बुधवार, 8 मई 2019

सैद्धान्तिक चर्चा - २०. सत्यासत्य के निर्णय के लिए परीक्षा

सैद्धान्तिक चर्चा - २०.          "सत्यासत्य  के निर्णय के लिए परीक्षा"
                                        आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

आज के समय में सत्यासत्य का निर्णय करना कठिन कार्य है क्योंकि सभी कि अपनी अपनी मान्यतायें हैं तथा अधिकतर लोग अन्धपरम्पाराओं को ढोरहे हैं। इसीलिए आज की चर्चा में सत्यासत्य के निर्णय के लिए अत्यावश्यक और प्रमाणिक तरीके बताने का प्रयास किया गया है।

ध्यान दें -
० महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं कि सत्यासत्य के निर्णय के लिए परीक्षा पांच प्रकार से होती है—
एक— जो-जो ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव और वेदों से अनुकूल हो वह-वह सत्य और उससे विरुद्ध असत्य है।

दूसरी— जो-जो सृष्टिक्रम से अनुकूल वह-वह सत्य और जो-जो सृष्टिक्रम से विरुद्ध है वह सब असत्य है। जैसे—कोई कहै ‘विना माता पिता के योग से लड़का उत्पन्न हुआ’ ऐसा कथन सृष्टिक्रम से विरुद्ध होने से सर्वथा असत्य है।

तीसरी— ‘आप्त’ अर्थात् जो धार्मिक विद्वान्, सत्यवादी, निष्कपटियों का संग उपदेश के अनुकूल है वह-वह ग्राह्य और जो-जो विरुद्ध वह-वह अग्राह्य है।

चौथी— अपने आत्मा की पवित्रता विद्या के अनुकूल अर्थात् जैसा अपने को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है वैसे ही सर्वत्र समझ लेना कि मैं भी किसी को दुःख वा सुख दूँगा तो वह भी अप्रसन्न और प्रसन्न होगा।

और पांचवीं— आठों प्रमाण अर्थात् प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव।

= आगे प्रत्यक्षादि प्रमाणों को समझेंगे ----
प्रत्यक्ष - "इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि-व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्।"(न्याय॰ अध्याय 1 आह्निक 1 सूत्र 4) जो श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा और घ्राण का शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध के साथ अव्यवहित अर्थात् आवरणरहित सम्बन्ध होता है, इन्द्रियों के साथ मन का और मन के साथ आत्मा के संयोग से ज्ञान उत्पन्न होता है उस को प्रत्यक्ष कहते हैं परन्तु जो व्यपदेश्य अर्थात् संज्ञासंज्ञी के सम्बन्ध से उत्पन्न होता है वह-वह ज्ञान न हो। जैसा किसी ने किसी से कहा कि ‘तू जल ले आ’ वह लाके उस के पास धर के बोला कि ‘यह जल है’ परन्तु वहां ‘जल’ इन दो अक्षरों की संज्ञा लाने वा मंगवाने वाला नहीं देख सकता है। किन्तु जिस पदार्थ का नाम जल है वही प्रत्यक्ष होता है और जो शब्द से ज्ञान उत्पन्न होता है वह शब्द-प्रमाण का विषय है। ‘अव्यभिचारि’ जैसे किसी ने रात्रि में खम्भे को देख के पुरुष का निश्चय कर लिया, जब दिन में उसको देखा तो रात्रि का पुरुषज्ञान नष्ट होकर स्तम्भज्ञान रहा, ऐसे विनाशी ज्ञान का नाम व्यभिचारी है। ‘व्यवसायात्मक’ किसी ने दूर से नदी की बालू को देख के कहा कि ‘वहां वस्त्र सूख रहे हैं, जल है वा और कुछ है’ ‘वह देवदत्त खड़ा है वा यज्ञदत्त’ जब तक एक निश्चय न हो तब तक वह प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है किन्तु जो अव्यपदेश्य, अव्यभिचारि और निश्चयात्मक ज्ञान है उसी को प्रत्यक्ष कहते हैं।

