन्त सब जड़ चेतन जगत है वह ईश्वर ( सकल ऐश्वर्य से सम्पन्न, सर्वशक्तिमान परमात्मा) के द्वारा आच्छादित अर्थात् सब ओर से अभिव्यप्त किया हुआ है। इसीलिए त्याग पूर्वक उपभोग कर। और यह धन किसका है अर्थात् किसी का नही यह तो उपभोग के लिए परमेश्वर से प्राप्त होता है; अतः किसी के भी धन वा वस्तुमात्र की अभिलाषा मत कर अपितु पुरुषार्थ कर।
उपरोक्त विषय पर महात्मा चाणक्य का कथन है -


सन्तोषस्त्रिषु  कर्तव्यः  स्वदारे   भोजने  धने  |
त्रिषु  चैव  न  कर्तव्योऽध्ययने  जपदानयोः    || 
     मानव का यह  कर्तव्य है कि इन तीन स्थितियों में वह सदैव संतुष्ट रहे  - (१) अपनी पत्नी के साहचर्य से (२) पवित्र कर्म से प्राप्त भोजन से, तथा (३) पुरुषार्थ से प्राप्त धन से | परन्तु इन तीन स्थितियों में कभी भी संतुष्ट नहीं होना चाहिये - (१) विद्याध्ययन (२ ) मन्त्र जाप से  ईश्वर की आराधाना  तथा  (३)  समाज के कल्याण हेतु दान करना |

     परिश्रम और सच्चाई से धन अर्जित करना, जो भी प्राप्त हो जाय उसमें सन्तोष करना तथा उसका सदुपयोग करना विवेकसम्मत है। 
यह एक तथ्य है कि मनुष्य सब कुछ यहीं एकत्रित करता है और सब कुछ यहीं छोड़कर सहसा चला जाता हैं। यदि सब कुछ छूटना है तो हम उसे स्वयं ही छोड़ दें अर्थात् उसके ममत्व, स्वामित्व और आसक्ति के भाव को छोड़कर भारमुक्त हो जाएँ। सब धन परमात्मा का ही है। अतः 'इदं न मम' (यह मेरा नहीं है। ) की भावना को शिरोधार्य करके धन का उपभोग एवं सदुपयोग करना सब प्रकार से श्रेष्ठ है।


       निश्चय ही आत्मज्ञान की अपेक्षा धन अत्यन्त तुच्छ है। बृहदारण्यक उपनिषद् जब मैत्रेयी के सम्मुख याज्ञवल्क्य ऋषि ने भौतिक सुख-सामग्री देने का प्रस्ताव रखा तो मैत्रेयी ने पूछा -
यन्नु म इयं भगोः सर्वा पृथिवी वित्तेन पूर्णा स्यात् कथं तेनाहं अमृता स्यामिति।
अगर सारी पृथिवी धन-धान्य से भरपूर होकर मुझे प्राप्त हो जाय तो क्या मुझे अमरत्व की प्राप्ति हो  जाएगी ?

याज्ञवल्क्य ऋषि ने उत्तर दिया - यथैवोपकरणावतां जीवितं तथैव ते जीवितं स्यात् अमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेन।
     जैसे साधन-सम्पन्न व्यक्तियों का जीवन होता है, वैसा तेरा जीवन हो जायेगा, परन्तु अमर-आनन्द तुझे प्राप्त नहीं होगा।
   यह सुनकर मैत्रेयी ने जो उत्तर दिया, वह आज के भौतिकवादी युग को चुनौती है। उसने कहा,

येनाहं नामृता स्याम् किमहं तेन कुर्याम्।
     जिस मार्ग पर चलने से मुझे अमरत्व की प्राप्ति न होगी, उस पर चल कर मैं क्या करूँगी ?"
       इसलिए आज इस बात की अत्यधिक आवश्यकता होने लगी है कि अध्यात्म के मार्ग पर अनुसरण किया जाये और जीवन सुन्दर और सुखमय बनाया जाए। जीवन का उद्देश्य तो अमृतस्वरूप आत्मा को जानकर अमृतत्व प्राप्त करना है। उपनिषदों में अनेक स्थलों पर अमृतत्व की चर्चा है। जीवनकाल में आत्मतत्त्व को जानकर अमृतत्व प्राप्त करना ही उत्तम धन है। यही मानव की सर्वोच्च उपलब्धि भी है।

अभी तक कुछ विद्वानों के माध्यम से यह समझने का प्रयास किया कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है। हमें कौन सा पथ चयन करना हैं। आगे हम समझेंगे कि वैदिक काल के लोग किस पथ का अनुसरण करते थे और आज के व्यक्ति ने कौन सा पथ चयन किया है।

क्रमशः ...


