गुरुवार, 12 नवंबर 2020

शारदीय नवसस्येष्टि ( दीपावली ) एवं महर्षि दयानन्द सरस्वती निर्वाण दिवस

शारदीय नवसस्येष्टि 

( दीपावली )

एवं

महर्षि दयानन्द सरस्वती

निर्वाण दिवस


        शरद काल में आने वाली फसल आने पर किया जाने वाला यज्ञ 'शारदीय नवसस्येष्टि' कहलाता है। यह वर्ष के चार प्रमुख त्यौहारों में से एक है। यह त्यौहार शरद काल में कार्तिक की अमावस्या के दिन मनाया जाता है। इस त्यौहार को बड़ी ही धूम धाम से मनाना चाहिए।

         यह वैदिक काल से मनाया जा रहा है आज इसकी ऐतिहासिक मान्यताओं को बदल‌कर प्रचार किया जा रहा है जो कि भारतीय वैदिक परम्पराओं तथा सामाजिक और राष्ट्रीय दृष्टि से बहुत ही हानिकर है।


कृपया ध्यान दें - इस दिन सभी को अपने अपने परिवार, संस्था और प्रतिष्ठान आदि में निम्नलिखित विधि से विशेष यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिए।


      आज के दिन‌ किये जाने वाले यज्ञ की विधि

० आचमन 

० अङ्गस्पर्श

० ईश्वरस्तुतिप्रार्थनाउपासनामन्त्राः

० स्वस्तिवाचनम्

० शान्तिकरणम्

० दैनिक अग्निहोत्र

० अमावस्या का पाक्षिक यज्ञ

० ऋषि निर्वाण दिवस पर विशेष मन्त्रों द्वारा यज्ञ

० नवसस्येष्टि के मन्त्रों से यज्ञ


यह उपरोक्त विधि विस्तार से नीचे दी जा रही है


आचमन 

ओम् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा॥1॥ 

इस से एक।

ओम् अमृतापिधानमसि स्वाहा॥2॥ 

इस से दूसरा।

ओं सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा॥3॥

 इस से तीसरा आचमन करके, तत्पश्चात् नीचे लिखे मन्त्रों से जल करके अंगों का स्पर्श करें—

अङ्गस्पर्श

ओं वाङ्म आस्येऽस्तु॥1॥ इस मन्त्र से मुख।

नसोर्मे प्राणोऽस्तु॥2॥ इस मन्त्र से नासिका के दोनों छिद्र।

ओम् अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु॥3॥ इस मन्त्र से दोनों आँखें।

ओं कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु॥4॥ इस मन्त्र से दोनों कान।

ओं बाह्वोर्मे बलमस्तु॥5॥ इस मन्त्र से दोनों बाहु।

ओम् ऊर्वोर्मऽओजोऽस्तु॥6॥ इस मन्त्र से दोनों जंघा और

ओम् अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु॥

इस मन्त्र से दाहिने हाथ से जल-स्पर्श करके मार्जन करना।

अथेश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासनामन्त्राः॥


ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।

यद् भद्रं तन्नऽआ सुव॥1॥ 

—यजुः अ॰ 30। मं॰ 3॥


अर्थ—हे (सवितः) सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, (देव) शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके (नः) हमारे (विश्वानि) सम्पूर्ण (दुरितानि) दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को (परा सुव) दूर कर दीजिये। (यत्) जो (भद्रम्) कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, (तत्) वह सब हम को (आ सुव) प्राप्त कीजिए॥1॥


हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।

स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥2॥

—यजुः अ॰ 13। मं॰ 4॥


अर्थ—जो (हिरण्यगर्भः) स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने प्रकाश करनेहारे सूर्य-चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं, जो (भूतस्य) उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का (जातः) प्रसिद्ध (पतिः) स्वामी (एकः) एक ही चेतनस्वरूप (आसीत्) था, जो (अग्रे) सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व (समवर्त्तत) वर्तमान था, (सः) सो (इमाम्) इस (पृथिवीम्) भूमि (उत) और (द्याम्) सूर्यादि को (दाधार) धारण कर रहा है। हम लोग उस (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) शुद्ध परमात्मा के लिए (हविषा) ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से (विधेम) विशेष भक्ति किया करें॥2॥


यऽ आत्मदा बलदा यस्य विश्वऽउपासते प्रशिषं यस्य देवाः।

यस्य च्छायाऽमृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥3॥

—यजुः अ॰ 25। मं॰ 13॥


अर्थ—(यः) जो (आत्मदाः) आत्मज्ञान का दाता, (बलदाः) शरीर, आत्मा और समाज के बल का देनेहारा, (यस्य) जिस की (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (उपासते) उपासना करते हैं, और (यस्य) जिस का (प्रशिषम्) प्रत्यक्ष, सत्यस्वरूप शासन और न्याय अर्थात् शिक्षा को मानते हैं, (यस्य) जिस का (छाया) आश्रय ही (अमृतम्) मोक्षसुखदायक है, (यस्य) जिस का न मानना अर्थात् भक्ति न करना ही (मृत्युः) मृत्यु आदि दुःख का हेतु है, हम लोग उस (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) सकल ज्ञान के देनेहारे परमात्मा की प्राप्ति के लिये (हविषा) आत्मा और अन्तःकरण से (विधेम) भक्ति अर्थात् उसी की आज्ञा पालन करने में तत्पर रहें॥3॥