अनुमान - "अथ तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत् सामान्यतोदृष्टञ्च॥"  ( न्याय॰ अ॰ 1 आ॰ 1 सू॰ 5 ) जो प्रत्यक्षपूर्वक अर्थात् जिसका कोई एक देश वा सम्पूर्ण द्रव्य किसी स्थान वा काल में प्रत्यक्ष हुआ हो उसका दूर देश में सहचारी एक देश के प्रत्यक्ष होने से अदृष्ट अवयवी का ज्ञान होने को अनुमान कहते हैं। जैसे पुत्र को देख के पिता, पर्वतादि में धूम को देख के अग्नि, जगत् में सुख दुःख देख के पूर्वजन्म का ज्ञान होता है। वह अनुमान तीन प्रकार का है। एक ‘पूर्ववत्’ जैसे बद्दलों को देख के वर्षा, विवाह को देख के सन्तानोत्पत्ति, पढ़ते हुए विद्यार्थियों को देख के विद्या होने का निश्चय होता है, इत्यादि जहां-जहां कारण को देख के कार्य का ज्ञान हो वह ‘पूर्ववत्’। दूसरा ‘शेषवत्’ अर्थात् जहां कार्य को देख के कारण का ज्ञान हो। जैसे नदी के प्रवाह की बढ़ती देख के ऊपर हुई वर्षा का, पुत्र को देख के पिता का, सृष्टि को देख के अनादि कारण का तथा कर्त्ता ईश्वर का और पाप पुण्य के आचरण को देख के सुख दुःख का ज्ञान होता है, इसी को ‘शेषवत्’ कहते हैं। तीसरा ‘सामान्यतोदृष्ट’ जो कोई किसी का कार्य कारण न हो परन्तु किसी प्रकार का साधर्म्य एक दूसरे के साथ हो जैसे कोई भी विना चले दूसरे स्थान को नहीं जा सकता वैसे ही दूसरों का भी स्थानान्तर में जाना विना गमन के कभी नहीं हो सकता। अनुमान शब्द का अर्थ यही है कि अनु अर्थात् ‘प्रत्यक्षस्य पश्चान्मीयते ज्ञायते येन तदनुमानम्’ जो प्रत्यक्ष के पश्चात् उत्पन्न हो जैसे धूम के प्रत्यक्ष देखे विना अदृष्ट अग्नि का ज्ञान कभी नहीं हो सकता।

उपमान - प्"रसिद्धसाधर्म्यात् साध्यसाधनमुपमानम्॥"(न्याय॰ अ॰ 1 आ॰ 1 सू॰ 6) जो प्रसिद्ध प्रत्यक्ष साधर्म्य से साध्य अर्थात् सिद्ध करने योग्य ज्ञान की सिद्धि करने का साधन हो उसको उपमान कहते हैं। ‘उपमीयते येन तदुपमानम्’ जैसे किसी ने किसी भृत्य से कहा कि ‘तू देवदत्त के सदृश विष्णुमित्र को बुला ला’ वह बोला कि ‘मैंने उसको कभी नहीं देखा’ उस के स्वामी ने कहा कि ‘जैसा यह देवदत्त है वैसा ही वह विष्णुमित्र है’ वा ‘जैसी यह गाय है वैसा ही गवय अर्थात् नीलगाय होता है।’ जब वह वहां गया और देवदत्त के सदृश उस को देख निश्चय कर लिया कि यही विष्णुमित्र है, उसको ले आया। अथवा किसी जङ्गल में जिस पशु को गाय के तुल्य देखा उसको निश्चय कर लिया कि इसी का नाम गवय है।

शब्दप्रमाण - "आप्तोपदेशः शब्दः॥"  (न्याय॰ अ॰ 1 आ॰ 1 सू॰ 7 )  जो आप्त अर्थात् पूर्ण विद्वान्, धर्मात्मा, परोपकारप्रिय, सत्यवादी, पुरुषार्थी, जितेन्द्रिय पुरुष जैसा अपने आत्मा में जानता हो और जिस से सुख पाया हो उसी के कथन की इच्छा से प्रेरित सब मनुष्यों के कल्याणार्थ उपदेष्टा हो अर्थात् जितने पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों का ज्ञान प्राप्त होकर उपदेष्टा होता है। जो ऐसे पुरुष और पूर्ण आप्त परमेश्वर के उपदेश वेद हैं, उन्हीं को शब्दप्रमाण जानो।