बुधवार, 20 नवंबर 2019

आध्यात्मिक चर्चा - १

आध्यात्मिक चर्चा - १
आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री
(वैदिक प्रवक्ता )

[ यह चर्चा क्रमशः वाट्साप पर मित्रों को, वाट्साप के अनेक समूहों में और फेसबुक पर साझा की जारही है यदि आप पुनः स्वयं पढ़ना चाहें या मित्रों को पढ़ाना चाहें तो ब्लॉग http://shankaragra.blogspot.com पर सुरक्षित है इस ब्लॉग पर पढ़- पढ़ा सकते हैं। तथा इसकी कुछ चर्चा आपको जीवन की यथार्थता नाम से यूट्यूब https://youtu.be/1-7D_0YulZs  पर भी सुन सकते है ]

        मैं कौन हूँ ?  कहां से आया हूँ ? कहां जाऊंगा ? जन्म क्या है ? मृत्यु क्या है ? जीवन क्या है ? जीवन और जीवन की सफलता का आधार क्या है ? इन प्रश्नों का उत्तर जीवन रहते यदि नहीं मिला या उत्तर पाने का प्रयास नहीं किया तो समझो यह जीवन बेकार चला जाएगा।
         इस चर्चा में हम इस प्रकार के प्रश्नों पर ही विचार विमर्श करेंगे - आशा है आप इसे क्रमशः ध्यान पूर्वक पढ़ेंगे और मित्रों को भी साझा करेंगे। आप अपनी टिप्पणी भी कर सकते हैं।

          आध्यात्मिक सिद्धान्तों को बहुत ही सुन्दर तरीके से समझाने में सफल कठोपनिषद् से चर्चा आरम्भ करते हैं - कठोपनिषद में नचिकेता नामक एक ब्रह्मचारी यमाचार्य से प्रश्न करता है कि आत्मा की शरीर के मरने बाद क्या गति होती है ? कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि शरीर के मरने के बाद आत्मा भी मर जाती है ( आत्मा का अस्तित्व नही है ) । और कुछ लोग कहते हैं नही मरती है ( आत्मा नित्य है ) । हे आचार्य ! मैं यह जानना चाहता हूँ ?

येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।
एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाऽहं वराणामेष वरस्तृतीय: ॥
          नचिकेता कहता है –हे यमराज, मृतक व्यक्ति के सम्बन्ध में कोई कहता है कि मृत्यु के उपरान्त उसके आत्मा का अस्तित्व रहता है और कोई कहता है कि नहीं रहता, कृपया मुझे इसे समझा दें। यह नचिकेता का अभीष्ट और श्रेष्ठ वर है।
       एक कुमार से ऐसे गूढ प्रश्न की आशा नहीं की जा सकती। अतएव यमदेव ने नचिकेता के सच्चा अधिकारी अथवा सुपात्र होने की परीक्षा ली। यमदेव ने देर तक उसे टालने का प्रयत्न किया, किन्तु यह संभव न हो सका। इससे संवाद में रोचकता आ गयी है।

देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा न हि सुविज्ञेयमणुरेषधर्म:।
अन्यं वरं नचिकेतो वृणीष्व मा मोपरोत्सीरति मा सृजैनम् ॥
      अध्यात्मविद्या दुर्विज्ञेय है। अग्निविद्या आदि कर्मकाण्ड के विषयों को समझना सरल है, किन्तु ब्रह्मविद्या का उपदेश करना और ग्रहण करना अत्यन्त कठिन है। यमदेव ने नचिकेता से कहा - यह विषय तो अत्यन्त गूढ है तथा सुगम नहीं है। अत: तुम कोइ अन्य वर मांग लो और इस वर को मुझे ही छोड़ दो।
          वास्तव में यमदेव केवल नचिकेता के औत्सुक्य को उद्दीप्त कर रहे हैं और उसकी पात्रता की परीक्षा ले रहे हैं, बल्कि उसके मन में ब्रह्मज्ञान की महिमा को प्रतिष्ठित भी कर रहे हैं।