यः प्राणतो निमिषतो महित्वैकऽ इद्राजा जगतो बभूव।

यऽईशेऽ अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥4॥

—यजुः अ॰ 23। मं॰ 3


अर्थ—(यः) जो (प्राणतः) प्राणवाले और (निमिषतः) अप्राणिरूप (जगतः) जगत् का (महित्वा) अपने अनन्त महिमा से (एकः इत्) एक ही (राजा) विराजमान राजा (बभूव) है, (यः) जो (अस्य) इस (द्विपदः) मनुष्यादि और (चतुष्पदः) गौ आदि प्राणियों के शरीर की (ईशे) रचना करता है, हम लोग उस (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) सकलैश्वर्य के देनेहारे परमात्मा के लिये (हविषा) अपनी सकल उत्तम सामग्री से (विधेम) विशेष भक्ति करें॥4॥


येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा येन स्वः स्तभितं येन नाकः।

योऽअन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥5॥

—यजुः अ॰ 32। मं॰ 6॥


अर्थ—(येन) जिस परमात्मा ने (उग्रा) तीक्ष्ण स्वभाव वाले (द्यौः) सूर्य आदि (च) और (पृथिवी) भूमि को (दृढा) धारण, (येन) जिस जगदीश्वर ने (स्वः) सुख को (स्तभितम्) धारण, और (येन) जिस ईश्वर ने (नाकः) दुःखरहित मोक्ष को धारण किया है, (यः) जो (अन्तरिक्षे) आकाश में (रजसः) सब लोकलोकान्तरों को (विमानः) विशेष मानयुक्त अर्थात् जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं, वैसे सब लोकों का निर्माण करता और भ्रमण कराता है, हम लोग उस (कस्मै) सुखदायक (देवाय) कामना करने के योग्य परब्रह्म की प्राप्ति के लिये (हविषा) सब सामर्थ्य से (विधेम) विशेष भक्ति करें॥5॥


प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।

यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नोऽअस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥6॥

—ऋ॰ म॰ 10। सू॰ 121। म॰ 10॥


अर्थ—हे (प्रजापते) सब प्रजा के स्वामी परमात्मा ! (त्वत्) आप से (अन्यः) भिन्न दूसरा कोई (ता) उन (एतानि) इन (विश्वा) सब (जातानि) उत्पन्न हुए जड़ चेतनादिकों को (न) नहीं (परि बभूव) तिरस्कार करता है, अर्थात् आप सर्वोपरि हैं। (यत्कामाः) जिस-जिस पदार्थ की कामनावाले हम लोग (ते) आपका (जुहुमः) आश्रय लेवें और वाञ्छा करें, (तत्) उस-उस की कामना (नः) हमारी सिद्ध (अस्तु) होवे। जिस से (वयम्) हम लोग (रयीणाम्) धनैश्वर्यों के (पतयः) स्वामी (स्याम) होवें॥6॥


स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।

यत्र    देवाऽ अमृतमानशानास्तृतीये  धामन्नध्यैरयन्त ॥7॥

—यजु॰ अ॰ 32। मं॰ 10॥


अर्थ—हे मनुष्यो! (सः) वह परमात्मा (नः) अपने लोगों का (बन्धुः) भ्राता के समान सुखदायक, (जनिता) सकल जगत् का उत्पादक, (सः) वह (विधाता) सब कामों का पूर्ण करनेहारा, (विश्वा) सम्पूर्ण (भुवनानि) लोकमात्र और (धामानि) नाम, स्थान, जन्मों को (वेद) जानता है। और (यत्र) जिस (तृतीये) सांसारिक सुखदुःख से रहित, नित्यानन्दयुक्त (धामन्) मोक्षस्वरूप, धारण करनेहारे परमात्मा में (अमृतम्) मोक्ष को (आनशानाः) प्राप्त होके (देवाः) विद्वान् लोग (अध्यैरयन्त) स्वेच्छापूर्वक विचरते हैं, वही परमात्मा अपना गुरु आचार्य राजा और न्यायाधीश है। अपने लोग मिलके सदा उस की भक्ति किया करें॥7॥


अग्ने नय सुपथा रायेऽ अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नमऽउक्तिं विधेम ॥8॥

—यजुः अ॰ 40। मं॰ 16


अर्थ—हे (अग्ने) स्वप्रकाश, ज्ञानस्वरूप, सब जगत् के प्रकाश करनेहारे, (देव) सकल सुखदाता परमेश्वर ! आप जिस से (विद्वान्)सम्पूर्ण विद्यायुक्त हैं, कृपा करके (अस्मान्) हम लोगों को (राये) विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये (सुपथा) अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से (विश्वानि) सम्पूर्ण (वयुनानि) प्रज्ञान और उत्तम कर्म (नय) प्राप्त कराइये। और (अस्मत्) हम से (जुहुराणम्) कुटिलतायुक्त (एनः) पापरूप कर्म को (युयोधि) दूर कीजिये। इस कारण हम लोग (ते) आपकी (भूयिष्ठाम्) बहुत प्रकार की स्तुतिरूप (नमः उक्तिम्) नम्रतापूर्वक प्रशंसा (विधेम) सदा किया करें, और सर्वदा आनन्द में रहें॥8॥


