बुधवार, 8 मई 2019

सैद्धान्तिक चर्चा - १९. पूजा क्या है? पूजा कैसे करे?

सैद्धान्तिक चर्चा - १९.        पूजा क्या है ? पूजा कैसे करें ?
                                        आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री  

पूजा क्या है ?
पूजा कैसे करें ?
आइए आज इन प्रश्नों पर विचार करेंगे।

पूजा = पूज् + "चिन्तिपूजिकथिकुम्बिचर्च्चश्च" इति अङ् । ततष्टाप्। पूजायां सत्कारः अर्थात् पूजा  शब्द का अर्थ के सत्कार करना ।

यहां हम विचार करेंगे कि पूजा शब्द जहां जहां प्रयोग हो वहां वहां सत्कार करना , सम्मान करना , सेवा करना , यथायोग्य व्यवहार करना ऐसा  समझना चाहिए

आज कल पूजा का विकृत स्वरूप देखने को मिलता है जैसे पत्थर या धातु आदि की बनी हुई मूर्ति को तिलक लगाना, धूप दिखाना, भोग लगाना, वस्त्र पहनाना आदि ।

पूजा शब्द का व्यावहारिक प्रयोग देखिए कोई कहता है हम अभी पेट पूजा करेंगे इसका अभिप्राय यह है कि वह भोजन करने वाला है। न कि वह पेट पर टीका लगायेगा।

पूर्व की चर्चा में हम देवों का वर्णन कर चुकें हैं । आइए उनकी पूजा कैसे करें इस पर विचार करते हैं -

हमारा प्रथम देव परमेश्वर है तो परमेश्वर पर पूर्ण विश्वास करना, परमेश्वर की आज्ञा पालन करना, परमेश्वर की उपासना करना, प्राणी मात्र का हित करना अर्थात् परोपकार करना ही ईश्वर पूजा है वेद मन्त्रों से परमेश्वर की स्तुति करना भी ईश्वर की पूजा है।

पूजक - पूजा करने वाला
पूज्य - पूजा के योग्य ( देव )
पूजा की सामग्री - देव के सत्कार के लिए उपयुक्त सामग्री

परमेश्वर की भेंट में प्रस्तुत करने का ऐसा कोई सामान हमारे पास नही है जिसे सेवा में लाया जा सके इसीलिए स्वयं को परमेश्वर की व्यवस्था में लगाना ही परमेश्वर की पूजा है । परमेश्वर की उपासना की जाती है।

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज पूना प्रवचन में कहते हैं - " पूजा शब्द का अर्थ सत्कार है । अब देव को पूजा कहने से परमात्मा का सत्कार करना यह अर्थ होता है, चेतन पदार्थों का ही केवल सत्कार सम्भावित है जड़ पदार्थों का अर्थात् मूर्तियों का सत्कार सम्भव नही होता, मुख्य तत्व से वेद मन्त्र के पठन से ईश्वर का सत्कार होता है, इसीलिए प्राचीन आर्य लोगों ने होम‌ के स्थल में मन्त्रों की योजना की है, इसी तरह यज्ञशाला को देवायतन अथवा देवालय कहा है।
इस कथन से अर्वाचीन देवालय अर्थात् मन्दिरों को कोई न समझे, देवालय का अर्थ तो यज्ञशाला ही है।"

मनुष्यों में पांच देव हैं - माता, पिता, आचार्य, अतिथि और पति /पत्नी इनका सत्कार करना पूजा है।
अर्थात् माता - पिता ( माता - पिता के समान ताऊ-ताई, चाचा-चाची, दादा-दादी, नाना-नानी तथा सासु-ससुर भी पूजनीय हैं) का उनके लिए आवश्यक सामग्री प्रस्तुत करके सत्कार करना।

आचार्य और अतिथि ( जो विद्वान, धार्मिक, परोपकारी, सत्यवादी, जितेन्द्रिय और निश्छल) का भी माता - पिता के समान ही सत्कार करना ।

पति के द्वारा पत्नि का सत्कार करना और पत्नि के द्वारा पति का सत्कार करना भी पूजा के अन्तर्गत आता है।
इस सन्दर्भ में महाराज मनु की शिक्षा महत्वपूर्ण है

सन्तुष्टो भार्यया भर्त्ता भर्त्रा भार्या तथैव च।
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम्।।
      जिस कुल में भार्या से प्रसन्न पति और पति से भार्या सदा प्रसन्न रहती है, उसी कुल में निश्चित कल्याण होता है और दोनों परस्पर अप्रसन्न रहें तो उस कुल में नित्य कलह वास करता है।

जड़ देवताओं ( प्राण, अग्नि, जल, वायु और सूर्यादि) का पूजन केवल अग्निहोत्र ( देव यज्ञ) से ही होता है। क्योंकि अग्नि देवताओं का मुख है जैसे मुख को देने पर पूरे शरीर का पोषण हो जाता है वैसे ही अग्निहोत्र करने से सभी जड़ देवताओं का पूजन हो जाता है। प्राचीन काल में पूजा के स्थान पर पांच यज्ञों का वर्णन मिलता है-
१. ब्रह्म यज्ञ ( सन्ध्या और स्वाध्याय)
२. देव यज्ञ ( अग्निहोत्र = हवन)
३. पितृ यज्ञ ( माता - पिता की सेवा)
४. अतिथि यज्ञ ( विद्वानों का सत्कार)
५. बलिवैश्वदेव यज्ञ ( जीवों के लिए कुछ भोज्य पदार्थ निकालना)।

