शुक्रवार, 15 मार्च 2019

सैद्धान्तिक चर्चा -१२. ईश्वर, जीव और प्रकृति का अलग-अलग अस्तित्व है

सैद्धान्तिक चर्चा -१२.           हरिशंकर अग्निहोत्री

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यह चर्चा चूंकि लगातार की जा रही तथा आगे की चर्चा पिछली चर्चा से जुड़ी हुई होती है अतः सभी चर्चाओं को ध्यान से पढ़े।
आपसे निवेदन है कि आप सभी सज्जन अपनी टिप्पणी अवश्य लिखने की कृपा करें।

ध्यान दीजिए -
एक सज्जन ने इसी विषय को और स्पष्ट करने को कहा है तो आइए कुछ और लिखते हैं।[इस प्रकार के विषयों को ठीक ठीक से समझने के लिए वेद और ऋषियों के साहित्य का नित्य अध्ययन करना चाहिए]

० परमेश्वर, जीव और प्रकृति तीनों‌ अनादि हैं, तीनो का अस्तित्व हमेशा रहता है, और ना तो ये एक दूसरे से बनते हैं और ना ही एक दूसरे में विलीन होते हैं। तीनों के कुछ गुणों में समानता होने से इनके एक ही होने की भ्रान्ति होने की सम्भावना हो सकती है।
जैसे परमेश्वर का एक  नाम देव है और कुछ मनुष्यों को भी देव कहते हैं तथा प्रकृति के बने सूर्यादि पदार्थों को भी देव कहते हैं।
यहां यह जानना अत्यावश्यक है कि देव कहने से मनुष्य परमेश्वर नही हो जायेगा और सूर्य भी परमेश्वर या मनुष्यों जैसे व्यवहार करने योग्य नही हो जायेगा।

'दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु' इस धातु से ‘देव’ शब्द सिद्ध होता है। (क्रीडा) जो शुद्ध जगत् को क्रीडा कराने (विजिगीषा) धार्मिकों को जिताने की इच्छायुक्त (व्यवहार) सब चेष्टा के साधनोपसाधनों का दाता (द्युति) स्वयंप्रकाशस्वरूप, सब का प्रकाशक (स्तुति) प्रशंसा के योग्य (मोद) आप आनन्दस्वरूप और दूसरों को आनन्द देनेहारा (मद) मदोन्मत्तों का ताड़नेहारा (स्वप्न) सब के शयनार्थ रात्रि और प्रलय का करनेहारा (कान्ति) कामना के योग्य और (गति) ज्ञानस्वरूप है, इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘देव’ है।
उपरोक्त गुणों के आधार पर परमेश्वर देव कहलाता है तथा महर्षि यास्क के अनिसार 'देव' शब्द के अनेक अर्थ हैं - " देवो दानाद् वा , दीपनाद् वा , द्योतनाद् वा , द्युस्थानो भवतीति वा | " ( निरुक्त - ७ / १५ ) तदनुसार 'देव' का लक्षण है 'दान' अर्थात देना | जो सबके हितार्थ दान दे , वह देव है | देव का गुण है 'दीपन' अर्थात प्रकाश करना | सूर्य , चन्द्रमा और अग्नि को प्रकाश करने के कारण देव कहते हैं | देव का कर्म है 'द्योतन' अर्थात सत्योपदेश करना | जो मनुष्य सत्य माने , सत्य बोले और सत्य ही करे , वह देव कहलाता है | देव की विशेषता है 'द्युस्थान' अर्थात ऊपर स्थित होना | ब्रह्माण्ड में ऊपर स्थित होने से सूर्य को , समाज में ऊपर स्थित होने से विद्वान को , और राष्ट्र में ऊपर स्थित होने से राजा को भी देव कहते हैं | इस प्रकार 'देव' शब्द का प्रयोग जड़ और चेतन दोनों के लिए होता है |
यहां हमने समझा कि परमेश्वर भी देव है, जीव भी देव है और प्रकृति भी देव है लेकिन फिर भी तीनों एक नहीं है अलग अलग हैं।
इसीप्रकार