॥ इतीश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासनाप्रकरणम्॥


अथ स्वस्तिवाचनम्


अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्।

होतारं रत्नधातमम्॥1॥

स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव।

सचस्वा नः स्वस्तये॥2॥   

—ऋ॰म॰ 1। सू॰ 1। मं॰ 1, 9।

स्वस्ति नो मिमीतामश्विना भगः स्वस्ति देव्यदितिरनर्वणः।

स्वस्ति पूषा असुरो दधातु नः स्वस्ति द्यावापृथिवी सुचेतुना॥3॥

स्वस्तये वायुमुप ब्रवामहै सोमं स्वस्ति भुवनस्य यस्पतिः।

बृहस्पतिं सर्वगणं स्वस्तये स्वस्तय आदित्यासो भवन्तु नः॥4॥

विश्वे देवा नो अद्या स्वस्तये वैश्वानरो वसुरग्निः स्वस्तये।

देवा अवन्त्वृभवः स्वस्तये स्वस्ति नो रुद्रः पात्वंहसः॥5॥

स्वस्ति मित्रावरुणा    स्वस्ति पथ्ये  रेवति।

स्वस्ति न इन्द्रश्चाग्निश्च स्वस्ति नो अदिते कृधि॥6॥

स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव।

पुनर्ददताघ्नता जानता सं     गमेमहि॥7॥

—ऋ॰ मं॰ 5। सू॰ 51।11-15॥

ये देवानां यज्ञिया यज्ञियानां मनोर्यजत्रा अमृता ऋतज्ञाः।

ते नो रासन्तामुरुगायमद्य यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः॥8॥

—ऋ॰ मं॰ 7। सू॰ 35।65॥

येभ्यो माता मधुमत् पिन्वते पयः

पीयूषं द्यौरदितिरद्रिबर्हाः।

उक्थशुष्मान् वृषभरान्त्स्वप्नसस्ताँ

आदित्याँ अनु मदा स्वस्तये॥9॥

नृचक्षसो अनिमिषन्तो अर्हणा बृहद् देवासो अमृतत्वमानशुः।

ज्योतीरथा अहिमाया अनागसो दिवो वर्ष्माणं वसते स्वस्तये॥10॥

सम्राजो ये सुवृधो यज्ञमाययुरपरिह्वृता दधिरे दिवि क्षयम्।

ताँ आ विवास नमसा सुवृक्तिभिर्महो

आदित्याँ अदितिं स्वस्तये॥11॥

को वः स्तोमं राधति यं जुजोषथ विश्वे देवासो मनुषो यति ष्ठन।

को वोऽध्वरं तुविजाता अरं करद्यो नः पर्षदत्यंहः स्वस्तये॥12॥

येभ्यो होत्रां प्रथमामायेजे मनुः

समिद्धाग्निर्मनसा सप्त होतृभिः।

त आदित्या अभयं शर्म यच्छत

सुगा नः कर्त सुपथा स्वस्तये॥13॥

य ईशिरे भुवनस्य प्रचेतसो विश्वस्य स्थातुर्जगतश्च मन्तवः।

ते नः कृतादकृतादेनसस्पर्यद्या देवासः पिपृता स्वस्तये॥14॥

भरेष्विन्द्रं सुहवं हवामहेंऽहोमुचं सुकृतं दैव्यं जनम्।

अग्निं मित्रं वरुणं सातये भगं द्यावापृथिवी मरुतः स्वस्तये॥15॥

सुत्रामाणं पृथिवीं द्यामनेहसं सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम्।

दैवी नावं स्वरित्रामनागसमस्रवन्तीमा रुहेमा स्वस्तये॥16॥

विश्वे यजत्रा अधि वोचतोतये त्रायध्वं नो दुरेवाया अभिह्रुतः।

सत्यया वो देवहूत्या हुवेम शृण्वतो देवा अवसे स्वस्तये॥17॥

अपामीवामप विश्वामनाहुतिमपारातिं दुर्विदत्रामघायतः।

आरे देवा द्वेषो अस्मद् युयोतनोरु णः शर्म यच्छता स्वस्तये॥18॥

अरिष्टः स मर्त्तो विश्व एधते प्र प्रजाभिर्जायते धर्मणस्परि।

यमादित्यासो नयथा सुनीतिभिरति विश्वानि दुरिता स्वस्तये॥19॥

यं देवासोऽवथ वाजसातौ यं शूरसाता मरुतो हिते धने।

प्रातर्यावाण रथमिन्द्र सानसिमरिष्यन्तमा रुहेमा स्वस्तये॥20॥

स्वस्ति नः पथ्यासु धन्वसु स्वस्त्य१प्सु वृजने स्वर्वति।

स्वस्ति नः पुत्रकृथेषु योनिषु स्वस्ति राये मरुतो दधातन॥21॥

स्वस्तिरिद्धि प्रपथे श्रेष्ठा रेक्णस्वस्त्यभि या वाममेति।

सा नो अमा सो अरणे नि पातु स्वावेशा भवतु देवगोपा॥22॥

—ऋ॰ मं॰ 10। सू॰ 63॥ [मं॰ 3-16]

इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽआप्यायध्वमघ्न्याऽ इन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवाऽअयक्ष्मा मा व स्तेनऽ ईशत माघशंसो ध्रुवाऽ अस्मिन् गोपतौ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून् पाहि॥23॥                           

—यजु॰ अ॰ 1। मं॰ 1

आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासोऽअपरीतासऽउद्भिदः।

देवा नो यथा सदमिद्वृधेऽ असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे॥24॥

देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवानां रातिरभि नो निवर्तताम्।

