मंगलवार, 5 मार्च 2019

सैद्धान्तिक चर्चा -३ "वेद ज्ञान ही सर्वोपरि है।"

सैद्धान्तिक चर्चा - ३.          "वेद ज्ञान ही सर्वोपरि है।"
                                         आचार्य हरिशंकर अग्निहोत्री

० सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक्पृथक् । वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक्संस्थाश्च निर्ममे । । (मनु०)
(सः) उस परमात्मा ने (सर्वेषां तु नामानि) सब पदार्थों के नाम (यथा – गो – जाति का ‘गौ’, अश्वजाति का ‘अश्व’ आदि) (च) और (पृथक् – पृथक् कर्माणि) भिन्न – भिन्न कर्म (यथा – ब्राह्मण के वेदाध्यापन, याजन; क्षत्रिय का रक्षा करना; वैश्य का कृषि, गोरक्षा, व्यापार आदि अथवा मनुष्य तथा अन्य प्राणियों के हिंस्त्र – अहिंस्त्र आदि कर्म  (च) तथा (पृथक् संस्थाः) पृथक् – पृथक् विभाग (जैसे – प्राणियों में मनुष्य, पशु, पक्षी आदि  या व्यवस्थाएं (यथा – चारवर्णों की व्यवस्था  (आदौ) सृष्टि के प्रारम्भ में (वेदशब्देभ्यः एव) वेदों के शब्दों से ही (निर्ममे) बनायीं ।
                इस वचन के अनुकूल आर्य लोगों ने वेदों का अनुकरण करके जो व्यवस्था की, वह सर्वत्र प्रचलित है । उदाहरणार्थ – सब जगत् में सात ही बार हैं, बारह ही महीने हैं और बारह ही राशियां हैं, इस व्यवस्था को देखो स्वामी जी ने सत्यार्थ प्रकाश में उक्त श्लोक के बाद ये वाक्य कहे हैं।’’ वेद में भी कहा है – शाश्वतीभ्यः समाभ्यः ।। (यजु० ४०।८) ‘‘अर्थात् आदि सनातन जीवरूप प्रजा के लिए वेद द्वारा परमात्मा ने सब विद्याओं का बोध किया है ।’’

० ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद यह चार वेद हैं और यह ही केवल प्रामाणिक ग्रन्थ हैं अन्य ग्रन्थों में केवल वही और उतना ही जो और जितना वेद के अनुकूल हो मान्य है, वेद विरुद्ध होने पर कोई भी ग्रन्थ प्रामाणिक नही होता ।

० आचार्य सायण ने कृष्ण यजुर्वेद की तैत्ति. सं. के उपोद्घात में स्वयमेव लिखा है—
प्रत्क्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुध्यते।
एनं विदन्ति वेदेन तस्माद् वेदस्य वेदता।
अर्थात्-प्रत्यक्ष अथवा अनुमान प्रमाण से जिस तत्त्व (विषय) का ज्ञान प्राप्त नहीं हो रहा हो, उसका ज्ञान भी वेदों के द्वारा हो जाता है। यही वेदों का वेदत्व है।

० ऐसा भी प्रसिद्धि है कि परमात्मा ने सृष्टि के प्रारम्भ में ही ‘वेद’ के रूप में अपेक्षित ज्ञान का प्रकाश कर दिया। महाभारत में ही महर्षि वेदव्यास ने इस सत्य का उद्घाटन करते हुए लिखा है—
अनादि निधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा।
आदौ वेदमयी दिव्या यतः सर्वाः प्रवृत्तयः ।। (महा. शा. प. 232, 24)। अर्थात्—सृष्टि के प्रारम्भ में स्वयंभू परमात्मा से ऐसी दिव्य वाणी (वेद) का प्रादुर्भाव हुआ, जो नित्य है और जिससे संसार की गतिविधियाँ चलीं। स्थूल बुद्धि से यह अवधारणा अटपटी सी-कल्पित सी लगती है, किन्तु है सत्य।

० स एष पूर्वेषामपि गुरुःकालेनानवच्छेदात् (योग द०)
जैसे वर्तमान समय में हम लोग अध्यापकों से पढ़ ही के विद्वान होते हैं वैसे परमेश्वर सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए अग्नि आदि ऋषियों का गुरु अर्थात् पढ़ाने हारा है, क्योंकि जैसे जीव सुषुप्ति और प्रलय में ज्ञान रहित हो जाते हैं, वैसा परमेश्वर नही होता । उसका ज्ञान नित्य है।

० जैसा माता-पिता अपने सन्तानों पर कृपा दृष्टि कर उन्नति चाहते हैं, वैसे ही परमात्मा  ने सब मनुष्यों पर कृपा करके वेदों को प्रकाशित किया है, जिससे मनुष्य अविद्यान्धकार भ्रमजाल से छूटकर विद्या विज्ञान रूप सूर्य को प्राप्त होकर अत्यानन्द में रहें और विद्या तथा सुखों की वृद्धि करते जायें।

क्रमशः ...

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