० 'भज सेवायाम्' इस धातु से ‘भग’ इससे मतुप् होने से ‘भगवान्’ शब्द सिद्ध होता है। ‘भगः सकलैश्वर्यं सेवनं वा विद्यते यस्य स भगवान्’ जो समग्र ऐश्वर्य से युक्त वा भजने के योग्य है, इसीलिए उस ईश्वर का नाम ‘भगवान्’ है।
तथा
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः ।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ।।
सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य―इन छह का नाम भग है। इन छह गुणों से युक्त महान व्यक्ति को भगवान कहा जा सकता है। इनमें से जिसके पास एक भी हो उसे भी भगवान् कहा जा सकता है। श्रीराम के पास तो थोड़ी बहुत मात्रा में ये सारे ही गुण थे इसलिए उन्हें भगवान कहकर सम्बोधित किया जाता है।

श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्री हनुमान, मनु महाराज आदि महापुरुष भगवान् थे  ईश्वर नहीं थे, न ईश्वर के अवतार थे। वे एक महामानव थे। एक महापुरुष थे। महान आत्मा थे।

महान आत्मा अनेकों होती हैं।लेकिन परमात्मा केवल एक ही होता है।

ईश्वर को भी भगवान् कह सकते हैं परन्तु शरीरधारी कभी ईश्वर नहीं हो सकता, ईश्वर एक, निराकार, सर्वशक्तिमान् चेतन सत्ता है।

किसी महापुरुष के नाम के आगे जिसमें उपरोक्त गुण हों 'भगवान्' शब्द लगा सकते हैं।
जैसे― भगवान् राम, भगवान श्रीकृष्ण, भगवान् मनु, भगवान् दयानन्द आदि। लेकिन इससे वें ईश्वर नहीं हो जाते।
ईश्वर एक ही है जो सर्वशक्तिमान्, निराकार, अजन्मा, सर्वज्ञ और सर्वान्तर्यामी आदि गुणों से युक्त है।
ऐसा ही सर्वत्र समझना चाहिए।

क्रमशः...

सैद्धान्तिक चर्चा ९.

सैद्धान्तिक चर्चा  ९.            हरिशंकर अग्निहोत्री

'मेदते मिद्यते, स्निह्यति स्निह्यते वा स मित्रः' जो सबसे स्नेह करे और सबको प्रीति करने योग्य है, इससे उस परमेश्वर का नाम "मित्र" है।

जो आत्मयोगी, विद्वान्, मुक्ति की इच्छा करने वाले मुक्त और धर्मात्माओं का स्वीकारकर्त्ता, अथवा जो शिष्ट मुमुक्षु मुक्त और धर्मात्माओं से ग्रहण किया जाता है वह ईश्वर ‘वरुण’ संज्ञक है। अथवा ‘वरुणो नाम वरः श्रेष्ठः’ जिसलिए परमेश्वर सब से श्रेष्ठ है, इसीलिए उस का नाम ‘'वरुण" है।

‘सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च’ इस यजुर्वेद के वचन से जो जगत् नाम प्राणी, चेतन और जंगम अर्थात् जो चलते-फिरते हैं, ‘तस्थुषः’ अप्राणी अर्थात् स्थावर जड़ अर्थात् पृथिवी आदि हैं, उन सब के आत्मा होने और स्वप्रकाशरूप सब के प्रकाश करने से परमेश्वर का नाम ‘सूर्य’ है।

‘यो बृहतामाकाशादीनां पतिः स्वामी पालयिता स बृहस्पतिः’ जो बड़ों से भी बड़ा और बड़े आकाशादि ब्रह्माण्डों का स्वामी है, इस से उस परमेश्वर का नाम ‘बृहस्पति’ है।

'अत सातत्यगमने' इस धातु से ‘आत्मा’ शब्द सिद्ध होता है। ‘योऽतति व्याप्नोति स आत्मा’ जो सब जीवादि जगत् में निरन्तर व्यापक हो रहा है। ‘परश्चासावात्मा च य आत्मभ्यो जीवेभ्यः सूक्ष्मेभ्यः परोऽतिसूक्ष्मः स परमात्मा’ जो सब जीव आदि से उत्कृष्ट और जीव, प्रकृति तथा आकाश से भी अतिसूक्ष्म और सब जीवों का अन्तर्यामी आत्मा है, इस से ईश्वर का नाम ‘परमात्मा’ है।

