शुक्रवार, 8 मार्च 2019

सैद्धान्तिक चर्चा -६. " ईश्वर विषय"

सैद्धान्तिक चर्चा  -६.                                  " ईश्वर विषय"
                                                      आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

अब हम क्रमशः तीनों सत्ताओं ( ईश्वर, जीव और प्रकृति) के बारे में जानेंगे।

वैसे तो संसार में ईश्वर के विषय में इतनी अलग अलग और गलत गलत मान्यतायें  प्रचलित हैं  जिससे संसार की बहुत बड़ी हानि हूई है और हो रही है,  परन्तु वैदिक मान्यता ही सत्य है और उसी के जानने और मानने और वैदिक मान्यता से ही उपासना करने पर जीवन सफल हो सकता है अभीष्ट की सिद्धि हो सकती है।

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज सारांश रूप में  ईश्वर के बारे में लिखते हैं - "ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप , निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करनी योग्य है।"

स पर्यगाच्छुक्रमकायमब्रणमस्नाविरम शुद्धमपापविद्धम, | कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभूर्याथातथ्यतोsर्थान्व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्यः || (यजुर्वेद)
हे मनुष्य! जो ब्रह्म शीघ्रकारी सर्वशक्तिमान स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीर से रहित छिद्र रहित और नही छेद करने योग्य नाड़ी आदि के साथ सम्बन्ध रूप बन्धन से रहित अविद्यादि दोषों से रहित होने से सदा पवित्र और जो पाप युक्त पापकारी और पाप में प्रीति करने वाला कभी नहीं होता सब ओर से व्याप्त है जो सर्वत्र सब जीवों के मनों की वृत्तियों को जानने वाला दुष्ट पापियों का तिरस्कार करने वाला और अनादिस्वरूप जिसकी संयोग से उत्पत्ति वियोग से विनाश माता पिता गर्भवास जन्म वृद्धि और मरण नहीं होते वह परमात्मा सनातन अनादिस्वरूप अपने अपने स्वरूप से उत्पत्ति और विनाशरहित  प्रजाओं के लिए यथार्थ भाव से वेद द्वारा सब पदार्थों को विशेषकर बनाता है वही परमेश्वर तुम लोगों को उपासना करने के योग्य है।

ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। (यजुर्वेद)
(यत्) जो (इदम्) प्रकृति से लेकर पृथिवी पर्यन्त (सर्वम्)  सब (जगत्याम्) प्राप्त होने योग्य सृष्टि में (जगत्) चरप्राणीमात्र ( ईशा ) संपूर्ण ऐश्वर्य से युक्त सर्वशक्तिमान परमात्मा से (वास्यम्) सब ओर से व्याप्त है।

इंद्र मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्। एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु:। (ऋग्वेद)
इस मन्त्र में यह स्पष्टतया बताया गया है कि परमेश्वर एक ही है किन्तु विद्वान् उसके अनन्त गुणों को सूचित करने के लिए इन्द्र मित्र वरुण आदि नामों से पुकारते हैं। इस प्रकार इन्द्र मित्र वरुणादि शब्द मुख्यतया ईश्वर-वाचक हैं यह स्पष्ट सिद्ध होता है। परमात्मा परमैश्वर्य सम्पन्न होने से इन्द्र, सबका मित्र तथा प्रेममय होने से मित्र, सबसे उत्तम और वरणीय तथा अविद्यादि दोष निवारक होने से वरुण, ज्ञान स्वरूप और अग्रणी सबसे श्रेष्ठ होने से अग्नि पद से उसे कहा जाता है। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, महेश्वर, महादेव, बृहस्पति इत्यादि शब्द प्रधानतया उसी एक परमेश्वर को सूचित करते हैं। यह निम्न मन्त्रों से सिद्ध होता है।

त्वमग्न इन्द्रो वृषभ: सतामसि त्वं विष्णुरुरुगायो नमस्य:। त्वं ब्रह्मा रयिविद्ब्रह्मणस्पते त्वं विधर्त: सचसे पुरंध्या।। ऋ०
त्वमग्ने राजा वरुणो धृतव्रतस्त्वं मित्रो भवसि दस्म ईड्य:। त्वमर्यमा सत्पतिर्यस्य सम्भुजं त्वमंशो विदथे देव भाजयु:।। ऋ०
त्वमग्ने रुद्रो असुरो महो दिवस्त्वं शर्धो मारुतं पृक्ष ईशिषे। त्वं वातैररुणैर्यासि शंगयस्त्वं पूषा विधत: पासि नु त्मना।। ऋ०
सोऽर्यमा स वरुण: स रुद्र: स महादेव:।
सो अग्नि: स उ सूर्य: स उ एव महायम:। अथर्व०
त्वमिन्द्रस्त्वम्महेन्द्रस्त्वं लोकस्त्वं प्रजापति:। तुभ्यं यज्ञो वि तायते तुभ्यं जुह्वति जुह्वतस्तवेद्विष्णो बहुधा वीर्याणि।। अथर्व०
इन मन्त्रों पर यदि निष्पक्ष विचार किया जाये तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि एक ही परमात्मा के ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, इन्द्र, वृषभ, बृहस्पति, अग्नि, प्रजापति, वरुण, मित्र, अर्यमा, पूषा आदि नाम हैं और इस प्रकार वेदों में अनेकेश्वरवाद के भ्रम का कोई स्थान नहीं रहता। सत्य ग्रहण करने में उद्यत और पाश्चात्य विद्वानों की मानसिक दासता को स्वीकार करने वाले विद्वानों को इन मन्त्रों का अच्छी प्रकार मनन करना चाहिए तब उनका वैदिक एकेश्वरवाद में दृढ़ विश्वास हो जायेगा, इसमें सन्देह नहीं। इन मन्त्रों पर विचार करने से हीन देवतावाद का भी खण्डन हो जाता है।

तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमा:।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ताऽआप: स प्रजापति:।। यजु०
यह मन्त्र भी एकेश्वरवाद का प्रतिपादन करते हुए उसी परमेश्वर के अग्नि, आदित्य, वायु, चन्द्रादि नाम हैं, इस बात को स्पष्ट घोषित करता है। ऐसे मन्त्रों के भाव को लेकर ही कैवल्योपनिषद् में-
सब्रह्मा सविष्णु सरुद्र: सशिव: सोऽक्षर:।
स परम:स्वराट्। स इन्द्र: स कालाग्नि: स चन्द्रमा:।।

क्रमशः ...

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