देवैरत्रापि विचिकित्सितं किल त्वञ्च मृत्यो यन्न सुविज्ञेयमात्थ।
वक्ता चास्य त्वादृगन्यो न लभ्यो नान्यो वरस्तुल्य एतस्य कश्चित् ॥
      नचिकेता अपनी गहन उत्सुकता तथा निश्चय की दृढ़ता का परिचय देता है तथा यम द्वारा आगृह न करने के परामर्श को स्वीकार नहीं करता। वह कहता है - हे यमराज, आपका कथन ठीक है कि विद्वान भी आत्मतत्त्व के विषय में संशयग्रस्त हैं और निर्णय नहीं ले पाते, किन्तु आप मृत्यु के देवता हैं और आपके समान कोई अन्य उपदेष्टा यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि मृत्यु के उपरान्त् आत्मा का अस्तित्व रहता है अथवा नहीं। मेरे प्रश्न द्वारा याचित वरदान के तुल्य महत्त्वपूर्ण अन्य कुछ भी नहीं हो सकता। यह एक विचित्र संयोग है कि आपके सदृश इस विषय का कोई अन्य ज्ञाता नहीं है और अध्यात्मविद्या के वर के समान अन्य कोई वर भी नहीं हो सकता।

शतायुष: पुत्रपौत्रान् वृणीष्व बहून् पशून् हस्तिहिरण्यमश्वान्।
भूमेर्महदायतनं वृणीष्व स्वयं च जीव शरदो यावदिच्छसि ॥

        यमराज ने नचिकेता को एक कुमार के मन की अवस्था के अनुरुप धन-धान्य मांग लेने के लिए कहा। यमराज ने उसे दीर्घायुवाले बेटे-पोते, बहुत से गौ आदि पशु, गज, अश्व, भूमि के विशाल क्षेत्र, स्वयंकी भी यथेच्छा आयु प्राप्त करने का प्रलोभन दिया और समझाया कि वह आत्मविद्या को सीखने के लिए उसे विवश न करे।

एतत्तुल्यं यदि मन्यसे वरं वृणीष्व वित्तं चिरजीविकां च।
महाभूभौ नचिकेतस्त्वमेधिकामानान्त्वा कामभाजं करोमि॥
        यमराज नचिकेता के मन को प्रलुब्ध करने के लिए अनेक कामोपभोगों की गणना करते हैं-अपार धन, जीवनयापन के साधन, विशाल भूमि पर शासन, अनन्त कामनाओं का भोगी। यमराज नचिकेता से कहते हैं कि वह आत्मज्ञान के समान किसी भी अन्य वर को मांग ले, जिसे वह उपयुक्त समझता हो। वास्तव में यमाचार्य नचिकेता के मन में आत्मज्ञान के प्रति उसकी उत्सुकता बढा रहे हैं और उसकी पात्रता को परख भी रहे हैं।

ये ये कामा दुर्लभा मर्त्यलोके सर्वान् कामांश्छन्दत: प्रार्थयस्व।
इमा रामा: सरथा: सतूर्या नहीदृशा लम्भनीया मनुष्यै:।
आभिर्मत्प्रत्ताभि: परिचारयस्व नचिकेतो ! मरणं मानुप्राक्षीः ॥
         यमाचार्य अनेक प्रकार से नचिकेता के अधिकारी (सुपात्र) होने की परीक्षा ले रहे हैं तथा मानवकल्पित सम्पूर्ण भोगों का प्रलोभन दिखा देते हैं। वे नचिकेता से कहते हैं कि वह स्वर्ग की अप्सराओं को, स्वर्गीय रथों और वाद्यों के सहित ले जाए जो मृत्यु लोक के मनुष्यों के लिए अलभ्य हैं तथा उनसे सेवा कराए, किन्तु आत्म ज्ञान विषयक प्रश्न न पूछे। किन्तु नचिकेता वैराग्य सम्पन्न और दृढनिश्चयी था। आत्मतत्त्व के सच्चे जिज्ञासु के लिए वैराग्यभाव तथा दृढनिश्चय होना आवश्यक होता है, अन्यथा वह अपनी साधना में अडिग नहीं रह सकता।