सामर्थ्यवाले का नाम ईश्वर है। ‘य ईश्वरेषु समर्थेषु परमः श्रेष्ठः स परमेश्वरः’ जो ईश्वरों अर्थात् समर्थों में समर्थ, जिस के तुल्य कोई भी न हो, उस का नाम ‘परमेश्वर’ है।

'दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु' इस धातु से ‘देव’ शब्द सिद्ध होता है। (क्रीडा) जो शुद्ध जगत् को क्रीडा कराने (विजिगीषा) धार्मिकों को जिताने की इच्छायुक्त (व्यवहार) सब चेष्टा के साधनोपसाधनों का दाता (द्युति) स्वयंप्रकाशस्वरूप, सब का प्रकाशक (स्तुति) प्रशंसा के योग्य (मोद) आप आनन्दस्वरूप और दूसरों को आनन्द देनेहारा (मद) मदोन्मत्तों का ताड़नेहारा (स्वप्न) सब के शयनार्थ रात्रि और प्रलय का करनेहारा (कान्ति) कामना के योग्य और (गति) ज्ञानस्वरूप है, इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘देव’ है।

'पृथु विस्तारे' इस धातु से ‘पृथिवी’ शब्द सिद्ध होता है।’ ‘यः पर्थति सर्वं जगद्विस्तृणाति तस्मात् स पृथिवी’ जो सब विस्तृत जगत् का विस्तार करने वाला है, इसलिए उस ईश्वर का नाम ‘पृथिवी’ है।

'जल घातने' इस धातु से ‘जल’ शब्द सिद्ध होता है, ‘जलति घातयति दुष्टान् सङ्घातयति अव्यक्तपरमाण्वादीन् तद् ब्रह्म जलम्’ जो दुष्टों का ताड़न और अव्यक्त तथा परमाणुओं का अन्योऽन्य संयोग वा वियोग करता है, वह परमात्मा ‘जल’ संज्ञक कहाता है।

'काशृ दीप्तौ' इस धातु से ‘आकाश’ शब्द सिद्ध होता है, ‘यः सर्वतः सर्वं जगत् प्रकाशयति स आकाशः’ जो सब ओर से सब जगत् का प्रकाशक है, इसलिए उस परमात्मा का नाम ‘आकाश’ है।

'अद् भक्षणे' इस धातु से ‘अन्न’ शब्द सिद्ध होता है। जो सब को भीतर रखने, सब को ग्रहण करने योग्य, चराऽचर जगत् का ग्रहण करने वाला है, इस से ईश्वर के ‘अन्न’, ‘अन्नाद’ और ‘अत्ता’ नाम हैं।

'चदि आह्लादे' इस धातु से ‘चन्द्र’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यश्चन्दति चन्दयति वा स चन्द्रः’ जो आनन्दस्वरूप और सब को आनन्द देनेवाला है, इसलिए ईश्वर का नाम ‘चन्द्र’ है।

'मगि गत्यर्थक' धातु से ‘मङ्गेरलच्’ इस सूत्र से ‘मङ्गल’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यो मङ्गति मङ्गयति वा स मङ्गलः’ जो आप मङ्गलस्वरूप और सब जीवों के मङ्गल का कारण है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘मङ्गल’ है।

'बुध अवगमने' इस धातु से ‘बुध’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यो बुध्यते बोध्यते वा स बुधः’ जो स्वयं बोधस्वरूप और सब जीवों के बोध का कारण है। इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘बुध’ है। ‘

'ईशुचिर् पूतीभावे' इस धातु से ‘शुक्र’ शब्द सिद्ध हुआ है। ‘यः शुच्यति शोचयति वा स शुक्रः’ जो अत्यन्त पवित्र और जिसके संग से जीव भी पवित्र हो जाता है, इसलिये ईश्वर का नाम ‘शुक्र’ है।