महर्षि दयानन्द सरस्वती महाराज ने अपने साहित्य और व्याख्यानों में स्थान स्थान पर इन्ही का वर्णन किया है ।

अब हम वर्तमान में प्रचलित कुछ पूजा का विश्लेषण करेंगे -
पूजा के नाम पर बहुत सारा सामान मंगाया जाता है, एक चौकी सजाई जाती है फिर यजमान को कहा जाता है अब देवता चौकी पर आरहे हैं आप उनको अमुक अमुक सामान भेंट कीजिए और बारी बारी से देवताओं के पूजन के नाम पर सारा सामान चौकी पर चढ़वा दिया जाता है । आप कभी पूजा कराने वाले से पूछियेगा कि महाराज ! किस देवता को आपने चौकी पर बुलाया था तो हो सकता है वह कहेगा कि गणेश, ब्रह्मा, विष्णु या देवी को बुलाया था लेकिन आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि परमेश्वर के अतिरिक्त ऐसा कोई देवता होता ही नही है । हम पिछली चर्चाओं में यह बता चुके हैं कि परमेश्वर का ही नाम गणेश है - "गण संख्याने" इस धातु से ‘गण’ शब्द सिद्ध होता है, इसके आगे ‘ईश’ वा ‘पति’ शब्द रखने से ‘गणेश’ और ‘गणपति शब्द’ सिद्ध होते हैं। ‘ये प्रकृत्यादयो जडा जीवाश्च गण्यन्ते संख्यायन्ते तेषामीशः स्वामी पतिः पालको वा’ जो प्रकृत्यादि जड़ और सब जीव प्रख्यात पदार्थों का स्वामी वा पालन करनेहारा है, इससे उस ईश्वर का नाम ‘गणेश’ वा ‘गणपति’ है।
इसीप्रकार ब्रह्मा, विष्णु और देवी भी परमेश्वर के ही नाम हैं और वह परमेश्वर सर्वत्र व्यापक है तो वह चौकी पर भी है अर्थात् बुलाने का नाटक व्यर्थ ही रहा ना ।

जब से भारत में पुराणों का प्रचार हुआ है तब से अन्ध परम्पराएं प्रचारित हो गयी है।

चौकी पुजा, मूर्ति पूजा, नदी पूजा, वृक्ष पूजा, तथा कब्र पूजा निरर्थक है इनसे लाभ कुछ नही बल्कि हानि ही हानि है।

माता श्रीमती शान्ति नागर की कविता यहां बहुत अच्छा सन्देश देती है -

मंदिरों में जले सैकड़ों दीप हैं ।
जिन्दगी में किसीकी जलाओ दिया ।।
झोपडी में किसी की जलाओ दिया ...

ये कलश के कलश दूध अभिषेक का
फैलता नालियों में बहा जा रहा ।
घूंट दो घूंट देदेते मासूम को
याद जिसको नहीं दूध कब था पिया ।।
जिन्दगी में किसीकी जलाओ दिया ।
झोपडी में किसीकी जलाओ दिया ।।

ये थाल व्यंजन भरे जिसके आगे धरे
वो न सूंघेगा खाना बड़ी बात है ।
टूक दो टूक दे दो अभागे को तुम
भूख को मेटने जिसने पानी पिया ।।
जिन्दगी में किसीकी जलाओ दिया ।
झोपडी में किसीकी जलाओ दिया !!

तुमने चुंदरी चढ़ाई बड़ी भक्ति से
सैकड़ों चुदारियां हैं न ओढेगी वो ।
उस बेटी के कुर्ते पर डालो नजर
चिंदी चिंदी हुआ अब न जाता सियां।।
जिन्दगी में किसीकी जलाओ दिया ।
झोपडी में किसीकी जलाओ दिया ।।

गंगा यमुना की करते रहे आरती
और प्रदूषण भी सारा वहाया वहीं ।
अन्धविश्वास ऐसा प्रबल हो गया
पाप सब धुल गए आचमन कर लिया ।।
जिन्दगी में किसीकी जलाओ दिया ।
झोपडी में किसीकी जलाओ दिया ।।

भागवत भी सुनी और कथा राम की
किन्तु बदलाव जीवन में आया नहीं ।
उस व्यथा की कथा भी सुनों तो जरा
जिसकी वेटी ने पति गृह में विष पी लिया ।।
जिन्दगी में किसीकी जलाओ दिया ।
झोपडी में किसीकी जलाओ दिया !!!

पर्वतों के शिखर शिव का पूजन किया
और घाटियों में रहे देवियाँ ढूँडते ।
घर के शिव और देवी उपेक्षित पड़े
हैं दुखारी बड़े अब न जाता जिया ।।
जिन्दगी में किसीकी जलाओ दिया ।
झोपडी में किसीकी जलाओ दिया !!

मंदिरों में जले सैकड़ों दीप हैं ।
जिन्दगी में किसीकी जलाओ दिया ।।
झोपडी में किसीकी जलाओ दिया ...

क्रमशः ...

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