श्वोभावा मर्त्यस्य यदन्तकैतत् सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेज:।
अपि सर्वं जीवितमल्पमेव तवैव वाहास्तव नृत्यगीते ॥
          नचिकेता ने आत्मज्ञान की अपेक्षा सांसारिक सुख भोगों को तुच्छ घोषित कर दिया (नाशवान = आज हैं तो कल नहीं रहेंगे), भौतिक सुखभोग इन्द्रियों की शक्ति को क्षीण कर देते हैं तथा उनसे शान्ति नहीं होती। इसके अतिरिक्त मनुष्य का जीवन अल्प और अनिश्चित है। अतएव जिस विवेकशील पुरुष के लिए सत्य साध्य है एवं प्राप्य है, उसके लिए ये भौतिक सुखभोग त्याज्य हैं। नचिकेता यमदेव से कह देता है कि उसे ये नश्वर भोग-पदार्थ प्रलुब्ध नहीं करते तथा इन्हें वह अपने पास ही रखें।

न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो लप्स्यामहे वित्तमद्राक्ष्म चेत्त्वा।
जीविष्यामो यावदीशिष्यसि त्वं वरस्तु मे वरणीय: स एव॥
        नचिकेता ने एक परम सत्य का कथन किया है कि धन से मनुष्य की आत्यन्तिक तृप्ति नही हो सकती। उसने यमदेव को सम्मान देते हुए कहा - जब कि हमने आपके दर्शन प्राप्त कर लिए हैं, आपकी कृपा से धन तो हम पा ही लेंगे तथा आप जब तक शासन करते रहेंगे, हम भी तब तक जीवित रह सकेंगे। अत: धन और दीर्घायु की याचना करना व्यर्थ है।

कठोपनिषद् का पहला उपदेश नचिकेता के मुख से निस्सृत हुआ है।"न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्य:" को कण्ठस्थ करके इसके सारतत्त्व को ग्रहण कर लेना चहिए। मनुष्य की आत्यन्तिक तृप्ति कभी धन-सम्पत्ति से नहीं हो सकती। मनुष्य धन से सुख-सुविधा के साधनों को प्राप्त कर सकता है, किन्तु हमेशा सुख को प्राप्त नहीं कर सकता। मनुष्य के जीवन में धन बहुत कुछ है, किन्तु सब कुछ नही है।

इच्छाओं की तप्ति भोग से नहीं होती, जैसे कि अग्नि की शान्ति घृत डालने से नहीं होती, बल्कि वह अधिक उद्दीप्त हो जाती है।
उपरोक्त प्रसंग के चिन्तन से एक बात स्पष्ट होती है कि आत्मज्ञान सर्वोत्तम है । नचिकेता के सम्मुख आत्मज्ञान के बदले में संसार का वैभव दिया जाता है लेकिन वह धीर पुरुष आत्मज्ञान को ही अपना लक्ष रखता है । और यही बात आज संसार के लोगों के सम्मुख रखी जाय तो आत्मज्ञान को चुनने वाले विरले ही मिलेंगे, संसार का वैभव पाने वाले ही अधिकतर होंगे। और इनमें भी सही रास्ते से धन कमाने वाले  अब कम हो गये हैं , किसी भी तरह धन आये आज तो ऐसे लोगों की संख्या अधिक है।
     आगे चर्चा बहुत बड़ी है क्रमशः आप पढेंगे कि वर्तमान समाज कैसा है और इसके दूरगामी परिमाण क्या होगें ?
आत्मा कैसा है? इसकी गति क्या होगी?
शरीर का विश्लेषण? कर्म का आधार? कर्म के साधन? कर्म के प्रकार?
पाप पुण्य क्या है? इनका फल क्या है? क्या पाप के फल को किसी भी साधन या अनुष्ठान से बदला जा सकता है? इत्यादि।
क्रमशः ...

रोग प्रतिरोधक क्षमता वर्धक काढ़ा ( चूर्ण )

रोग_प्रतिरोधक_क्षमता_वर्धक_काढ़ा ( चूर्ण ) ( भारत सरकार / आयुष मन्त्रालय द्वारा निर्दिष्ट ) घटक - गिलोय, मुलहटी, तुलसी, दालचीनी, हल्दी, सौंठ...