'चर गतिभक्षणयोः' इस धातु से ‘शनैस्’ अव्यय उपपद होने से ‘शनैश्चर’ शब्द सिद्ध हुआ है। ‘यः शनैश्चरति स शनैश्चरः’ जो सब में सहज से प्राप्त धैर्यवान् है, इससे उस परमेश्वर का नाम ‘शनैश्चर’ है।

'रह त्यागे) इस धातु से ‘राहु’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यो रहति परित्यजति दुष्टान् राहयति त्याजयति स राहुरीश्वरः’। जो एकान्तस्वरूप जिसके स्वरूप में दूसरा पदार्थ संयुक्त नहीं, जो दुष्टों को छोड़ने और अन्य को छुड़ाने हारा है, इससे परमेश्वर का नाम ‘राहु’ है।

'कित निवासे रोगापनयने च' इस धातु से ‘केतु’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यः केतयति चिकित्सति वा स केतुरीश्वरः’ जो सब जगत् का निवासस्थान, सब रोगों से रहित और मुमुक्षुओं को मुक्ति समय में सब रोगों से छुड़ाता है, इसलिए उस परमात्मा का नाम ‘केतु’ है।

[ ध्यान दें - आपने पढ़ा कि परमेश्वर के पृथ्वी, जल, सूर्य, बृहस्पति और शनैश्चर आदि नाम है तो क्या यह शनैश्चर आदि जो ग्रह या अन्य जल आदि पदार्थ है यह अब भी ईश्वर हैं क्या ?
देव, ईश्वर, भगवान, जीव और अन्य सब पदार्थों को कैसे पृथक-पृथक समझें इसके लिए आगे की चर्चा में लिखेंगे]

क्रमशः ...

सैद्धान्तिक चर्चा -१०.

सैद्धान्तिक चर्चा  -१०.

ध्यान दें-
० परमेश्वर को देव, भगवान, ईश्वर, ब्रह्मा, विष्णु, देवी और शनैश्चर आदि नामों से जाना जाता है तथा भगवान और शनि आदि शब्दों को परमेश्वर से अलग अन्य पदार्थों के लिए भी प्रयोग किया जाता है।

० ओ३म् और अग्न्यादि नामों के मुख्य अर्थ से परमेश्वर का ही ग्रहण होता है, जैसा कि व्याकरण, निरुक्त, ब्राह्मण, सूत्रादि, ऋषि मुनियों के व्याख्यानों से परमेश्वर का ग्रहण देखने में आता है, वैसा ग्रहण करना सबको योग्य है, परन्तु "ओ३म्" यह तो केवल परमात्मा का ही नाम है और अग्नि आदि नामों से परमेश्वर के ग्रहण में प्रकरण और विशेषण नियम कारक है। इससे क्या सिद्ध होता है कि जहां-जहां स्तुति, प्रार्थना, उपासना, सर्वज्ञ, व्यापक, शुद्ध, सनातन और सृष्टिकर्ता आदि विशेषण लिखे हैं, वहीं-वहीं इन नामों से परमेश्वर का ग्रहण होता है और जहां-जहां ऐसे प्रकरण है कि -
ततो विराडजायत विराजोऽअधि पूरुषः।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत। ।
तेन देवा अयजन्त।
पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥(यजुर्वेद)
तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः। आकाशाद्वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अद्भ्यः पृथिवी। पृथिव्या ओषधयः। ओषधिभ्योऽन्नम्। अन्नाद्रेतः। रेतसः पुरुषः। स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः।(तैत्तिरीयोपनिषद्)