देवानां सख्यमुपसेदिमा वयं देवा नऽआयुः प्रतिरन्तु जीवसे॥25॥

तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमवसे हूमहे वयम्।

पूषा नो यथा वेदसामसद्वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये॥26॥

स्वस्ति नऽ इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।

स्वस्ति नस्तार्क्ष्योऽ अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥27॥

भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।

स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः॥28॥

—यजु॰ अ॰ 25। मं॰ 14, 15, 18, 19, 21॥

अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये।

नि होता सत्सि बर्हिषि॥29॥

त्वमग्ने यज्ञानां होता विश्वेषां हितः।

देवेभिर्मानुषे जने॥30॥

—साम॰ पूर्वा॰ प्रपा॰ 1। मं॰ 1, 2॥

ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः।

वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वो अद्य दधातु मे॥31॥

—अथर्व॰ कां॰ 1। सू॰ 1। मं॰ 1॥


॥ इति स्वस्तिवाचनम्॥


अथ शान्तिकरणम्


शं न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शं न इन्द्रावरुणा रातहव्या।

शमिन्द्रासोमा सुविताय शं योः शं न इन्द्रापूषणा वाजसातौ॥1॥

शं नो भगः शमु नः शंसो अस्तु शं नः पुरन्धिः शमु सन्तु रायः।

शं नः सत्यस्य सुयमस्य शंसः शं नो अर्यमा पुरुजातो अस्तु॥2॥

शं नो धाता शमु धर्त्ता नो अस्तु शं न उरूची भवतु स्वधाभिः।

शं रोदसी बृहती शं नो अद्रिः शं नो देवानां सुहवानि सन्तु॥3॥

शं नो अग्निर्ज्योतिरनीको अस्तु शं नो मित्रावरुणावश्विना शम्।

शं नः सुकृतां सुकृतानि सन्तु शं न इषिरो अभि वातु वातः॥4॥



शं नो द्यावापृथिवी पूर्वहूतौ शमन्तरिक्षं दृशये नो अस्तु।

शं न ओषधीर्वनिनो भवन्तु शं नो रजसस्पतिरस्तु जिष्णुः॥5॥

शं न इन्द्रो वसुभिर्देवो अस्तु शमादित्येभिर्वरुणः सुशंसः।

शं नो रुद्रो रुद्रेभिर्जलाषः शं नस्त्वष्टा ग्नाभिरिह शृणोतु॥6॥

शं नः सोमो भवतु ब्रह्म शं नः शं नो ग्रावाणः शमु सन्तु यज्ञाः।

शं नः स्वरूणां मितयो भवन्तु शं नः प्रस्वः१ शम्वस्तु वेदिः॥7॥

शं नः सूर्य उरुचक्षा उदेतु शं नश्चतस्रः प्रदिशो भवन्तु।

शं नः पर्वता ध्रुवयो भवन्तु शं नः सिन्धवः शमु सन्त्वापः॥8॥

शं नो अदितिर्भवतु व्रतेभिः शं नो भवन्तु मरुतः स्वर्काः।

शं नो विष्णुः शमु पूषा नो अस्तु शं नो भवित्रं शम्वस्तु वायुः॥9॥

शं नो देवः सविता त्रायमाणः शं नो भवन्तूषसो विभातीः।

शं नः पर्जन्यो भवतु प्रजाभ्यः

शं नः क्षेत्रस्य पतिरस्तु शम्भुः॥10॥

शं नो देवा विश्वदेवा भवन्तु शं सरस्वती सह धीभिरस्तु।

शमभिषाचः शमु रातिषाचः

शं नो दिव्याः पार्थिवाः शं नो अप्याः॥11॥

शं नः सत्यस्य पतयो भवन्तु शं नो अर्वन्तः शमु सन्तु गावः।

शं न ऋभवः सुकृतः सुहस्ताः शं नो भवन्तु पितरो हवेषु॥12॥

शं नो अज एकपाद् देवो अस्तु शं नोऽहिर्बुध्न्यः१ शं समुद्रः।

शं नो अपां नपात् पेरुरस्तु शं नः पृश्निर्भवतु देवगोपा॥13॥

—ऋ॰मं॰ 7। सू॰ 35। मं॰ 1-13

इन्द्रो विश्वस्य राजति। शन्नोऽअस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे॥14॥

शन्नो वातः पवतां शन्नस्तपतु सूर्य्यः।

शन्नः कनिक्रदद्देवः पर्जन्योऽअभि वर्षतु॥15॥

अहानि शम्भवन्तु नः शं रात्रीः प्रति धीयताम्।

शन्न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शन्नऽइन्द्रावरुणा रातहव्या।

शन्न इन्द्रापूषणा वाजसातौ शमिन्द्रासोमा सुविताय शं योः॥16॥

शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये। शंयोरभिस्रवन्तु नः॥17॥

द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वं शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥18॥

तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्॥19॥

—यजुः॰ अ॰ 36। मं॰ 8, 10-12, 17, 24॥

यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।

दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥20॥

येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे वृण्वन्ति विदथेषु धीराः।

यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥21॥

यत् प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।

यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते

तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥22॥

येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्।

येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥23॥

यस्मिन्नृचः साम यजूंषि यस्मिन्प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः।