ऐतिह्य - "न चतुष्ट्वमैतिह्यार्थापत्तिसम्भवाभावप्रामाण्यात्॥" ( न्याय॰ अ॰ 2 आ॰ 2 सू॰ 1)  जो इति ह अर्थात् इस प्रकार का था उस ने इस प्रकार किया अर्थात् किसी के जीवन-चरित्र का नाम ऐतिह्य है।

अर्थापत्ति - ‘अर्थादापद्यते सा अर्थापत्तिः’ केनचिदुच्यते ‘सत्सु घनेषु वृष्टिः, सति कारणे कार्यं भवतीति किमत्र प्रसज्यते, असत्सु घनेषु वृष्टिरसति कारणे च कार्यं न भवति।’ जैसे किसी ने किसी से कहा कि ‘बद्दल के होने से वर्षा और कारण के होने से कार्य उत्पन्न होता है’ इस से विना कहे यह दूसरी बात सिद्ध होती है कि विना बद्दल वर्षा और विना कारण कार्य कभी नहीं हो सकता।

सातवां सम्भव - ‘सम्भवति यस्मिन् स सम्भवः’ कोई कहे कि ‘माता पिता के विना सन्तानोत्पत्ति, किसी ने मृतक जिलाये, पहाड़ उठाये, समुद्र में पत्थर तराये, चन्द्रमा के टुकड़े किये, परमेश्वर का अवतार हुआ, मनुष्य के सींग देखे और वन्ध्या के पुत्र और पुत्री का विवाह किया, इत्यादि सब असम्भव हैं। क्योंकि ये सब बातें सृष्टिक्रम से विरुद्ध हैं। जो बात सृष्टिक्रम के अनुकूल हो वही सम्भव है।

अभाव -‘न भवन्ति यस्मिन् सोऽभावः’ जैसे किसी ने किसी से कहा कि ‘हाथी ले आ’ वह वहां हाथी का अभाव देख कर जहां हाथी था वहां से ले आया।

ये आठ प्रमाण। इन में से जो शब्द में ऐतिह्य और अनुमान में अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव की गणना करें तो चार प्रमाण रह जाते हैं।
इन चार प्रकार की परीक्षाओं से मनुष्य सत्यासत्य का निश्चय कर सकता है अन्यथा नहीं।

० महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज ने तर्कसंगत यह भी बताया कि पठनीय कौन कौन ग्रन्थ है और कौन ग्रन्थ अपठनीय है।

= आइये प्रथम पठनीय की चर्चा करते हैं -
वेद - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद ।

उपवेद - आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्दर्भवेद और अर्थवेद।

वेदांग - शिक्षा, छन्द, व्याकरण, निरुक्त, कल्प और ज्योतिष।

उपांग - न्याय, योग, मीमांसा, सांख्य, वैशेषिक और वेदान्त।

ब्राह्मण ग्रन्थ - ऐतरेय, शतपथ, साम और गोपथ ।

उपनिषद - ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छन्दोग्य और बृहदारण्यक ।

मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण, महाभारत आदि।

ऋषिप्रणीत ग्रन्थों को इसीलिये पढ़ना चाहिए कि वे बड़े विद्वान् सब शास्त्रवित् और धर्मात्मा थे। और अनृषि अर्थात् जो अल्प शास्त्र पढे़ हैं और जिनका आत्मा पक्षपात सहित है, उनके बनाये ग्रन्थ भी वैसे ही हैं।

ध्यान दें ----
वेदों के उपवेद, अंग और उपांग आदि सब ऋषि मुनि के किये ग्रन्थ हैं। इनमें भी जो जो वेदविरुद्ध प्रतीत हो उस उस को छोड़ देना क्योंकि वेद ईश्वर कृत होने से निर्भ्रान्त स्वतः प्रमाण अर्थात् वेद का प्रमाण वेद ही से होता है। ब्राह्मणादि सब ग्रन्थ परतः प्रमाण अर्थात् इनका प्रमाण वेदाधीन है।

= अब जो परित्याग के योग्य ग्रन्थ हैं उनका परिगणन संक्षेप में किया जाता है अर्थात् जो जो नीचे ग्रन्थ लिखेंगे वह-वह जाल ग्रन्थ समझना चाहिए ।

