सैद्धान्तिक चर्चा -१२. हरिशंकर अग्निहोत्री
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ध्यान दीजिए -
एक सज्जन ने इसी विषय को और स्पष्ट करने को कहा है तो आइए कुछ और लिखते हैं।[इस प्रकार के विषयों को ठीक ठीक से समझने के लिए वेद और ऋषियों के साहित्य का नित्य अध्ययन करना चाहिए]
० परमेश्वर, जीव और प्रकृति तीनों अनादि हैं, तीनो का अस्तित्व हमेशा रहता है, और ना तो ये एक दूसरे से बनते हैं और ना ही एक दूसरे में विलीन होते हैं। तीनों के कुछ गुणों में समानता होने से इनके एक ही होने की भ्रान्ति होने की सम्भावना हो सकती है।
जैसे परमेश्वर का एक नाम देव है और कुछ मनुष्यों को भी देव कहते हैं तथा प्रकृति के बने सूर्यादि पदार्थों को भी देव कहते हैं।
यहां यह जानना अत्यावश्यक है कि देव कहने से मनुष्य परमेश्वर नही हो जायेगा और सूर्य भी परमेश्वर या मनुष्यों जैसे व्यवहार करने योग्य नही हो जायेगा।
'दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु' इस धातु से ‘देव’ शब्द सिद्ध होता है। (क्रीडा) जो शुद्ध जगत् को क्रीडा कराने (विजिगीषा) धार्मिकों को जिताने की इच्छायुक्त (व्यवहार) सब चेष्टा के साधनोपसाधनों का दाता (द्युति) स्वयंप्रकाशस्वरूप, सब का प्रकाशक (स्तुति) प्रशंसा के योग्य (मोद) आप आनन्दस्वरूप और दूसरों को आनन्द देनेहारा (मद) मदोन्मत्तों का ताड़नेहारा (स्वप्न) सब के शयनार्थ रात्रि और प्रलय का करनेहारा (कान्ति) कामना के योग्य और (गति) ज्ञानस्वरूप है, इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘देव’ है।
उपरोक्त गुणों के आधार पर परमेश्वर देव कहलाता है तथा महर्षि यास्क के अनिसार 'देव' शब्द के अनेक अर्थ हैं - " देवो दानाद् वा , दीपनाद् वा , द्योतनाद् वा , द्युस्थानो भवतीति वा | " ( निरुक्त - ७ / १५ ) तदनुसार 'देव' का लक्षण है 'दान' अर्थात देना | जो सबके हितार्थ दान दे , वह देव है | देव का गुण है 'दीपन' अर्थात प्रकाश करना | सूर्य , चन्द्रमा और अग्नि को प्रकाश करने के कारण देव कहते हैं | देव का कर्म है 'द्योतन' अर्थात सत्योपदेश करना | जो मनुष्य सत्य माने , सत्य बोले और सत्य ही करे , वह देव कहलाता है | देव की विशेषता है 'द्युस्थान' अर्थात ऊपर स्थित होना | ब्रह्माण्ड में ऊपर स्थित होने से सूर्य को , समाज में ऊपर स्थित होने से विद्वान को , और राष्ट्र में ऊपर स्थित होने से राजा को भी देव कहते हैं | इस प्रकार 'देव' शब्द का प्रयोग जड़ और चेतन दोनों के लिए होता है |
यहां हमने समझा कि परमेश्वर भी देव है, जीव भी देव है और प्रकृति भी देव है लेकिन फिर भी तीनों एक नहीं है अलग अलग हैं।
इसीप्रकार
० 'भज सेवायाम्' इस धातु से ‘भग’ इससे मतुप् होने से ‘भगवान्’ शब्द सिद्ध होता है। ‘भगः सकलैश्वर्यं सेवनं वा विद्यते यस्य स भगवान्’ जो समग्र ऐश्वर्य से युक्त वा भजने के योग्य है, इसीलिए उस ईश्वर का नाम ‘भगवान्’ है।
तथा
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः ।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ।।
सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य―इन छह का नाम भग है। इन छह गुणों से युक्त महान व्यक्ति को भगवान कहा जा सकता है। इनमें से जिसके पास एक भी हो उसे भी भगवान् कहा जा सकता है। श्रीराम के पास तो थोड़ी बहुत मात्रा में ये सारे ही गुण थे इसलिए उन्हें भगवान कहकर सम्बोधित किया जाता है।
श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्री हनुमान, मनु महाराज आदि महापुरुष भगवान् थे ईश्वर नहीं थे, न ईश्वर के अवतार थे। वे एक महामानव थे। एक महापुरुष थे। महान आत्मा थे।
महान आत्मा अनेकों होती हैं।लेकिन परमात्मा केवल एक ही होता है।
ईश्वर को भी भगवान् कह सकते हैं परन्तु शरीरधारी कभी ईश्वर नहीं हो सकता, ईश्वर एक, निराकार, सर्वशक्तिमान् चेतन सत्ता है।
किसी महापुरुष के नाम के आगे जिसमें उपरोक्त गुण हों 'भगवान्' शब्द लगा सकते हैं।
जैसे― भगवान् राम, भगवान श्रीकृष्ण, भगवान् मनु, भगवान् दयानन्द आदि। लेकिन इससे वें ईश्वर नहीं हो जाते।
ईश्वर एक ही है जो सर्वशक्तिमान्, निराकार, अजन्मा, सर्वज्ञ और सर्वान्तर्यामी आदि गुणों से युक्त है।
ऐसा ही सर्वत्र समझना चाहिए।
क्रमशः...