यस्मिँचित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥24

सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव।

हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥25॥

—यजुः॰ अ॰ 34। मं॰ 1-6॥

स नः पवस्व शं गवे शं जनाय शमर्वते।

शं राजन्नोषधीभ्यः॥26॥       —साम॰ उत्तरा॰ प्रपा॰ 1। मं॰ 3॥

अभयं नः करत्यन्तरिक्षमभयं द्यावापृथिवी उभे इमे।

अभयं पश्चादभयं पुरस्तादुत्तरादधरादभयं नो अस्तु॥27॥

अभयं  मित्रादभयममित्रादभयं       ज्ञातादभयं    परोक्षात्।

अभयं नक्तमभयं दिवा नः सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु॥28॥

—अथर्व॰ कां॰ 19।15।5, 6

॥ इतिशान्तिकरणम्॥


दैनिक अग्निहोत्र

 अग्न्याधान

पूर्वोक्त समिधाचयन वेदी में करें। पुनः—

ओं भूर्भुवः स्वः॥

इस मन्त्र का उच्चारण करके ब्राह्मण क्षत्रिय वा वैश्य के घर से अग्नि ला, अथवा घृत का दीपक जला, उस से कपूर में लगा, किसी एक पात्र में धर, उस में छोटी-छोटी लकड़ी लगाके यजमान वा पुरोहित उस पात्र को दोनों हाथों से उठा, यदि गर्म हो तो चिमटे से पकड़कर अगले मन्त्र से अग्न्याधान करे। वह मन्त्र यह है—


ओं    भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा।

तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे॥

—यजुः अ॰ 3। मं॰ 5॥


इस मन्त्र से वेदी के बीच में अग्नि को धर, उस पर छोटे-छोटे काष्ठ और थोड़ा कपूर धर, अगला मन्त्र पढ़के व्यजन से अग्नि को प्रदीप्त करे—


ओम् उद्बुध्यस्वाग्ने प्रतिजागृहि त्वमिष्टापूर्त्ते संसृजेथामयं च।

अस्मिन्त्सधस्थेऽअध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत॥

—यजुः अ॰ 15। मं॰ 54॥


जब अग्नि समिधाओं में प्रविष्ट होने लगे, तब चन्दन की अथवा ऊपरलिखित पलाशादि की तीन लकड़ी आठ-आठ अंगुल की घृत में डुबा, उन में से एक-एक निकाल नीचे लिखे एक-एक मन्त्र से एक-एक समिधा को अग्नि में चढ़ावें। वे मन्त्र ये हैं—


ओम् अयं त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा॥

इदमग्नये जातवेदसे इदं न मम॥1॥  

—इस मन्त्र से एक


ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्।

आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा॥ इदमग्नये इदं न मम॥2॥


—इस से, और


ओं सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन।

अग्नये जातवेदसे स्वाहा॥ इदमग्नये जातवेदसे इदं न मम॥3॥


—इस मन्त्र से अर्थात् इन दोनों से दूसरी।


ओं तन्त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्धयामसि।

बृहच्छोचा यविष्ठ्य स्वाहा॥ इदमग्नयेऽङ्गिरसे इदं न मम॥4॥

—यजुः अ॰ 3। मं॰ 1, 2, 3॥


इस मन्त्र से तीसरी समिधा की आहुति देवें।

इन मन्त्रों से समिदाधान करके होम का शाकल्य, जो कि यथावत् विधि से बनाया हो, सुवर्ण, चांदी, कांसा आदि धातु के पात्र अथवा काष्ठ-पात्र में वेदी के पास सुरक्षित धरें। पश्चात् उपरिलिखित घृतादि जो कि उष्ण कर छान, पूर्वोक्त सुगन्ध्यादि पदार्थ मिलाकर पात्रों में रखा हो, उसमें से कम से कम 6 मासा भर घृत वा अन्य मोहनभोगादि जो कुछ सामग्री हो, अधिक से अधिक छटांक भर की आहुति देवें, यही आहुति का प्रमाण है।

उस घृत में से चमसा कि जिस में छः मासा ही घृत आवे ऐसा बनाया हो, भरके नीचे लिखे मन्त्र से पांच आहुति देनी—


ओम् अयं त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा॥

इदमग्नये जातवेदसे इदन्न मम॥5॥


तत्पश्चात् वेदी के पूर्व दिशा आदि और अञ्जलि में जल लेके चारों ओर छिड़कावे। उसके ये मन्त्र हैं—

ओम् अदितेऽनुमन्यस्व॥                

—इस मन्त्र से पूर्व।

ओम् अनुमतेऽनुमन्यस्व॥               

—इस से पश्चिम।

ओं सरस्वत्यनुमन्यस्व॥               

 —इस से उत्तर। और—

ओं देव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय। दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु॥

—यजुः अ॰ 30। मं॰ 1

इस मन्त्र से वेदी के चारों ओर जल छिड़कावे।

इसके पश्चात् सामान्यहोमाहुति गर्भाधानादि प्रधान संस्कारों में अवश्य करें। इस में मुख्य होम के आदि और अन्त में जो आहुति दी जाती हैं, उन में से यज्ञकुण्ड के उत्तर भाग में जो एक आहुति, और यज्ञकुण्ड के दक्षिण भाग में दूसरी आहुति देनी होती है, उस का नाम "आघारावाज्याहुति" कहते हैं। और जो कुण्ड के मध्य में आहुतियां दी जाती हैं, उन का नाम "आज्यभागाहुति" कहते हैं। सो घृतपात्र में से स्रुवा को भर अंगूठा, मध्यमा, अनामिका से स्रुवा को पकड़के—