व्याकरण में कातन्त्र, सारस्वत, चन्द्रिका,मुग्धबोध, कौमुदी, शेखर, मनोरमादि।

कोश में अमरकोशादि।

छन्दोग्रन्थ में वृत्तरत्नाकरादि।

शिक्षा में 'अथ शिक्षां प्रवक्ष्यामि पाणिनीयं मतं यथा' इत्यादि।

ज्योतिष में शीघ्रबोध, मुहूर्त्तचिन्तामणि, आदि।

काव्य में नायिकाभेद, कुवलयानन्द, रघुवंश, माघ, किरातार्जुनियादि।

मीमांसा में धर्म सिन्धु, व्रतार्कादि।

वैशेषिक में तर्कसंग्रहादि।

न्याय में जागदीशी आदि।

योग में हठप्रदीपिकादि।

सांख्य में सांख्यतत्वकौमुद्यादि।

वेदान्त में योगवासिष्ठ पञ्चदश्यादि

वैद्यक में शार्ङ्गधरादि।

स्मृतियों में मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोक और अन्य सब स्मृति, सब तन्त्र ग्रन्थ, सब पुराण, सब उपपुराण, तुलसीदास कृत भाषा रामायण, रुक्मिणीमङ्गलादि और सर्व भाषा ग्रन्थ ये सब कपोलकल्पित मिथ्या ग्रन्थ हैं।

उपरोक्त विचारों पर कुछ प्रश्न उपस्थित होते हैं जिनका उत्तर महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं -
(प्रश्न) क्या इन ग्रन्थों में कुछ भी सत्य नहीं?
(उत्तर) थोड़ा सत्य तो है परन्तु इसके साथ बहुत सा असत्य भी है। इस से ‘विषसम्पृक्तान्नवत् त्याज्याः’ जैसे अत्युत्तम अन्न विष से युक्त होने से छोड़ने योग्य होता है वैसे ये ग्रन्थ हैं।
(प्रश्न) क्या आप पुराण इतिहास को नहीं मानते?
(उत्तर) हां मानते हैं परन्तु सत्य को मानते हैं मिथ्या को नहीं।
(प्रश्न) कौन सत्य और कौन मिथ्या है?
(उत्तर) ब्राह्मणानीतिहासान् पुराणानि कल्पान् गाथा नाराशंसीरिति॥
—यह गृह्यसूत्रादि का वचन है।
जो ऐतरेय, शतपथादि ब्राह्मण लिख आये उन्हीं के इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा और नाराशंसी पांच नाम हैं; श्रीमद्भागवतादि का नाम पुराण नहीं।
(प्रश्न) जो त्याज्य ग्रन्थों में सत्य है उसका ग्रहण क्यों नहीं करते?
(उत्तर) जो-जो उनमें सत्य है सो-सो वेदादि सत्य शास्त्रों का है और मिथ्या उनके घर का है। वेदादि सत्य शस्त्रों के स्वीकार में सब सत्य का ग्रहण हो जाता है। जो कोई इन मिथ्या ग्रन्थों से सत्य का ग्रहण करना चाहै तो मिथ्या भी उस के गले लिपट जावे। इसलिए ‘असत्यमिश्रं सत्यं दूरतस्त्याज्यमिति’ असत्य से युक्त ग्रन्थस्थ सत्य को भी वैसे छोड़ देना चाहिए जैसे विषयुक्त अन्न को।
आजकल के सम्प्रदायी और स्वार्थी ब्राह्मण आदि जो दूसरों को विद्या सत्संग से हटा और अपने जाल में फंसा के उन का तन, मन, धन नष्ट कर देते हैं और चाहते हैं कि जो क्षत्रियादि वर्ण पढ़ कर विद्वान् हो जायेंगे तो हमारे पाखण्डजाल से छूट और हमारे छल को जानकर हमारा अपमान करेंगे इत्यादि विघ्नों को राजा और प्रजा दूर करके अपने लड़कों और लड़कियों को विद्वान् करने के लिये तन, मन, धन से प्रयत्न किया करें।
( क्रमशः.............)

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