ऐसे प्रमाणों में विराट्, पुरुष, देव, आकाश, वायु, अग्नि, जल, भूमि आदि नाम लौकिक पदार्थों के होते हैं, क्योंकि जहाँ-जहाँ उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, अल्पज्ञ, जड़, दृश्य आदि विशेषण भी लिखे हों, वहाँ-वहाँ परमेश्वर का ग्रहण नहीं होता। वह उत्पत्ति आदि व्यवहारों से पृथक् हैं और उपरोक्त मन्त्रों में उत्पत्ति आदि व्यवहार हैं, इसी से यहाँ विराट् आदि नामों से परमात्मा का ग्रहण न हो के संसारी पदार्थों का ग्रहण होता है। किन्तु जहाँ-जहाँ सर्वज्ञादि विशेषण हों, वहीं-वहीं परमात्मा और जहाँ-जहाँ इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और अल्पज्ञादि विशेषण हों, वहाँ-वहाँ जीव का ग्रहण होता है, ऐसा सर्वत्र समझना चाहिए। क्योंकि परमेश्वर का जन्म-मरण कभी नहीं होता, इससे विराट् आदि नाम और जन्मादि विशेषणों से जगत् के जड़ और जीवादि पदार्थों का ग्रहण करना उचित है, परमेश्वर का नहीं।

० विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है - जहां परमेश्वर को भगवान कहते हैं वहां ऐश्वर्यवान मनुष्य को भी भगवान कह सकते है लेकिन यहां यह समझना आवश्यक है कि परमेश्वर शरीर धारण नही करता और जो मनुष्य ऐश्वर्यशाली है जिसे हम भगवान कह सकते है वह परमेश्वर नही हो सकता।

० जैसे परमेश्वर के सत्य, न्याय, दया, सर्वसामर्थ्य और सर्वज्ञत्वादि अनन्त गुण हैं, वैसे अन्य किसी जड़ पदार्थ वा जीव के नहीं हैं। जो पदार्थ सत्य है, उस के गुण, कर्म, स्वभाव भी सत्य ही होते हैं। इसलिये सब मनुष्यों को योग्य है कि परमेश्वर ही की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करें, उससे भिन्न की कभी न करें। क्योंकि ब्रह्मा, विष्णु, महादेव नामक पूर्वज महाशय विद्वान्, दैत्य दानवादि निकृष्ट मनुष्य और अन्य साधारण मनुष्यों ने भी परमेश्वर ही में विश्वास करके उसी की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करी, उससे भिन्न की नहीं की। वैसे हम सब को करना योग्य है।

क्रमशः ...

सैद्धान्तिक चर्चा -११. ईश्वर, जीव और प्रकृति

सैद्धान्तिक चर्चा  -११.               हरिशंकर अग्निहोत्री

० वर्तमान में वैचारिक प्रदूषण इतना है कि सैद्धान्तिक रूप से ईश्वर, जीव और प्रकृति की सही सही जानकारी समाज में प्रचारित नही है।

० कुछ ऐसा मानते हैं कि ईश्वर है ही नही सब कुछ प्रकृति से ही बना है , और कुछ ईश्वर को तो मानते हैं लेकिन जीव और प्रकृति के अस्तित्व को नकारते हैं और कहते हैं कि सब कुछ ईश्वर में से ही बना है । कुछ ऐसा कहते हैं कि ईश्वर और प्रकृति है तथा जीव तो ईश्वर का ही अंश है , और कुछ कहते हैं कि ईश्वर और जीव हैं प्रकृति तो परमात्मा ने बनायी है। इनको अद्वैतवाद, द्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद आदि नामों से प्रचारित किया गया है।

० यहां यह जानना आवश्यक है कि यह जगत किसी भी मनुष्य की व्यक्तिगत मान्यताओं पर आधारित नही चलता और एक बात जो बहुत चिन्तन करने योग्य है जिसकी चर्चा हमने आरम्भ में की ( सैद्धान्तिक चर्चा १ और २) कि मनुष्य के पास ज्ञान बहुत थोड़ा है ईश्वर ही ज्ञान का प्रकाशक है बिना ईश्वर के कहीं भी ज्ञान नही आ सकता, निमित्त से वेद का ठीक से अध्ययन करने बाद ही सिद्धान्तों को समझा जा सकता है।