ओम् अग्नये स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥


इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में।


ओं सोमाय स्वाहा॥ इदं सोमाय इदं न मम॥


इस मन्त्र से वेदी के दक्षिण भाग में प्रज्वलित समिधा पर आहुति देनी। तत्पश्चात्—


ओं प्रजापतये स्वाहा॥ इदं प्रजापतये इदन्न मम॥

ओम् इन्द्राय स्वाहा॥ इदमिन्द्राय इदन्न मम॥


इन दोनों मन्त्रों से वेदी के मध्य में दो आहुति देनी।


प्रातःकालीनहोममन्त्रा:


निम्न मन्त्रों से प्रातः कालीन अग्निहोत्र करें। इन मन्त्रों से घृत  के साथ साथ सामग्री की भी आहुतियां देवें। 


ओ३म् सूर्यो  ज्योतिर्ज्योति: सूर्य: स्वाहा।।१।।

ओ३म् सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्च: स्वाहा।।२।।

ओ३म् ज्योतिः सूर्य: सुर्यो ज्योति: स्वाहा।।३।।

ओ३म् सजूर्देवेन सवित्रा सजूरुषसेन्द्रवत्या। जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा।।४।।

ओ३म् भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। इदमग्नये प्राणाय - इदन्न मम।।१।।

ओ३म् भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा। इदं वायवेऽपानाय - इदन्न मम।।२।।

ओ३म् स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा। इदमादित्याय व्यानाय - इदन्न मम।।३।।

ओ३म् भूर्भुवः स्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।

इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः - इदन्न मम।।४।।

ओ३म् आपो ज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।।५।।

ओ३म् यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते। तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा।।६।।

ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव । यद्  भद्रं तन्न आ सुव ।।७।।

ओ३म् अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् ।

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम उक्तिं विधेम ।।८।।


आघारावाज्यभागाहुतयः 

प्रातः कालीन आहुतियों के बाद पुनः आघारावाज्यभागाहुती देवें 

ओ३म् अग्नये स्वाहा | इदमग्नये - इदन्न मम।।

 इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में आहुति देवें।

ओ३म् सोमाय स्वाहा | इदं सोमाय - इदन्न मम।। 

इस मन्त्र से वेदी के दक्षिण भाग अग्नि में आहुति देवें।

तत्पश्चात्

ओ३म् प्रजापतये स्वाहा | इदं प्रजापतये - इदन्न मम।।

ओ३म् इन्द्राय स्वाहा | इदं इन्द्राय -  इदन्न मम।।

 इन दोनों मन्त्रों से वेदी के मध्य भाग में दो आहुति देवें।

सायं कालीनहोममन्त्रा:


निम्न मन्त्रों से सायं कालीन अग्निहोत्र करें। इन मन्त्रों से घृत के साथ साथ सामग्री की भी आहुतियां देवें। 

ओ३म् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्नि: स्वाहा।।१।।

ओ३म् अग्निवर्चो ज्योतिर्वच: स्वाहा।।२।।

ओ३म् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्नि: स्वाहा।।३।।इस मन्त्र को मन में उच्चारण करके आहुति देवें

ओ३म् सजूर्देवेन सवित्रा सजु रात्र्येन्द्रवत्या। जुषाणो अग्निर्वेतु स्वाहा।।४।।

ओ३म् भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। इदमग्नये प्राणाय - इदन्न मम।।१।।

ओ३म् भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा। इदं वायवेऽपानाय - इदन्न मम।।२।।

ओ३म् स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा। इदमादित्याय व्यानाय - इदन्न मम।।३।।

ओ३म् भूर्भुवः स्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।

इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः - इदन्न मम।।४।।

ओ३म् आपो ज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।।५।।

ओ३म् यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते। तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा।।६।।

ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव । यद्  भद्रं तन्न आ सुव ।।७।।

ओ३म् अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् ।

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम उक्तिं विधेम ।।८।।

      

अमावस्या का पाक्षिकयज्ञ


दैनिक अग्निहोत्र की आहुति दिये पश्चात् निम्नलिखित मन्त्रों से विशेष आहुति करें—

ओम् अग्नये स्वाहा॥1॥

ओम् इन्द्राग्नीभ्यां स्वाहा॥

ओं विष्णवे स्वाहा॥3॥

इन 3 तीन मन्त्रों से स्थालीपाक की 3 तीन आहुति देनी।

तत्पश्चात्  व्याहृति आज्याहुति 4 चार देनी।

ओं भूरग्नये स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥

ओं भुवर्वायवे स्वाहा॥ इदं वायवे इदन्न मम॥

ओं स्वरादित्याय स्वाहा॥ इदमादित्याय इदन्न मम॥

ओं भूर्भुवः स्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः स्वाहा॥ इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः इदं न मम


ऋषि निर्वाण दिवस पर यज्ञ के लिए विशेष मन्त्र


ओ३म्  परं मृत्यो अनुपरेहि पन्थां यस्ते स्व इतरो देवयानात् ।

चक्षुष्मते श्रृण्वते ते ब्रवीमि मा नः प्रजां रीरिषो मोत वीरान् स्वाहा ।।


ओ३म् मृत्योः पदं योपयन्तो यदैत द्राघीय आयुः परतरं दधानाः ।

आप्यायमानाः प्रजया धनेन शुद्धाः पूता भवत यज्ञियासः स्वाहा ।।


ओ३म् इमे जीवा वि मृतैराववृत्रन्नभूद्भद्रा देवहूतिर्नो अद्य ।

प्राञ्चो अगाम नृतये हसाय द्राघीय आयुः प्रतरं दधाना स्वाहा ।।


ओ३म् इमं जीवेभ्यः परिधिं दधामि मैषां नु गादपरो अर्थ मेतम् ।

शतं जीवन्तु शरदः पुरुचीरन्तर्मृत्युं दधतां पर्वतेन स्वाहा ।।


ओ३म् यथा हान्यनुपूर्वं भवन्ति यथा ऋतव ऋतुभिर्यन्ति साधु ।

यथा नः पूर्वमपरो जहात्येवा धातरायूँषि कल्पयैषाम् स्वाहा ।।


ओ३म् आयुष्मतामायुष्कृतां प्राणेन जीव मा मृथाः ।

व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा स्वाहा ।।


ओ३म् ब्रम्ह्चर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत ।

इन्द्रो ह ब्रम्हचर्येण देवेभ्यः स्वराभरत् स्वाहा ।।


नवसस्येष्टि के मन्त्र

( हवन सामग्री में खील बतासे मिला लें )


ओ३म् शतायुधाय शतवीर्याय शतोतयेSभिमातिषाहे ।

शतं यो नः शरदो अजीजादिन्द्रो नेषदति दुरितानि विश्वा स्वाहा ।।


ओ३म् ये चत्वारः पथयो   देवयाना अन्तरा द्यावापृथिवी वियन्ति ।

तेषां यो आ ज्यानिमजीजिमा वहास्तस्मै नो देवाः परिदत्तेहसर्वं स्वाहा ।।


ओ३म् ग्रीष्मो हेमन्त उत नो वसन्तः शरद्वर्षाः सुवितन्नो अस्तु ।

तेषामृतूनां शतशारदानां निवात ऐषामभये स्याम स्वाहा ।।


ओ३म् इद्वत्सराय परिवत्सराय संवत्सराय कृणुता बृहन्नमः ।

तेषां वयं सुमतौ यज्ञियानां ज्योग् जीता अहताः स्याम स्वाहा ।।


ओ३म् पृथिवी द्यौः प्रदिशो दिशो यस्मै द्युभिरावृताः ।

तमिहेन्द्रमुपह्वये शिवा नः सन्तु हेतयः स्वाहा ।।


 ओ३म् यन्मे किञ्चिदुपेप्सितमस्मिन् कर्मणि वृत्रहन् ।

तन्मे सर्वँ समृध्यतां जीवतः शरदः शतम् स्वाहा ।।


ओ३म् सम्पत्तिभूतिर्भूमिर्वृष्टिर्ज्यैष्ठ्यं श्रैष्ठ्यं श्रीः प्रजामिहावतु स्वाहा ।।इदमिन्द्राय  इदन्न मम ।


ओ३म् यस्याभावे वैदिकलौकिकानां भूतिर्भवति कर्मणाम् ।

इन्द्रपत्नीमुपव्हये सीतां सा में त्वनपायिनी भूयात्कर्मणि कर्मणि स्वाहा ।। इदमिन्द्रपत्न्यै इदन्न मम ।


ओ३म् अश्वावती गोमती सूनृतावती बिभर्ति या प्राणभृताम् अतन्द्रिता ।

खलमालिनीमुर्वरामस्मिन् कर्मण्युपव्हये ध्रुवां सा में  त्वनपायिनी भूयात् स्वाहा ।। इदं सीतायै  इदन्न मम ।


ओ३म् सीतायै स्वाहा ।।


ओ३म् प्रजायै स्वाहा ।।


ओ३म् शमायै स्वाहा ।।


ओ३म् भूत्यै स्वाहा ।।


ओ३म् व्रीहयश्च में यावाश्च में माषाश्च में तिलाश्च में मुद् गाश्च में खल्वाश्च में प्रियङ्गवश्च मेंSणवश्च में श्यामाकाश्च में नीवाराश्च में गोधूमाश्च में मसूराश्च में यज्ञेन कल्पांताम् स्वाहा ।।