० इस सम्पूर्ण जड़ और चेतन जगत में तीन अनादि तत्व हैं - एक ईश्वर दूसरा जीव और तीसरा प्रकृति ।
= ईश्वर एक ऐसी सत्ता है जो सर्वव्यापक है, सर्वशक्तिमान है और निराकार आदि अनन्त गुणों वाली है काया(शरीर) में नही आती है
= ‌जीव एकदेशी है, अल्प सामर्थ्य वाला है और मनुष्य, पशु आदि शरीर धारण करती है।
= प्रकृति से ही सम्पूर्ण जगत का निर्माण होता है - महत्, अहम् मन, ज्ञानेन्द्रियां, कर्मेन्द्रिया, तन्मात्रायें और स्थूल भूत- अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश और इनसे वनस्पति और जन्तुओं के शरीर आदि का निर्माण प्रकृति से ही बनता है।
= ईश्वर इस जगत को प्रकृति से बनाता है और फिर जीव जब मनुष्य के शरीर में आकर परमेश्वर के वेद ज्ञान को समझकर इस सृष्टि के पदार्थों से ही कुछ वस्तुओं का निर्माण करता है। जैसे मिट्टि परमेश्वर ने मूल प्रकृति से बनायी है और फिर मनुष्य मिट्टी से घट आदि का निर्माण करता है ।

० विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है जब जब किसी शब्द से यह समझ नही आये कि यह किसके लिए (ईश्वर, जीव और प्रकृति के लिए ) प्रयोग किया गया है जैसे शनि कौन है चूंकि परमेश्वर का भी नाम शनैश्चर है और शनि किसी मनुष्य का भी नाम हो सकता है और शनि सूर्य की परिक्रमा करने वाला ग्रह भी है, तब कैसे पहचाने कि शनि शब्द किसके लिए किसका ग्रहण किया जाय । पछली चर्चा में भी इस विषय को स्पष्ट किया गया था यहां कुछ और सरलता से स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज के आधार पर ही इसका ठीक ठीक स्पष्टीकरण करण हो सकता है महर्षि कहते है कि जब जब ऐसा हो तो विशेषण जान लो अर्थात् विशेषण जानने से पदार्थ का सही बोध होता है ।
एक उदाहरण लेते हैं - एक व्यक्ति विद्यालय के द्वार पर आकर द्वारपाल को कहता है कि मुझे रमेश से मिलना है तब द्वारपाल चिन्तन करने लगता है कि विद्यालय के प्रधानाचार्य का नाम रमेश है, गणित के अध्यापक का नाम रमेश है और एक रमेश नाम का विद्यार्थी भी है अब इस व्यक्ति को किसके पास भेजूं । अब यहां यह सही होगा कि उस व्यक्ति से यह पूछा जाय कि रमेश क्या करता है तब सही रमेश से मिलाया जायेगा , ऐसा पूछने पर उस व्यक्ति ने कहा कि वह गणित पढा़ता है तब रमेश से मिलाने में कोई समस्या नही रही। ठीक इसी प्रकार
जहां-जहां स्तुति, प्रार्थना, उपासना, करने योग्य सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, शुद्ध, सनातन और सृष्टिकर्ता आदि विशेषण लिखे हैं, वहीं-वहीं परमेश्वर का ग्रहण होता है
और जहाँ-जहाँ उत्पत्ति, प्रलय , जड़, दृश्य आदि विशेषण  हों, वहाँ-वहाँ परमेश्वर का ग्रहण नहीं होता। वह उत्पत्ति आदि व्यवहारों से पृथक् हैं तब परमात्मा का ग्रहण न हो के संसारी पदार्थों का ग्रहण होता है।

और जहाँ-जहाँ इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और अल्पज्ञादि विशेषण हों, वहाँ-वहाँ जीव का ग्रहण होता है, ऐसा सर्वत्र समझना चाहिए। क्योंकि परमेश्वर का जन्म-मरण कभी नहीं होता।

क्रमशः...

रोग प्रतिरोधक क्षमता वर्धक काढ़ा ( चूर्ण )

रोग_प्रतिरोधक_क्षमता_वर्धक_काढ़ा ( चूर्ण ) ( भारत सरकार / आयुष मन्त्रालय द्वारा निर्दिष्ट ) घटक - गिलोय, मुलहटी, तुलसी, दालचीनी, हल्दी, सौंठ...