ओ३म् वाजो नः सप्त प्रदिशश्चतस्रो वा परावतः ।

वाजो नो विश्वैर्देवैर्धतसाताविहावतु स्वाहा ।।


ओ३म् वाजो नो अद्य प्रसुवाति दानं वाजो देवां ऋतुभिः कल्पयाति ।

वाजो हि मा सर्ववीरं जजान विश्वा आशा वाजपतिर्जयेयं स्वाहा ।।


ओ३म् वाजः पुरस्तादुत मध्यतो नो वाजो देवान् हविषा वर्धयाति ।

वाजो हि मा सर्ववीरं चकार सर्वा आशा वाजपतिर्भवेयं स्वाहा ।।


ओ३म् सीरा युंजन्ति कवयो युगा वि तन्वते पृथक् धीरा देवेषु सुम्नयौ स्वाहा ।।


ओ३म् युनक्त सीरा वियुगा तनोत कृते योनौ वपतेह बीजम् ।

विराजः स्श्नुष्टिः सभरा असन्नो नेदीय इत्सृण्यः पक्वमायवन्  स्वाहा ।।


ओ३म् लाङ्गलं पवीरवत् सुशीमं सोमसत्सरू ।

उदिद्वपतु गामविं प्रस्थावद्रथवाहनं पीवरीं च प्रफर्व्यम् स्वाहा ।।


ओ३म् इन्द्रः सीतां निगृह्णातु तां पूषाभिरक्षतु ।

सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम् स्वाहा ।।


ओ३म् शुनं सुफाला वि तुदन्तु भूमिं शुनं किनाशा अनु यन्तु वाहान् ।

शुनासीरा हविषा तोशमाना सुपिप्पला ओषधीः कर्तमस्मै स्वाहा ।।


ओ३म् शुनं वाहाः शुनं नरः शुनं कृषतु लांगलम् ।

 शुनं वरत्रा बध्यन्तां शुनमष्ट्रामुदिङ्गय स्वाहा ।।


ओ३म् शुनासीरेह स्म मे जुषेथाम् ।

यद्दीवि चक्रथुः पयस्तेनेमामुपसिञ्चतम् स्वाहा ।।    


ओ३म् सीते वन्दामहे त्वार्वाची सुभगे भव ।

यथा नः सुमना असो यथा नः सुफला भुवः स्वाहा ।।


ओ३म् घृतेन सीता मधुना समक्ता विश्वैर्देवै रनुमता मरुद्भिः ।

सा नः सीते पयसाभ्याववृत्स्वोर्जस्वति घृतवत्पिन्वमाना स्वाहा ।।


ओ३म् इन्द्राग्निभ्यां स्वाहा ।। इदमिन्द्राग्निभ्यां इदन्न मम ।


ओ३म् विश्वेभ्यो देवेभ्यःस्वाहा ।। इदं विश्वेभ्यो देवेभ्यः इदन्न मम ।


ओ३म् द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा ।। इदं द्यावापृथिवीभ्याम् इदन्न मम ।


ओ३म् स्विष्टमग्ने अभि तत्पृणीहि विश्वांश्च देवः पृतना अभिष्यक् ।

सुगन्नु पन्थां प्रदिशन्न एहि ज्योतिष्मध्ये ह्यजरं न आयुः स्वाहा ।।


ओ३म् यदस्य कर्मणोSत्यरीरिचं यद्वा न्यूनमिहाकरम् । अग्निष्टत्स्विष्टकृद्विद्यात्सर्वं स्विष्टं सुहूतं करोतु में अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समर्द्धयित्रे सर्वान्नः कामान्त्समर्धय स्वाहा ।।इदमग्नये  स्विष्टकृते इदन्न मम ।     


पूर्णाहुति


ओ३म् सर्वं वै पूर्णं स्वाहा।

ओ३म् सर्वं वै पूर्णं स्वाहा।

ओ३म् सर्वं वै पूर्णं स्वाहा।


वामदेव्यगान


 सामवेदोक्त वामदेव्यगान अवश्य करें। वे मन्त्र ये हैं—


ओं भूर्भुवः स्वः। कया नश्चित्र आ भुवदूती सदावृधः सखा।

कया शचिष्ठया वृता॥1॥


ओं भूर्भुवः स्वः। कस्त्वा सत्यो मदानां मंहिष्ठो मत्सदन्धसः। दृढ़ा चिदारुजे वसु ॥2॥


ओं भूर्भुवः स्वः। अभी षु णः सखीनामविता जरितॄणाम्।

शतं भवास्यूतये॥3॥


महावामदेव्यम्


काऽ५या। नश्चा३ यित्रा३ आभुवात्। ऊ। ती सदावृधः। सखा। औ३ होहायि। कया२३ शचायि। ष्ठयौहो३। हुम्मा२। वाऽ२र्तो३ऽ५हायि॥ (1)॥


काऽ५स्त्वा। सत्यो३मा३दानाम्। मा। हिष्ठोमात्सादन्ध। सा औ३हो हायि। दृढा २ ३ चिदा। रुजौहो३। हुम्मा२। वाऽ३सो ३ ऽ ५ हायि॥ (2)॥


आऽ५भी। षुणाः३ सा३खीनाम्। आ। विता जरायि तॄ। णाम्। औ २ ३ हो हायि। शता२३म्भवा। सियौहो३ हुम्मा२। ताऽ२ यो३ऽ५हायि॥ (3)॥


यज्ञ प्रार्थना


यज्ञरूप प्रभो ! हमारे, भाव उज्जवल कीजिये |

छोड़ देवें छल कपट को, मानसिक बल दीजिये |।


वेद की बोलें ऋचाएं, सत्य को धारण करें |

हर्ष में हो मग्न सारे, शोक-सागर से तरें ||


अश्वमेधादिक रचायें, यज्ञ पर-उपकार को |

धर्म- मर्यादा चलाकर, लाभ दें संसार को || 


नित्य श्रद्धा-भक्ति से, यज्ञादि हम करते रहें |

रोग-पीड़ित विश्व के, संताप सब हरतें रहें || 


भावना मिट जाये मन से, पाप अत्याचार की |

कामनाएं पूर्ण होवें, यज्ञ से नर-नारि की ||


लाभकारी हो हवन, हर जीवधारी के लिए |

वायु जल सर्वत्र हों, शुभ गन्ध को धारण किये ||


स्वार्थ-भाव मिटे हमारा, प्रेम-पथ विस्तार हो |

'इदं न मम' का सार्थक, प्रत्येक में वयवहार हो ||


ध्यान धरकर शुद्ध मन से, वन्दना हम कर रहे |

'नाथ' करुणा-रूप ! करुणा, आपकी सब पर रहे ||

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आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

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